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रिपब्लिक डे परेड क्यों निकाली जाती है? 21 तोपों की सलामी क्या है?

26 जनवरी 1950 को भारत ने अपना संविधान अपना लिया. सालों के संघर्ष के बाद भारत आखिरकार एक स्वतंत्र और फिर गणतंत्र देश बनने जा रहा था. पर संविधान लागू करने के लिए यही दिन क्यों चुना गया?

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आसान भाषा में - रिपब्लिक डे परेड

बचपन का रिपब्लिक डे याद है आपको? कितना मज़ा आता था न, स्कूल में मिठाई मिलती थी, न पढ़ाई होती थी, न होमवर्क चेक होता था. और फिर घर आकर हम लोग दूरदर्शन पर रिपब्लिक डे की परेड और अलग-अलग राज्यों सुन्दर-सुन्दर झांकियां देखा करते थे. आप में से कइयों के मन में सवाल उस वक्त सवाल रहते होंगे, कि कैसे सलेक्ट होती हैं ये झांकियां? ये इक्कीस तोपों की सलामी क्या है? पहली परेड कैसी रही होगी? तो आज आसान भाषा में हम यही सब समझाएंगे.
 

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सबसे पहले इतिहास की बात.
26 जनवरी 1950 को भारत ने अपना संविधान अपना लिया. सालों के संघर्ष के बाद भारत आखिरकार एक स्वतंत्र और फिर गणतंत्र देश बनने जा रहा था. पर संविधान लागू करने के लिए यही दिन क्यों चुना गया? इसकी वजह थी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में ब्रिटिश सरकार से 26 जनवरी 1930 को भारत को डोमिनियन का दर्जा देने की मांग. बाद में रावी नदी के किनारे तिरंगा फहराकर पूर्व स्वराज का संकल्प लिया गया. इसके बाद से ही 26 जनवरी को पूर्ण स्वाधीनता दिवस मनाने की शुरुआत हुई. आजादी के बाद संविधान लागू होने पर यही तारीख गणतंत्र दिवस बन गई.
 

तो रिपब्लिक डे परेड क्यों निकाली जाती है ?
सीधे सीधे कहें तो परेड का संबंध अपनी ताकत का प्रदर्शन करने से है. इसमें अपने सैनिक, हथियार का प्रदर्शन किया जाता है जिससे लोगों में देश के प्रति गर्व की भावना आए. पर परेड निकालने का रिवाज नया नहीं है. इसके तार जुड़ते हैं  मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यता से. मेसोपोटामिया के राजा ऐसी परेड निकाला करते थे. इसमें वो मशहूर 'इशतार के दरवाजे' से शहर के अंदर आते थे. रास्ते के दोनों तरफ शेरों के 60 स्टैच्यु लगे होते थे.
इसी तरह रोमन साम्राज्य में होता था. वहाँ के सैन्य जनरल्स जंग जीतने के बाद जब वापस आते थे तब उनके साथ एक सैनिकों का काफिला हुआ करता था.ये काफिला शहर में जहां से भी गुज़रता, सड़क के दोनों तरफ लोग हाथ उठाकर या नारे लगाकर इसका अभिवादन करते. 19 वीं सदी की शुरुआत में यूरोप में राष्ट्रवाद की लहर जोर पकड़ रही थी.ऐसे में लोगों में जोश और उत्साह का संचार करने का सबसे प्रभावी जरिया बन गई सैनिक परेड्स.

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अब चलते हैं नए जमाने की परेड की तरफ.मॉडर्न युग की जो मिलिट्री परेड हम देखते हैं, वो एन्शिएंट प्रशिया यानी आज के जर्मनी से प्रेरित बताई जाती है.आपने परेड में सैनिकों को पैरों को सामने की तरफ उठाकर कदमताल करते हुए देखा होगा. हर सैनिक के कदम दूसरे सैनिक से मिलते थे. बाल बराबर चूक की भी गुंजाइश नहीं. इस कदम या स्टेप के बिना कोई भी परेड फीकी या अधूरी लग सकती है. पर कितनी हैरानी होगी जब पता चले कि ये स्टेप हिटलर की नाजी आर्मी का है. उस जमाने में इसे गूज स्टेप कहा जाता था.  

