केंद्रीय सड़क और परिवहन मंत्रालय का कहना है कि माइल्ड या मीडियम कलर ब्लाइंड लोग अब ड्राइविंग लाइसेंस बनवा सकेंगे. इसके लिए केंद्रीय मोटर वाहन अधिनियम, 1989 में संशोधन किया गया है. माइल्ड या मीडियम कलर ब्लाइंड कैटेगरी में शामिल लोग ड्राइविंग लाइसेंस बनवा सकें, इसके लिए फॉर्म में कुछ बदलाव किए गए हैं. डीएल के लिए आवेदन करने वालों को प्रूफ दिखाना होगा कि वे माइल्ड या मीडियम कलर ब्लाइंड हैं.
केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय मोटर वाहन अधिनियम में संशोधन से संबंधित गजट नोटिफिकेशन जारी कर दिया है. कलर ब्लाइंडनेस की समस्या वाले लोगों की मांग को ध्यान में रखते हुए मंत्रालय ने केंद्रीय मोटर वाहन नियम 1989 के फॉर्म 1 और 1A में बदलाव कर दिया है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक AIIMS के नेत्र रोग विशेषज्ञ से सुझाव लेने के बाद इस पर फैसला लिया गया है.
Notification issued for amendment to FORMs 1 and 1A of Central Motor Vehicles Rules 1989 for enabling Citizens with mild to medium colour blindness in obtaining driving license: Ministry of Road Transport and Highways pic.twitter.com/UET2cGydlh
— ANI (@ANI) June 26, 2020
क्या है कलर ब्लाइंडनेस?
जब किसी की आंखें लाल और हरे रंगों को उस तरह से नहीं देख पातीं, जैसे वो वास्तव में होते हैं, तब कहा जाता है कि व्यक्ति कलर ब्लाइंड है. इसे कलर डेफिसिएंसी भी कहा जाता है. आंखों के चार हिस्से सबसे अहम होते हैं- कॉर्निया, प्यूपिल, लेंस और रेटिना. जिस क्रम में लिखा है, उसी क्रम में ये आंख में स्थित होते हैं. रेटिना आंख के सबसे आखिरी छोर पर होता है. यहीं पर किसी भी ऑब्जेक्ट की इमेज बनती है. इस टिशू में कई सारी सेल्स होती हैं. लेकिन दो अहम सेल्स ऐसी हैं, जो लाइट डिटेक्ट करती हैं. ये हैं- रॉड्स और कॉन्स. रॉड्स लाइट के लेवल को पहचानता है, यानी लाइट डार्क है या ब्राइट है, इसकी पहचान करता है. वहीं कॉन्स रंगों की पहचान करता है.
कॉन्स सेल्स कलर ब्लाइंडनेस के लिए जिम्मेदार होती हैं. मूलचंद अस्पताल के आई सर्जन डॉक्टर नवीन सकुजा के मुताबिक,
तीन तरह के कॉन्स होते हैं. एक लाल रंग के लिए सेंसिटिव होता है, एक हरे रंग के लिए और एक नीले रंग के लिए. दिमाग इन्हीं तीनों कॉन्स के जरिए रंग की पहचान करता है. इन्हीं तीनों कॉन्स में से अगर कोई डिफेक्टिव हो या ठीक से काम न करे, तो कलर ब्लाइंडनेस की कंडिशन हो जाती है. ज्यादातर मामलों में लाल और हरे रंग की सेल्स ही डिफेक्टिव होती हैं. गंभीर लेवल का कलर ब्लाइंडनेस तब होता है, जब ये तीनों सेल्स ही डिफेक्टिव हों. हल्का कलर ब्लाइंडनेस तब होता है, जब कोई एक सेल ठीक से काम न करे.’
लाल रंग कैसा दिखता है
कलर ब्लाइंड लोगों को हरा और लाल रंग थोड़ा ब्राउनिश-सा दिखता है. जिन्हें हल्का कलर ब्लाइंडनेस होता है, उन्हें ये दोनों रंग ब्राइट लाइट में तो ठीक दिखते हैं, लेकिन हल्की रोशनी में उन्हें ये दोनों रंग ब्राउनिश दिखते हैं. जिनके कलर ब्लाइंडनेस का लेवल हल्के से थोड़ा ज्यादा होता है, उन्हें ब्राइट लाइट में भी हरा और लाल रंग ब्राउनिश-सा दिखता है.
इसके अलावा तीसरा होता है गंभीर कलर ब्लाइंडनेस. ये बहुत ही कम (न के बराबर) लोगों को होता है, इसमें सबकुछ ग्रे दिखता है. कलर ब्लाइंडनेस सामान्य तौर पर दोनों आंखों को प्रभावित करता है और जिंदगीभर रहता है. ज्यादातर ये जेनेटिक ही होता है, लेकिन कई बार कोई गंभीर बीमारी के लिए ली जाने वाली दवाओं की वजह से भी हो सकता है.
ड्राइविंग लाइसेंस कलर ब्लाइंड लोगों को इसलिए नहीं मिलता, क्योंकि ट्रैफिक सिग्नल पहचानने में उन्हें दिक्कत होती है. इंडिकेटर की लाइट्स को पहचानना भी मुश्किल होता है. ऐसे में हादसों की आशंका बढ़ जाती है. हालांकि अब माइल्ड और मीडियम कलर ब्लाइंड लोगों को इसकी इजाजत मिल गई है.
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