
रवींद्रनाथ टैगोर की कविता
झरो-झरो बरसे बारिधारा हाय पथोबासी, हाय गतिहीन हाय गृहहारा... फिरे वायु... स्वरे डाके कोरे जनहीन असीम प्रांतरे रजनी आंधार.... अधीरा यमुना तरंगो आकुला आकुला रे तिमिरो दुकूला रे निविड़ो नीरदो गगने घरो घरो गरजे सघने चंचलो चपोला चमके नाहिं शोशि तारा
हिंदी अनुवाद
झर-झर बरस रहे हैं बादल गृहविहीन पथ-आश्रित तरु-तल बहती पवन सन न सन सन सन जनविहीन प्रांतर को घेरे छाते मेघ अनंत अंध-तम यमुना की हो विकल तरंगें दोनों तट पर आकुल आतीं अंधकार में घिर-घिर जातीं ऊपर गगन सघन फिर होता चपला प्रतिपल है चमकाता चांद तारों से ओझल होता अंधकार में मिलता जाता
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