इतिहास का तियां-पांचा जान लिया, अब हिंदुस्तान लौटते हैं,
भारत में ब्रिटिश राज के दौरान परेड और जुलूस आम बात थी. इसका इस्तेमाल ब्रिटिश न सिर्फ भारतीयों को बल्कि पूरी दुनिया को अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए करते थे. खासकर उनके यूरोपियन प्रतिद्वंदियों फ़्रांस और पुर्तगाल को दिखाने के लिए. जब अंग्रेज भारत से गए तो पूरी तरह से नहीं गए.? लोग कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत को रेलवे दी. लेकिन इसके अलावा एक और चीज वो हमें सौंप कर गए. वो थी सैनिक परेड.

इतनी बात हो गई है तो भारत की पहली परेड की एक मजेदार कहानी आपको बताते हैं.
26 जनवरी 1950,भारत का पहला गणतंत्र दिवस. जगह इरविन स्टेडियम जिसे आज मेजर ध्यानचंद नैशनल स्टेडियम के नाम से जाना जाता है.पूरा देश ये जश्न देखने को आतुर था. दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब सहित कई सूबों के लोग रेल गाड़ियों, बसों में भर-भरकर दिल्ली पहुंच रहे थे. कुछ ऐसे भी थे जो लोकतंत्र का ये जश्न देखने के लिए चार दिन पहले पैदल ही घर से निकल पड़े थे. दिल्ली में भीड़ इतनी कि रायसीना हिल से लेकर इरविन स्टेडियम तक केवल सिर ही सिर नजर आ रहे थे. लाखों लोग कतार में खड़े थे. पैर रखने की जगह नहीं, जो जहां टिक पाया टिक गया, घरों की छतें, पेड़, दुकानें सब लोगों से पटे हुए थे.
दिल्ली की सबसे बड़ी जिस इमारत से कभी सबसे बड़ा अंग्रेजी अफसर निकलता था और जिसके कई मीटर दूर तक आम भारतीयों को गुजरने की इजाजत नहीं थी. अब उसी इमारत से राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद बाहर निकल रहे थे. तालियों की गड़गड़ाहट रुक नहीं रही थी, नारों का शोर थम नहीं रहा था. राष्ट्रपति बार-बार अपना सिर लोगों के सामने झुकाते, हाथ जोड़ते, लेकिन जनसमूह अलग ही जोश में था. इस मौके पर इंडोनेशिया के राष्ट्रपति अहमद सुकर्णों को चीफ गेस्ट के तौर पर आमंत्रित किया गया था.
फिर वो दृश्य सामने आया जिसका लोग बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे. साम्राज्यवादी सत्ता की शानो-शौकत दिखाने वाली और राजसी दंभ का प्रतीक मानी-जाने वाली वो बग्घी, जो ब्रिटिश वायसराय की शाही सवारी हुआ करती थी. जिस पर शाही मेहमान और भारत से गुजरने वाले शाही मुसाफिरों को बिठाकर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया जाता था. वो बग्गी कभी जिसे देख भारतीय रोष में उबल पड़ते थे. लेकिन, आज वही बग्गी भारतीयों के सामने थी और वो उसे देख मंत्रमुग्ध थे, खुद पर इतरा रहे थे. क्योंकि अब हाथ से गढ़ी, सोने और चांदी से मढ़ी, लाल मखमली गद्दी वाली बग्गी पर एक भारतीय बैठा था. एक आजाद देश का सबसे बड़ा प्रतिनिधि. एक ऐसा सपना सच हो रहा था जिसे सैकड़ों सालों से हर भारतीय देखता आ रहा था.

