
शबनम मौसी (दाएं माला पहने) पहली किन्नर थीं, जो चुनाव जीती थीं.
मार्च साल 2000 में मध्यप्रदेश के शहडोल जिले की सोहागपुर विधानसभा पर उप-चुनाव के नतीजे आए. यहां से चुनाव लड़ रहीं शबनम मौसी ने इस चुनाव में जीत हासिल की और देश की पहली किन्नर जनप्रतिनिधि बनीं. इसके बाद 2003 में कमला जान मध्यप्रदेश के कटनी जिले की मेयर बनीं. इसे जेंडर जस्टिस की तरफ एक और कदम के तौर पर दर्ज किया ही जा रहा था कि मामला कोर्ट में चला गया. मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने कमला जान का चुनाव यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि कटनी की मेयर सीट महिला उम्मीदवारों के लिए आरक्षित थी.
साल 2014 में मतदान का अधिकार दिए जाने के बाद यह चक्र पूरा हुआ. 15 अप्रैल यानी अम्बेडकर जयंती के अगले दिन सुप्रीम कोर्ट एक ऐतिहासिक फैसला दे रहा था. देश में किन्नरों को ‘थर्ड जेंडर’ का स्टेटस मिल गया. अपना फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस के. एस. राधाकृष्णन और जस्टिस ए. के. सीकरी की बेंच ने अपने फैसले में कहा थाः
"थर्ड जेंडर को मान्यता देना कोई सामाजिक या स्वास्थ्य संबंधी मसला नहीं है. यह मानवाधिकारों से जुड़ा मुद्दा है. ट्रांसजेंडर भी इस देश के नागरिक हैं. हर नागरिक को आगे बढ़ने का एक समान मौका देना ही संविधान की आत्मा है. इसमें जाति, धर्म या लिंग का भेदभाव नहीं हो सकता."

चीतल दरअसल उमरकोट के राणा महेंद्र के तेज़ चाल वाले ऊंट का नाम था जिस पर बैठकर वो रेगिस्तान चीरते हुए, रात को लौद्रवा (जैसलमेर) अपनी प्रेमिका मूमल से मिलने जाता था और सुबह होते-होते फिर उमरकोट (सिंध) लौट आता था. उस चीतल ने न सिर्फ इस एपिक लव स्टोरी को विटनेस किया बल्कि जहां-जहां उसके पैर पड़े, वहां का समय और कहानियां देखीं. चीतल डायरीज़ सीरीज़ के जरिए हम गुजरात से ऐसी कहानियां लेकर आ रहे हैं जो इस समय और काल में आप तक पहुंचनी चाहिए.
अहमदाबाद में एक जगह है राजपुर टोल नाका. यहां नगरी मिल के सामने एक गली पड़ती है, 'मगन कुम्हार नी जूनी चाल.' आप चाल में किसी से भी पूछेंगे कि 'मौसी' का घर कौन सा है तो वो लोग आपको नीले दरवाजे वाले एक मकान के सामने ले जाकर खड़ा कर देंगे. दो कमरों वाले इस मकान में तीन ट्रांसजेंडर रहते हैं. किन्नरों के भीतर अपने तरह का अलग ही वर्चस्व चलता है. घर की सबसे बड़ी सदस्य को दूसरे लोग 'मौसी' कहकर बुलाते हैं. इस लिहाज से तीन जनों की इस बस्ती में कशिश 'मौसी' की भूमिका में हैं.

अहमदाबाद के राजपुर टोल नाका की चाल की मौसी कशिश पहली बार वोट देने जा रही हैं.
