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मंटो पर फिल्म बनाते वक़्त नंदिता दास के दिमाग में क्या चल रहा था!

डायरेक्टर नंदिता दास ने बताई कई दिलचस्प बातें. आज मंटों का बड्डे है.

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'मंटो' के एक नाइट शूट के दौरान नवाजुद्दीन सिद्दीकी और डायरेक्टर नंदिता दास. (फोटोः नंदिता दास/FB)
कावेरी बामज़ई ने डेली ओ
 के लिए ये इंटरव्यू अंग्रेजी में किया था, जिसे हिंदी में प्रस्तुत कर रही हैं शिप्रा किरण. ..
फ्रांस के Cannes/कैन फिल्म फेस्ट में नंदिता दास पहली बार 2005 में मेन जूरी मेंबर बनकर गई थीं. 2013 में शार्ट फिल्मों की जूरी-मेंबर बनकर दोबारा. और अब तीसरी बार भी जाएंगी. बतौर डायरेक्टर उनकी दूसरी फिल्म 'मंटो' वहां की बड़ी श्रेणी 'अ सर्टेन रिगार्ड' में चुनी गई है. बीते साल जब नंदिता को इंडिया टुडे कॉनक्लेव के लिए एक शॉर्ट फिल्म 'इन द डिफेंस ऑफ फ्रीडम' बनाने का न्यौता दिया गया, तो वो फिल्म भी मंटो पर ही थी. उसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मंटो शानदार भाषण देते हैं. इसमें मंटो बने थे नवाज़ुद्दीन सिद्दिक़ी जो नंदिता की फीचर फिल्म में भी इसी रोल में हैं. 8 मई से शुरू हो रहे केन फिल्म फेस्ट से पहले हमने नंदिता से बात की.
Q. 'कैन' में आपकी फिल्म चुने जाने का मतलब क्या होता है? आप पहले भी वहां जाकर आ चुकी हैं, ये इतना महत्वपूर्ण इवेंट क्यों है? - यह ऐसा मंच है जहां शानदार फिल्मों के साथ-साथ महान डायरेक्टर और बहुत जागरूक दर्शक एक साथ दिखाई देते हैं. अफसोस है कि हमारे यहां इस फेस्ट के ऐसे जरूरी पक्षों को अनदेखा कर दिया जाता है. इंडिया में 'कैन' सिर्फ डिज़ायनर कपड़ों और रेड कारपेट तक सीमित कर दिया गया है. मैं इस फेस्ट में कई वर्षों से बेहतरीन सिनेमा देखती आई हूं. मैं चाहती थी ‘मंटो’ की शुरुआत यहीं से हो और 12 अप्रैल को जब इस फिल्म के कैन में चुने जाने की घोषणा हुई तो मेरे लिए वो यादगार दिन था.
नवाज़ और नंदिता फिल्म प्रमोशन के एक मौके पर; दूसरी फोटो केन फिल्म फेस्ट की जहां वे और फिल्म में मंटो की पत्नी सफिया का रोल निभा रही रसिका दुग्गल साथ नज़र आ रहे हैं. (फोटोः नंदिता दास/FB)
नवाज़ और नंदिता; दूसरी फोटो पिछले साल के केन फिल्म फेस्ट की जहां नवाज़, नंदिता और रसिका 'मंटो' को इंट्रोड्यूस करने गए थे. (फोटोः नंदिता दास/FB)

