The Lallantop

झर-झर बरस रहे हैं बादल

एक कविता रोज़ में आज पढ़िए रवींद्रनाथ टैगोर की कविता. आज उनकी बरसी है.

Advertisement
post-main-image
फोटो - thelallantop
devanshu-jha-the-lallantop   आज रवींद्रनाथ टैगोर (7 मई 1861 - 7 अगस्त 1941) की पुण्यतिथि है.  एक कविता रोज़ में पढ़िए गुरुदेव की ये कविता. इस कविता का अनुवाद किया है देवांशु झा ने. देवांशु कहते हैं -  रवीन्द्र के गीत अनमोल हैं. मैं उन्हें कभी यूं ही पलट लेता हूं, कभी किसी बंगाली गायक के कंठ से सुन लेता हूं. अऩुवाद करने की कोशिश की है. पढ़ें. इसमें सभी 'दंत स' का उच्चारण तालव्य करें, बांग्ला में 'स' की ध्वनि नहीं है. 'व' की ध्वनि भी नहीं है, वह 'ब' है. ये गीत गीतांजलि से लिया गया है.
   

रवींद्रनाथ टैगोर की कविता

  झरो-झरो बरसे बारिधारा हाय पथोबासी, हाय गतिहीन हाय गृहहारा... फिरे वायु... स्वरे डाके कोरे जनहीन असीम प्रांतरे रजनी आंधार.... अधीरा यमुना तरंगो आकुला आकुला रे तिमिरो दुकूला रे निविड़ो नीरदो गगने घरो घरो गरजे सघने चंचलो चपोला चमके नाहिं शोशि तारा

हिंदी अनुवाद

झर-झर बरस रहे हैं बादल गृहविहीन पथ-आश्रित तरु-तल बहती पवन सन न सन सन सन जनविहीन प्रांतर को घेरे छाते मेघ अनंत अंध-तम यमुना की हो विकल तरंगें दोनों तट पर आकुल आतीं अंधकार में घिर-घिर जातीं ऊपर गगन सघन फिर होता चपला प्रतिपल है चमकाता चांद तारों से ओझल होता अंधकार में मिलता जाता

कुछ और कविताएं यहां पढ़िए:

‘पूछो, मां-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं’

Advertisement

‘ठोकर दे कह युग – चलता चल, युग के सर चढ़ तू चलता चल’

मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!'

Advertisement
Advertisement