20 साल में यह पहली मर्तबा है कि कशिश अपना वोट देने जाएंगी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देश भर में किन्नरों को नागरिक होने के अलग-अलग दस्तावेज़ बांटे गए. मसलन पासपोर्ट, राशनकार्ड, आधारकार्ड और मतदाता पहचान पत्र. अदालत के आदेश के बावजूद तमाम सरकारी एजेंसियों ने ठान लिया है कि 'थर्ड जेंडर' लिखना नहीं सीखेंगी. कशिश के मतदाता पहचान पत्र पर लिंग के खाने के आगे 'अन्य' टांग दिया गया है. कशिश कहती हैं-
"यह हमारी पहचान से जुड़ा मसला है. ये अन्य क्या होता है? हम अन्य नहीं किन्नर हैं. मेरे मतदान कार्ड और आधार कार्ड दोनों में अन्य लिख दिया है. आपको समझ में नहीं आता कि जैसे प्रकृति ने औरत और मर्द को बनाया है वैसे ही हमें भी बनाया है. जब कोर्ट आदेश दे चुका है तो आपको थर्ड जेंडर लिखने में क्या दिक्कत हो रही है? इससे पहले जब चुनाव होते थे तो हमें मतदान करने में डर लगता था. इस बार मैं सिर ऊंचा करके मतदान करने जाऊंगी."इसी घर में रह रहीं नेहल के लिए यह चुनाव भी बैरंग जाएगा. मतदाता सूची में नाम होने के बावजूद वो पोलिंग बूथ की तरफ जाने का साहस नहीं कर पाएंगी. नेहल कहती हैं-
"मेरे पास मेरा मतदान कार्ड है लेकिन वो पुराना वाला है. तब से अब में मेरे अंदर काफी चीजें बदल गई हैं. कोई मतदान कार्ड की फोटो देखकर मानेगा ही नहीं कि ये मेरी फोटो है. मैं नया मतदान कार्ड बनवाने के लिए कलेक्टर के दफ्तर गई थी. चार बार वहां के चक्कर काटे लेकिन कुछ काम नहीं हुआ. पुराना कार्ड लेकर मतदान करने कैसे जाऊं. वैसे भी मतदान करने से क्या फायदा होगा?
चाहे नरेंद्र मोदी की सरकार हो या फिर मनमोहन सिंह की, किसी ने हमारे लिए अब तक कुछ किया है क्या? दो साल पहले गांधी नगर में बहुत सारे एनजीओ ने मिलकर एक मीटिंग बुलाई थी. मैं भी उस मीटिंग में गई थी. उस समय हमसे कहा था कि हर किन्नर को 1000 रुपए की पेंशन मिलेगी. दूसरे दिन अखबार में भी यह खबर छपी थी. लेकिन कहां हुआ कुछ?"

नेहल को भी पहली बार वोटिंग का अधिकार मिला है.
नेहल अपने पिछले मतदान कार्ड को अपना नहीं मानना चाहती हैं. उन्हीं के शब्दों में, वो उन्हें उनकी जेल की याद दिलाता है.
अहमदाबाद के गौमतीपुर इलाके में एक स्कूल है स्वामी नारायण माध्यमिक शाला. करीब 15 साल पहले यहां दसवीं क्लास में तीन लड़के पढ़ा करते थे, निकुल, जिगर और यशवंत. ये तीनों एक बेंच पर बैठा करते. न तो क्लास का कोई दूसरा लड़का इनसे बात करता और न ही ये किसी और से बात करते. जब टीचर इन तीनों में से किसी से कोई सवाल पूछते तो इनके खड़े होने के लहजे और फटी सी आवाज़ सुनकर पूरी क्लास हंसने लगती.
