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'मैं सांस लेती हूं, उसके दर्शन, ऊर्जा और रोशनी में'

पढ़िए सुकृता पॉल कुमार की कुछ कविताएं.

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 एक कविता रोज़ में आज पढ़िए सुकृता पॉल कुमार के नए कविता संग्रह 'समय की कसक' से कुछ कविताएं. वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इन कविताओं का हिंदी अनुवाद किया है रेखा सेठी ने.


लेखक परिचय

सुकृता पॉल कुमार

कवि, शिक्षक, आलोचक, सम्पादक व अनुवादक सुकृता पॉल कुमार भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य की प्रतिष्ठित पहचान हैं. उनकी कविता का कैनवस, परिवेश और यथार्थ के साथ मानवीय अनुभव से जुड़े बड़े सवालों, प्रकृति के विराट में एकलय होते मानवीय अस्तित्व, रिश्तों की प्रगाढ़ता,स्त्री के नैसर्गिक रूप के अद्भुत बिम्ब, बेघरों के जीवन संघर्षों के ब्योरे और भी बहुत-सी छोटी-बड़ी बातों से रचा गया है. उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं - ‘विदआउट मर्जिंस’, ‘अपूर्ण’, ‘ड्रीम कैचर’, ‘ऑसिलेशन्स’, ‘अनटाइटल्ड’ आदि. गुलज़ार ने उनकी कविताओं के अनुवाद ‘पोएम्स कम होम’ शीर्षक से किए हैं. सविता सिंह के साथ उनकी कविताओं की द्विभाषी प्रस्तुति ‘साथ चलते हुए’ में हुई है. आलोचना के क्षेत्र में ‘नरेटिंग पार्टीशन’ तथा ‘इस्मत आपा’ विशेष उल्लेखनीय हैं. उनके द्वारा किये अनुवादों में प्रमुख हैं ‘ब्लाइंड’ (जोगिन्दर पॉल का उपन्यास नादीद) तथा ‘न्यूड’ (विशाल भारद्वाज की कविताएं)। International Writing Programme, IOWA में तीन माह की अवधि की लेखन कार्यशाला में सुकृता को कवि रूप में आमन्त्रित किया गया. उन्हें अनेक फ़ेलोलोशिप मिले हैं जिनमें शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान का तथा भारतीय संस्कृति मन्त्रालय का टैगोर फ़ेलोशिप उल्लेखनीय हैं. वे अभी हाल तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अरुणा आसफ़ अली चेयर पर पदासीन रही हैं.


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अनुवादक परिचय

रेखा सेठी

डॉ. रेखा सेठी, दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक होने के साथ-साथ, लेखक, आलोचक, सम्पादक तथा अनुवादक हैं. स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी कविता तथा कहानी उनके विशेष अध्ययन क्षेत्र हैं. मीडिया के विविध रूपों में भी उनकी सक्रिय भागीदारी और दिलचस्पी रही है. उनकी प्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख हैं- 
विज्ञापन: भाषा और संरचना
’, ‘
विज्ञापन डॉट कॉम
’, ‘
व्यक्ति और व्यवस्था: स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी कहानी का
 
 
 
सन्दर्भ
’.
 
निबन्धों की दुनिया: प्रेमचन्द
’, ‘
निबन्धों की दुनिया: हरिशंकर परसाई
’  
तथा 
निबन्धों की दुनिया: बालमुकुन्द गुप्त

 का सम्पादन भी उन्होंने किया। उनके लिखे लेख व पुस्तक समीक्षाएं- ‘जनसत्ता’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘पूर्वग्रह’, ‘संवेद’, ‘हंस’, ‘Book Review’, Indian Literature 
आदि पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं. अपनी लिखी आलोचनाओं में उन्होंने सदा रचना को प्राथमिकता दी है. रचना के मर्म तक पहुंचकर उसके संवेदनात्मक उद्देश्यों की पहचान करना उनकी आलोचना का प्राण है. आजकल वे स्त्री रचनाकारों की कविताओं के माध्यम से साहित्य एवं जेंडर के सम्बन्ध को समझने की कोशिश कर रही हैं. उनका आग्रह स्त्री-कविता को स्त्री-पक्ष और उसके पार देखने का है.