यहाँ पर एक बोनस जानकारी दे दें कि फिर इस काफिले पर लौटेंगे. आपको बता दें कि 1950 से लेकर 1954 तक गणतंत्र दिवस परेड राजपथ पर नहीं हुई थी. ये कभी इर्विन स्टेडियम, कभी किंग्सवे कैंप, तो कभी रामलीला मैदान में आयोजित होती थी.

अब वापिस आते हैं परेड पर. उस समय के चर्चित अखबार 'सैनिक समाचार' ने अपने एक लेख में राजेंद्र प्रसाद के काफिले पर लिखा था,
 

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"राष्ट्रपति भवन से लेकर इरविन स्टेडियम तक सड़कें लोगों से भरी हुई थीं. देश की राजधानी में ऐसी भीड़ दूसरी बार दिख रही थी. इसने 15 अगस्त 1947 को इंडिया गेट पर उमड़े जन सैलाब की याद दिला दी. राष्ट्रपति के काफिले के रास्ते में कहीं भी पैर रखने की जगह नहीं थी. सड़क, पेड़, दुकानों की छतें और बड़ी इमारतों पर लोग घंटों पहले से जाकर बैठ गए थे."


राष्ट्रपति का कारवां कनॉट प्लेस और उसके करीबी इलाकों से गुजरते हुए करीब पौने चार बजे इर्विन स्टेडियम पहुंचा. 15 हजार लोगों के सामने आधुनिक गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति ने तिरंगा फहराकर परेड की सलामी ली.उस दिन हुई परेड में सशस्त्र सेना के तीनों बलों ने भाग लिया था. इसमें नौसेना, इन्फेंट्री, कैवेलरी रेजीमेंट, सर्विसेज रेजीमेंट के अलावा सेना के सात बैंड भी शामिल हुए थे. हालांकि, तब मोटर साइकिल पर स्टंट की परम्परा नहीं थी और ना ही वो झांकियां थीं, जिनके जरिए देश के अलग-अलग राज्य अपनी विरासत और संस्कृति प्रदर्शित करते हैं. 1950 की परेड में 3000 सैनिक शामिल हुए थे.
फिर आया साल 1954. गणतंत्र दिवस की परेड को राजपथ जिसे अब कर्तव्य पथ के नाम से जाना जाता है.
 

जैसे जैसे समय बीता,भारत की परेड और भी भव्य और शानदार होती गई. ब्रिटिश साम्राज्य का प्रतीकों का भारतीयकरण होने लगा था. ब्रिटिश समय में VICEROY HOUSE और INDIA GATE जो कि ब्रिटिश इंडियन सोल्जर्स का एक मेमोरियल था, उसपर भी भारतीयता का असर दिखने लगा था. योजनाबद्ध तरीके से ब्रिटिश राज की निशानियों को एक नई पहचान दी जा रही थी.
अरे पहले उन झांकियों के बारे में तो आपको बता दें जिन पर ये एपिसोड बेस्ड है. 1950 में पहले गणतंत्र दिवस में सिर्फ सैन्य दस्ते की परेड हुई. 

उस समय राज्यों की झांकियां  नहीं निकाली जाती थीं. पहली बार 1953 में सेना और कुछ अन्य सशस्त्र बलों के साथ राज्यों की भी झांकियों को शामिल किया गया. पर इसके पीछे का कारण क्या था? दरअसल 50 के दशक में भारत के राज्यों के बीच भाषाई आधार पर तनाव बढ़ रहा था. सभी को अपने कल्चर को बचाना था. ऐसे में विभिन्न राज्यों और परंपराओं का होने के बावजूद भी एक साथ राजपथ पर परेड देश की एकता को दर्शाता. राज्यों के बीच का यही भेद मिटाने के लिए 1953 में पहली बार राज्यों की झांकियों को शामिल किया गया. इसका मकसद राज्यों के बीच एक तालमेल और एक स्वस्थ प्रतियोगिता डेवलप करना था. और एकता की भावना बढ़े. और ये क्रम आजतक चला आ रहा है.
 