इधर ये तीनों समझ नहीं पा रहे थे कि उनके साथ हो क्या रहा है. बचपन से ये लोग लड़कों के बजाय लड़कियों के साथ रहते आए थे. गुड्डे-गुड़िया का खेल खेलते और लड़कियों की तरह बात करते. जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई इनमें औरतों से हाव-भाव बढ़ने लगे. घर में अकेले रहने पर ये लोग औरतों के कपड़े पहनते. लिपस्टिक, बिंदी लगाते. भीतर चल रही विसंगति अपनी जगह थी और घरवालों का दबाव अपनी जगह. इसी सब गड़बड़ झाले के बीच एक दिन स्कूल से लौटते वक़्त उन्हें रास्ते में एक किन्नर बैठा मिल गया. ये उससे बात कर ही रहे थे कि अचानक उसने जगदीश का हाथ पकड़ लिया. ये लोग डरकर भाग गए. दूसरे दिन जब ये लोग स्कूल में मिले तो जगदीश ने सारा वाकया कह सुनाया. जिगर याद करते हैं-
"जगदीश जब दूसरे दिन स्कूल में मिला तो हमने उससे उस किन्नर के बारे में पूछा. उसने बताया कि किन्नर बहुत अच्छा आदमी था. किन्नर ने कहा कि वो भी उनमें से एक है. अगर मौक़ा लगे तो उसे भी जमालपुर स्थित किन्नरों के अखाड़े में आना चाहिए. इसके बाद हम तीनों इस प्लानिंग में लग गए कि कैसे जमालपुर के अखाड़े में जाया जाए. एक बार वहां गए तो फिर आना-जाना बढ़ गया".

अहमदाबाद के जमालपुर के अखाड़े में 500 से ज्यादा किन्नर हैं. (सांकेतिक तस्वीर)
जिगर आगे याद करते हुए बताते हैं-
"जब मैं 18 साल का हुआ तो मैंने घरवालों को साफ़-साफ़ बता दिया कि मैं दूसरे लड़कों से थोड़ा अलग हूं. मेरे दो भाई फ़ौज में थे. शुरुआत में तो वो लोग नाराज़ हुए. फिर उन्हें समझ में आ गया कि अगर उन लोगों ने मुझे घर में रखा तो इससे ज्यादा बदनामी होगी. ऐसे में उन लोगों ने मुझसे कहा कि मैं अपने जैसे लोगों के साथ जाकर रहूं."कोई चालीस साल पहले भावना नाम के एक किन्नर ने अहमदाबाद के जमालपुर में किन्नरों का नया अखाड़ा स्थापित किया. आज 500 से ज्यादा किन्नर इस अखाड़े के सदस्य हैं. 18 साल की उम्र में जिगर घर छोड़कर इस अखाड़े में आ गए. यहां उन्हें नया नाम मिला, 'कशिश'. पीछे उनके दो दोस्त थे जोकि घरवालों के हाथों हर रोज पीटे जाते. निकुल बताते हैं-
"ये जब चला गया तो हम दो लोग पीछे बच गए. हम हर वक़्त यही सोचते रहते कि कैसे अखाड़े में जाएंगे. इस बीच हम कभी-कभी इससे मिलने अखाड़े भी आते. ऐसे करते-करते तीन-चार साल बीत गए. फिर घरवालों ने मुझ पर शादी के लिए दबाव बनाना शुरू किया. मुझे मेरे भाई कई बार पीट चुके थे. मैं कई बार भागकर अखाड़े गया लेकिन वहां मौसी ने मुझे रखने से इनकार कर दिया. वो बोलती कि पहले घरवालों की इजाज़त लेकर आओ. मैं फिर से घर लौट जाता और घंटों रोता रहता. कोई मुझसे पूछने तक नहीं आता था कि क्यों रो रहे हो"अखाड़े में रह रहे उम्रदराज़ किन्नर जानते थे कि समाज में उनका अस्तित्व एक नाजुक संतुलन पर टिका हुआ है. अगर यह संतुलन थोड़ा भी डगमगाता है तो यह उनपर भारी पड़ सकता है. किन्नर अखाड़े का बुनियादी नियम है किसी भी ट्रांसजेंडर को इसका सदस्य बनने के लिए घर वालों की इजाज़त लेनी ज़रूरी होती है. निकुल और जगदीश को घरवालों की इजाज़त लेने में दस साल लग गए. निकुल के हिसाब से उन्होंने अपने घर में दस साल जेल काटी है. 28 की उम्र में जिगर के दोनों दोस्त भी अखाड़े का हिस्सा बन गए. निकुल को नया नाम मिला, 'नेहल' और जगदीश को 'अनीता'. आज ये तीनों लोग जजमानी के जरिए अपनी जिंदगी चला रहे हैं. नेहल कहती हैं-
"हम हर धर्म को मानते हैं. ईसा मसीह, अल्लाह और भगवान सबकी पूजा हमारे अखाड़े में होती है. हमारा धर्म सनातन धर्म है. हम जैसे हैं भगवान के बनाए हुए हैं. इसमें हमारी क्या गलती. मैं तो हर भगवान से यही प्रार्थना करती हूं कि अगले जन्म चाहे जानवर ही बना दे, लेकिन पूरा बनाए. ऐसे अधूरा न बनाए. इस बार मांगकर खाने वाला जनम मिला, जैसे-तैसे काट रहे हैं."

