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कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

एक कविता रोज़ में आज पढ़िये कवि गोपालदास 'नीरज' की कविता.

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फोटो - thelallantop
कुछ लोगों की नज़रों में सन्त-कवि और अन्य की नज़रों में निराश और मृत्युवादी पद्मश्री गोपालदास 'नीरज' जी का जन्म 04 जनवरी 1925 को इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ था. 19 जुलाई, 2018 को दिल्ली में उनका निधन हुआ.
नीरज जी के ढेरों काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें 'दर्द दिया', 'प्राण गीत', 'आसावरी', 'बादर बरस गयो', 'दो गीत', 'नदी किनारे', 'नीरज की गीतिकाएं', 'संघर्ष', 'विभावरी', 'नीरज की पाती', एवं 'लहर पुकारे' प्रमुख हैं. उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी गीत लिखे हैं और अपने समय में ‘दिल आज शायर है, ‘फूलों के रंग से’. 'लिखे जो खत तुझे’ और ‘ए भाई जरा देख के चलो’ जैसे गीत काफी सराहे गए थे. प्रस्तुत कविता 'कारवां गुज़र गया' का एक वर्शन फ़िल्म 'नई उमर की नई फसल' में एक गीत के रूप में भी देखा और सुना जा सकता है, जिसे मुहम्मद रफ़ी ने गाया है.
कारवां गुज़र गया, एक गीत की शक्ल में:
तो आइये पढ़वाते हैं आपको अभी के वक्त के सबसे लाडले कवि गोपालदास 'नीरज' की कविता 'कारवां गुज़र गया'.

स्वप्न झरे फूल से मीत चुभे शूल से लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे, कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई पांव जब तलक उठें कि ज़िंदगी फिसल गई पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए साथ के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गए और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे, कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे. क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा एक दिन मगर यहां ऐसी कुछ हवा चली लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली और हम लुटे-लुटे वक़्त से पिटे-पिटे

सांस की शराब का खुमार देखते रहे, कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे.

हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं और सांस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर और हम डरे-डरे नीर नयन में भरे ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे, कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे. मांग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन गांव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन पर तभी ज़हर भरी गाज एक वह गिरी पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी और हम अजान-से दूर के मकान से

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे, कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.


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