Q. आज के समय में ‘मंटो’ होने के क्या मायने हैं? - जैसे-जैसे मैं इस फ़िल्म की गहराई में उतरती गई, मैंने पाया कि आज मंटो अधिक प्रासंगिक हो गए हैं. अब भी कुछ ख़ास नहीं बदला. विभाजन के लगभग 70 साल बाद आज भी हम अभिव्यक्ति की आजादी और पहचान के उसी संकट से जूझ रहे हैं. बल्कि अब तो ये दिक्कतें और भी बढ़ चुकी हैं. आज भी हमारी पहचान मनुष्य होने के नाते नहीं जाति, वर्ग और धर्म से ही की जाती है. व्यक्ति की रचनात्मकता आज संकट में है. मेरी फ़िल्म 'मंटो’ मौजूदा दौर की ऐसी बहुत बातें आप तक पहुंचा पाएगी. मंटो की धारदार कलम, उनका ज़िंदगी को देखने का नजरिया हमें आईना दिखाएगा कि एक इंसान के तौर पर आज हम कितने असहिष्णु हो गए हैं.
वे तब भी प्रासंगिक थे और दुख की बात है कि मंटो आज भी प्रासंगिक हैं.

Q. सअादत हसन पर फ़िल्म बनाने का ख़्याल आपको क्यों आया? - कॉलेज के दिनों में मैंने पहली बार मंटो को पढ़ा था. कुछ बरस बाद देवनागरी में लिखी उनकी सब लिखावट का संग्रह ‘दस्तावेज़’ पढ़ा. उनकी कथा शैली सहज और मज़बूत थी. जिस खूबसूरती से उन्होंने उन रचनाओं में अपने समय को रेखांकित किया, वह मेरे लिए अचंभित करने वाला था. अपनी पहली फिल्म ‘फ़िराक़’ (2008) डायरेक्ट करने से पहले मैं मंटो की लघु कथाओं पर फिल्म बनाना चाहती थी. 2012 में उनके लेखों और निबंधों को पढ़कर उन्हें समझने में मुझे और मदद मिली. उनकी कहानी लोगों को जाननी ही चाहिए और मैं अब रचनात्मक और भावनात्मक दोनों ही स्तरों पर खुद को समृद्ध पा रही हूं कि उस कहानी को सामने ला सकी. मंटो हमेशा तमाम तरह की रूढ़ियों के खिलाफ खड़े रहे. वो लोगों की आंखों में उंगली डाल कर सच्चाई दिखाते थे. व्यंग्य के माध्यम से व्यवस्था पर करारा प्रहार करते थे. उनकी यही बातें मुझे आकर्षित करती हैं.
फीचर फिल्म 'मंटो' के एक दृश्य में नवाजुद्दीन सिद्दीकी.
फीचर फिल्म 'मंटो' के एक दृश्य में नवाजुद्दीन सिद्दीकी.

मैं मंटो के जीवन को जितना पास से समझती थी, वो मुझे और अपने लगते थे. उन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता जैसे मैं अपने पिता के बारे में, किसी कलाकार के बारे में पढ़ रही हूं. बहुत हद तक वह भी मंटो की ही तरह सबसे अलहदा और व्यवस्था में मिसफिट इंसान हैं. उनमें मानवता के लिए एक गहरी आत्मानुभूति रही. एक गहरी चिंता रही. जीवन का कोई भी पक्ष उनसे अछूता नहीं था. उनके लिए मनुष्य होना ही किसी की एकमात्र पहचान थी. मुश्किल वक्त में भी शब्दों की शक्ति में मंटो का अगाध विश्वास था और इसीलिए यही बात मेरे भीतर के किस्सागो को उनसे जोड़ती है. मुझे लगता है कि मैं भी मंटो की इस विरासत का एक हिस्सा हूं. उन्हें पढ़ते हुए मैंने जाना और महसूस किया कि कहीं न कहीं हम सबके भीतर एक ‘मंटोइयत’ है. ज़रूरत है तो उसे बाहर निकालने की.
Q. जब आप इंडिया टुडे के लिए शॉर्ट फिल्म 'इन दी डिफेंस ऑफ फ्रीडम' बना रही थीं तब लगा था कि ये बिल्कुल सही टाइम है? - मुझे 2012 में 'मंटो' पर फीचर फिल्म बनाने का विचार आया था. शुरू में मैं सोच रही थी कि आज के हालातों पर मूवी बनाऊं. भारत के साथ-साथ विश्व की परिस्थितियों को भी देखते हुए. जब इंडिया टुडे ने मुझे यह फिल्म बनाने के लिए कहा तब मैं 'मंटो' के प्री-प्रोडक्शन में बहुत बिज़ी थी. लेकिन उस टाइम भी मुझे इस बात ने परेशान कर रखा था कि मैं जरूरी विषयों पर क्यों काम नहीं कर पा रही! इसीलिए बिज़ी शेड्यूल में से वक्त निकालकर मैंने ये शॉर्ट मूवी बनाने का फैसला किया. मुझे पता था कि ये सही समय पर हो जाएगा. इस दौरान मेरी फीचर फिल्म की पूरी टीम को साथ लाने और मंटो के जीवन को करीब से समझने में भी बड़ी मदद मिली.