कशिश और नेहल जजमानी करके रोजी-रोटी चलाती हैं.
इस बार के चुनाव में गुजरात के मतदाता लिस्ट में 689 लोगों का नाम 'अन्य' लिंग के तौर पर दर्ज कर लिया गया है. यह बस एक तथ्य है, जिसे 'ताकि सनद रहे' के अंदाज में आपके सामने पसार दिया गया है.
कोई भी राजनीतिक पार्टी किन मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है, यह उसके घोषणा पत्र से तय नहीं होता. यह तय होता उसके प्रचार अभियान से. बीजेपी ने इस बार अपने प्रचार अभियान के लिए 13 गाने निकाले हैं. इनमें से गुजरात की अस्मिता पर तीन, विकास पर तीन, कमल के निशान पर दो, नरेंद्र मोदी पर दो और नर्मदा पर दो गाने जारी किए गए हैं. नरेंद्र मोदी का जिक्र लगभग सभी गानों में है लेकिन ये दो गाने पूरी तरह से उन्हें ही समर्पित हैं. इसके अलावा एक गाना वन्देमातरम पर भी है.

गुजरात चुनाव राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी दोनों की प्रतिष्ठा का प्रश्न बने हुए हैं, लेकिन चुनाव में बुनियादी मुद्दे सिरे से गायब हैं.
चुनाव के नतीजे कुछ भी हों, लेकिन इस चुनाव में बुनियादी मुद्दे सिरे से गायब हैं. कांग्रेस कुछ हद तक शिक्षा और रोजगार की बात ज़रूर कर रही है लेकिन वो आवाज़ इतनी मद्धम है कि आपको बड़े जतन से इसे सुनना पड़ता है. समाज में सबसे किनारे पर छूट गए लोग भी इस चुनाव में मुद्दा नहीं बन पाए. वैसे वो किसी भी चुनाव में नहीं बन पाते हैं. बाकी मोदी मशरूम खाकर पर्याप्त गोरे हो चुके हैं और कांग्रेज गुजरात में सरकार बनाने के लिए पाकिस्तान से हाथ मिला ही चुकी है.
लूनावाड़ा से अहमदाबाद लौटने के दौरान रास्ते में बाईं तरफ के मील के पत्थर पर निगाह पड़ी. उस पर लिखा हुआ था, ‘अहमदाबाद 17 किलोमीटर. सामने सूरज डूब रहा था. कान में पड़े इयरफोन में पीट सीगर कह रहे थे-
“I’ve roamed and rambled and I followed my footsteps To the sparkling sands of her diamond deserts; And all around me a voice was sounding This land was made for you and me… (मैं भटकता फिरा नखलिस्तान की चमकीली रेत पर और करता रहा पीछा अपने ही पैरों के निशानों का मेरे चारों तरफ गूंज रही थी एक आवाज़ ये धरती बनी थी तुम्हारे और मेरे लिए...)