 

सर्जना के तनाव में

रचने की प्रक्रिया में

मैं, हरदम अपने से आगे ही रहती हूं

पीछे मुड़कर देखने को कुछ भी नहीं

बाक़ी बचे वक़्त में

मैं, अपना ही पीछा करती हूं

आगे देखने को कुछ भी नहीं

मुद्दा सिर्फ़

क़दमताल बनाये रखने का है...


गुरु

योगी हैं पेड़

तन कर खड़े अपनी जड़ों पर

दिव्य निस्संगता की

प्रभा बिखेरते

हर एक

अनूठा

और सन्तुष्ट

धीरे से बहती हवाओं के मौन संगीत में

गर्व से झूमते

विचारशून्य स्थिति में ध्यान मग्न

अपने अस्तित्व की एक-एक पत्ती में

पवित्र सांसें फूंकते

भरी दोपहर में

ठण्डी छाया देते हैं,

शान्त विश्राम कर सके धरा

अपनी महिमा से निर्लिप्त

योगी वृक्ष

मैदानों की कठोर उष्णता

कैसे समझ सकेगी

उनकी आनन्दमय ताज़गी को

ऊपर की ओर उठता पेड़

उद्देश्यहीन खोज में

उसकी ऊंचाई

रखती है सुरक्षित

उसे मिट्टी में

दूर दमकते सूरज की प्रफुल्लता

मद्धिम पड़ जाती

इस योगी की आभा में

एक मेरे आंगन में भी है

मैं सांस लेती हूं,

उसके दर्शन, ऊर्जा और रोशनी में

जिससे

अपनी जड़ों, शाखाओं और पत्तियों को

सींच सकूं


सूर्योदय रंगते हुए

कोयले की काली स्याही

घुलती जाती

गाढ़े नीले रंग में

किनारे-किनारे

गहराइयां तराशती

धरती-आकाश के बीच

क्षितिज

एक दूसरे पर ठहरीं

सिल्लियां

ख़ामोश लयात्मक दस्तक

रंगीन स्कर्ट की तहों-सी

चटकती दीवारें

जो उठतीं और चल पड़तीं

एक लम्बे थिरकते पैर के पीछे

दरारों और सेंधों के बीच झांकती

हज़ार हज़ार बांहें

उगते हुए

चमकीले रंगों को

भर लेतीं बांहों में


अनुवादक

उस हंसते हुए बुद्ध

के बूढ़े चेहरे पर

मैंने देखी वो मासूमियत

जो अचानक फूट पड़ी

आंसुओं में और

बह निकलीं अबाध आनन्द

की धाराएं

बह जाने दिया उन्हें

चेहरे की गहरी झुर्रियों में से

संगीत की सभी बाईस श्रुतियां

ठहरी हैं भवों के बीच

नाद और अनहद

गाते हैं एक सुर

भवें नाचतीं अपनी-अपनी धुन पर

भीतर का कान

संभाले रहता है

आनन्द और पीड़ा के मौन

बाहर के दोनों कान

थिरकते हैं

ध्वनि में रूपान्तरित हुए बिना

श्रुति-मंजरी के रंगों, छवियों में

कलाकृति

जो बोलती है भाषा

संगीत की...




पुस्तक का नाम : समय की कसक 
लेखक : सुकृता पॉल कुमार (अनुवाद- रेखा सेठी) 
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
 

ऑनलाइन उपलब्धता : अमेज़न 

मूल्य: 295 रूपए  (पेपर बैक)


 

कुछ और कविताएं यहां पढ़िए:

‘पूछो, मां-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं’

‘ठोकर दे कह युग – चलता चल, युग के सर चढ़ तू चलता चल’

मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
'

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
'

‘दबा रहूंगा किसी रजिस्टर में, अपने स्थायी पते के अक्षरों के नीचे’




Video देखें:

एक कविता रोज़: ‘प्रेम में बचकानापन बचा रहे’