Q. इतने बरस बाद भी मंटो उतने ही प्रासंगिक क्यों हैं? - बहुत वजहें हैं. वैसे तो उन्होंने 70 साल पहले ये बात कह दी थी लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक है कि - ‘मैं उस समाज को और कितना नंगा करूं जो पहले से ही नंगा है. हां, ये सच है कि मैंने इस समाज की ख़ामियों को ढकने की कोशिश नहीं की. और ये मेरा काम भी नहीं है. मेरा काम है ब्लैकबोर्ड पर सफ़ेद चाक से लिख देना ताकि इस समाज की सारी बुराइयां सामने आ जाएं. भारत-पकिस्तान बंटवारे का वह ऐसा दौर था जब मंटो ने लिखना छोड़ दिया था. वो इस दुःख से चुप से हो गए थे. भारत से लाहौर जाने के बाद उन्होंने विभाजन पर आधारित कुछ बेहतरीन कहानियां लिखीं. अगर आज वे ज़िंदा होते तो देश के इन हालात को देखते हुए, अभी हो रही हिंसाओं और अन्याय को देखते हुए शायद फिर लिखना बंद कर चुके होते.
आज जब अभिव्यक्ति की आज़ादी पर खतरनाक किस्म की पाबंदी लगाई जा रही है. डर का ऐसा माहौल है कि लोग चाह कर भी अन्याय का विरोध नहीं कर पा रहे. मुझे उम्मीद है कि ऐसे समय में ये फ़िल्म और अधिक प्रभावशाली रहेगी. हमें अपने आसपास के लिए जागरूक करेगी.  ज़िदा रहने की हिम्मत देगी.
फिल्म के दो दृश्यों में नवाजुद्दीन सिद्दीकी और रसिका दुग्गल.
फिल्म के दो दृश्यों में नवाजुद्दीन सिद्दीकी और रसिका दुग्गल.

Q. नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा? - ‘मंटो’ की कहानी लिखते समय शुरू से मेरे दिमाग में नवाज़ ही रहे. कहा भी जाता है कि अगर फिल्म की कास्टिंग सही है तो डायरेक्टर का करीब 70 परसेंट काम पूरा हो जाता है. नवाज़ के साथ काम करके मुझे कुछ ऐसा ही महसूस हुआ. वे अपने रोल में प्रवेश कर जाते हैं. नवाज़ के जीवन के अनुभव और उनकी प्रतिभा ने भी उतनी ही मदद की जितनी मंटो पर की गई रिसर्च ने. दोनों को मिलाकर मंटो का चरित्र बारीकियों से सामने आ पाया है.
नवाज़ की कई बातें मंटो से मिलती हैं. उनकी गहरी संवेदनशीलता, उनके भावों की गहराई, हास्य-व्यंग्य और गुस्से का मेल. नवाज़–मंटो के स्वभाव की यही समानता नवाज़ को इस रोल के साथ सुंदर तरीके से जोड़ पाई. नवाज़ के साथ शानदार समय गुजरा.


 
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