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कांग्रेस की सरकार को समर्थन देने के लिए तैयार थे अटल बिहारी वाजपेयी, बस एक शर्त थी

कांग्रेस से एक आदमी को PM बनाने की शर्त थी. क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वो नेता कौन था?

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वो राजनैतिक अस्थिरता का दौर था. गठबंधन सरकारें बन रही थीं, गिर रही थीं. वाजपेयी चाहते थे कोई स्थिर सरकार बने केंद्र में. इसके लिए वो कांग्रेस को भी समर्थन देने के लिए तैयार थे. इसके लिए मगर एक शर्त थी उनकी.
बीजेपी और कांग्रेस, धुर-विरोधी हैं. दोनों का साथ आना माने एक म्यान में दो तलवार. शॉर्ट में, नामुमकिन. बल्कि 'कांग्रेस मुक्त भारत' तो बीजेपी का नारा है. मगर ये तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बात है. अटल बिहारी वाजपेयी अलग टाइप के थे. एक बार की बात है. वाजपेयी केंद्र में कांग्रेस की सरकार को समर्थन देने के लिए तैयार थे. उनकी एक शर्त थी मगर. कि कांग्रेस मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए.
आज बनी, कल गिरी जैसी हालत थी सरकारों की ये 90 के दशक की बात है. नरसिम्हा राव की सरकार का कार्यकाल खत्म हो चुका था. इसके बाद सरकारों का ये हाल था कि आ रही थीं और जा रही थीं. 1996 से 1998 के बीच के दो सालों में चार सरकारें आ चुकी थीं. इनमें से दो के मुखिया तो खुद वाजपेयी ही थे. 1996 के चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. मगर 13 दिन बाद ही वाजपेयी को इस्तीफा देना पड़ा था. फिर देवगौड़ा आए. गए. फिर गुजराल आए. वो भी गए. कोई सरकार टिक ही नहीं रही थी. कहते हैं कि वाजपेयी को बड़ी कोफ़्त हो रही थी ऐसे रोज बनने और गिरने वाली सरकारों से. वो चाहते थे, थोड़ी स्थिरता आए. उनका मानना था कि ऐसे तो मुल्क का ही नुकसान हो रहा है. मजबूत सरकार बनवाने के लिए उनका एक प्लान था.
नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और मनमोहन सिंह वित्तमंत्री. वो मनमोहन ही थे, जिन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को लिबरल बनाया. बाजार खोला, उदारीकरण किया. मनमोहन के साथ वाजपेयी और आडवाणी, दोनों के अच्छे-भले रिश्ते थे.
नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और मनमोहन सिंह वित्तमंत्री. वो मनमोहन ही थे, जिन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को लिबरल बनाया. बाजार खोला, उदारीकरण किया. 


वाजपेयी और आडवाणी, दोनों से बड़े अच्छे रिश्ते थे मनमोहन के नरसिम्हा राव की सरकार में वित्तमंत्री रहे थे मनमोहन. उन्हें लेकर वाजपेयी की राय बहुत अच्छी थी. इस मामले में आडवाणी के खयाल भी वाजपेयी से मेल खाते थे. उनके और मनमोहन के रिश्ते भी अच्छे थे. मनमोहन और आडवाणी का भी एक किस्सा है. 1991 की बात है. मनमोहन सिंह अपना वो मशहूर बजट पेश करने लोकसभा में खड़े हुए. ये वही लिबरलाइजेशन वाला बजट था. लोकसभा के अंदर हंगामा हो गया. लेफ्ट उन्हें भाषण तक नहीं देने दे रहा था. एकाएक लोगों ने देखा कि आडवाणी अपनी सीट पर खड़े हुए हैं. उन्होंने स्पीकर शिवराज पाटिल से कहा. कि मनमोहन को कम से कम अपना भाषण पूरा करने का मौका तो दिया ही जाना चाहिए. ऐसे कितने मौके आते हैं जब एक नेता अपने विपक्षी नेता को इस तरह सपोर्ट दे. आडवाणी की इस बात के बाद लोकसभा में शांति हुई और मनमोहन अपना बजट भाषण पूरा कर पाए.
जब बजट पर बहस चली, तो वाजपेयी भी बोले. ऐसा नहीं था कि वो उस बजट से पूरी तरह सहमत हों. कई आपत्तियां जताईं उन्होंने. लेकिन साथ में मनमोहन की तारीफ भी की. बाजार खोलने और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए उन्होंने मनमोहन की खूब वाहवाही की. मनमोहन सिंह ने भी वाजपेयी की आपत्तियों को ध्यान से सुना. कहा, वो कमियों पर काम करेंगे. सुझावों पर भी गौर करेंगे.
ये भी संयोग ही था कि 2004 में जब वाजपेयी की राजनीति का दौर खत्म हुआ, तो उसके बाद के 10 साल मनमोहन सिंह के थे.
ये भी संयोग ही था कि 2004 में जब वाजपेयी की राजनीति का दौर खत्म हुआ, तो उसके बाद के 10 साल मनमोहन सिंह के थे.


वाजपेयी ने मनमोहन को संदेसा भिजवाया यही बैकग्राउंड था कि वाजपेयी को लगा, कांग्रेस को केंद्र में एक स्थिर सरकार बनाने का मौका दिया जाना चाहिए. उन्होंने अपने विश्वासपात्र आर वी पंडित को संवदिया बनाकर मनमोहन के पास भेजा. पंडित ने अपने एक लेख में इसका जिक्र किया था. बकौल पंडित, वाजपेयी ने बस अपने मन से मनमोहन को संदेसा नहीं भिजवाया था. आडवाणी से राय-सलाह करके, उन्हें भरोसे में लेकर ये काम किया था. आडवाणी भी वाजपेयी के प्रस्ताव पर राजी थे. ये प्रस्ताव ऐसा था कि आपको यकीन नहीं होगा. वाजपेयी ने कहलवाया था कि अगर कांग्रेस मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर केंद्र में सरकार बनाए, तो बीजेपी उसे समर्थन देने को तैयार है. मतलब स्थिर सरकार के लिए वाजपेयी ये तक करने को तैयार थे.
वाजपेयी के प्रस्ताव पर मनमोहन ने क्या जवाब दिया? उन्होंने कहलवाया-
कांग्रेस इस बात के लिए कभी नहीं मानेगी.
बाद में यही मनमोहन दो बार PM बने सही बात थी. कांग्रेस कभी नहीं मानती. सोनिया गांधी का दौर वैसे भी शुरू हो चुका था. सोनिया को नरसिम्हा राव का प्रकरण याद रहा होगा. मनमोहन की छवि अच्छी थी, लेकिन राव के साथ उनके ताल्लुकात अच्छे थे. कांग्रेस किसी सूरत में मनमोहन को PM नहीं बनाती. इसीलिए वाजपेयी के इस प्रस्ताव पर बात नहीं बनी. नतीजा चाहे जो रहा हो, मगर ये बात तो बड़ी अनोखी है. मतलब देश के लिए, देश की बेहतरी के लिए कोई नेता अपनी धुर-विरोधी पार्टी की सरकार बनवाने पर राजी हो जाए. राजी नहीं, बल्कि खुद से ही ऐसा करने का प्रस्ताव रखे. ये तो सच में मिसाल ही ठहरी.
हालांकि यही मनमोहन आगे चलकर कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री बने. वो भी दो-दो बार. दोनों सरकारों ने कार्यकाल भी पूरा किया.


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