23 फरवरी 1940 को जब वूडी गथरी ने यह गीत लिखा तो उसमें दो ऐसे अंतरे थे जिन्हें अमेरिका में अब सार्वजनिक मंचों पर गाने से बचा जाता है. जैसे हमारे यहां बल्ली सिंह चीमा के गीत ‘ले मशाले चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के’ का आखिरी अंतरा भुला दिया गया है. इनमें से एक अंतरा है-
In the squares of the city, In the shadow of a steeple By the relief office I seen my people; As they stood there hungry, I stood there asking Is this land made for you and me?” (शहर के चौराहे पर, मीनार की परछाई में रिलीफ ऑफिस के पास मिले मुझे मेरे लोग वो वहां खड़े थे भूखे और मैंने उनसे पूछा क्या यह तुम्हारी ज़मीन, तुम्हारी और मेरी सरजमीं है? )
फिर से मील के उसी पत्थर की तरफ लौटते हैं जहां दर्ज था, अहमदाबाद 17 किलोमीटर. जैसे-जैसे अहमदाबाद पास आ रहा था दिल बैठता जा रहा था. इस सफ़र को यहीं खत्म होना था. लेकिन यात्रा कभी आखिरी बिंदु पर नहीं पहुंचती. वो लगातार जारी रहती है.
24 दिन के इस सफ़र में मैं ज्यादातर आदिवासी विस्तार के इलाकों में घूमा. गुजरात के विकास के तमाम दावों के उलट यह अलग दुनिया है. ऐसा लगता है जैसे लकवा खाया ठूंठ है जो अपनी पूरी बेचारगी के साथ नक़्शे में नत्थी कर दिया गया है. कहने को जंगल तक सड़कें हैं पर उन पर किसकी ट्रकें दौड़ रही हैं. वो इस जमीन के लोग तो नहीं है. वो तो आज भी आधा दर्जन लोगों को बैठा सकने की जगह वाले टेम्पो में डेढ़ दर्जन की तादाद में लदकर शहर पहुंच रहे हैं ताकि शाम के खाने का जुगाड़ किया जा सके.

गांवों की हालत गुजरात के विकास मॉडल की सच्ची तस्वीर बयां कर रही है.
9 कड़ी वाली इस सीरीज में कोशिश यह थी कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र जमीनी तौर पर कैसे काम करता है? लोकसभा के बाद विधानसभा और फिर पंचायत. तीन परतों वाले इस लोकतंत्र में हम औसतन हर डेढ़ साल में एक चुनाव भुगतते हैं. इस पूरी कवायद का आखिर हासिल क्या है? ख़ास तौर पर उन लोगों के लिए जो हाशिए पर पटक दिए गए हैं. ‘सरकार’ शब्द सुनकर उनके दिमाग में क्या खाका खिंचता है. आम तौर पर चुनाव की रिपोर्टिंग के माने होते हैं कि आप वहां के राजनीतिक समीकरणों के बारे में लिखें. इस बीच हम इस सवाल को झांसा देकर आगे बढ़ जाते हैं कि यह राजनीतिक व्यवस्था बड़ी आबादी के लिए ठीक से काम क्यों नहीं कर रही?
इससे पहले कि आप टेलीविजन के चैनल पलट-पलट कर चुनावी सर्वे और कयासबाजी के मकड़जाल में उलझें. थोड़ा सा रुककर सोचिए. सोचिए कि हम क्या कर रहे हैं? हम नदियों को कैद कर रहे हैं, पहाड़ों के सीने खुरच रहे हैं और रसायनों के मलीदे से अधपके फलों में मिठास पैदा कर रहे हैं. हमारे हाथ में थमा दी गई कुदालें सृजन की नहीं विध्वंस का पर्याय बन चुकी हैं. इससे हम पहाड़ तोड़ रहे हैं, गड्ढे खोद रहे हैं और इंसानों की हत्याएं कर रहे हैं.
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