पर ये झांकियां तय कैसे होती है, बताते हैं.
रक्षा मंत्रालय के सर्कुलर के मुताबिक मंत्रालय हर बार की परेड के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को चुनता है. कितने राज्यों की झांकियां कर्तव्य पथ पर मार्च करेंगी ये मंत्रालय ही तय करता है. इसके सिलेक्शन प्रोसेस में राज्यों को अपनी झांकी का एक कान्सेप्ट और ब्लूप्रिंट भेजना होता है. इस वर्ष के लिए आवेदन करने कि आखिरी डेट  10 नवंबर 2023 रखी गई थी. जितने भी आवेदन रक्षा मंत्रालय को आते हैं उन्हें एक एक्सपर्ट कमिटी देखती है. इस कमेटी में कला, कल्चर, पेंटिंग, संगीत , आर्कीटेक्चर , कोरियोग्राफी के क्षेत्र से जुड़े लोग शामिल होते हैं.

2024 की परेड से पहले विवाद हुआ है. कुछ राज्यों ने केंद्र सरकार पर झांकी को लेकर भेदभाव करने का आरोप लगाया है. इस बार पंजाब, कर्नाटक , दिल्ली और बंगाल की झांकियों को रिजेक्ट कर दिया गया है. इसको लेकर राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र पर हमलावर भी हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दरमैया ने इसे हर कन्नड़ का अपमान बताया है वहीं पंजाब के सीएम भगवंत मान ने इसे 'एंटी पंजाब सिंड्रोम करार दिया है. जब आप इस गतिरोध की कहानी सुन रहे हैं तो ध्यान दीजिए कि इन राज्यों के केंद्र के साथ कैसे राजनीतिक समीकरण हैं.
 

बहरहाल. आगे बढ़ते हैं और बात करते हैं कि गणतंत्र दिवस का चीफ गेस्ट कैसे तय किया जाता है?
 साल 2024 में गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि के तौर पर इस बार फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों भारत आ रहे हैं. इससे पहले 5 और फ्रांसीसी राष्ट्रपति बतौर मुख्य अतिथि,गणतंत्र दिवस परेड का हिस्सा बने चुके हैं.पर मन में सवाल आता है कि फ़्रांस ही क्यों ? और ये किसका डिसीजन होता है कि किसे न्योता भेजा जाए ?
तो विदेश मंत्रालय की एक रिव्यू टीम होती है जो 6 महीने पहले से इसकी तैयारी शुरू कर देती है. दोनों देशों के बीच कुछ पॉइंट्स देखे जाते हैं. मसलन दोनों देशों के बीच सैन्य सहयोग, कमर्शियल, इकोनॉमिक और पॉलिटिकल कनेक्शन कैसे हैं ? फिर विदेश मंत्रालय की टीम ये नाम पीएम को भेजती है. अपने सलाहकारों से मशवरा करने के बाद पीएम ये फाइल राष्ट्रपति को भेज देते हैं. राष्ट्रपति से मंजूरी मिलते ही गेस्ट से संपर्क कर उनका शेड्यूल तैयार किया जाता है. गेस्ट को रीसीव करने खुद पीएम एयरपोर्ट जाते हैं. यहाँ से उन्हें राष्ट्रपति भवन लाया जाता है जहां उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है. फिर 21 तोपों की सलामी दी जाती है.
 

पर इसका एक ऐतिहासिक पक्ष भी है. 50 के दशक में नॉन अलाइंड मूवमेंट चल रहा था. पंडित नेहरू भी इसके पक्षधर थे. इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो भी इस गुटनिरपेक्ष दल के सम्मानित नेता थे इसलिए उन्हें पहले गणतंत्र दिवस पर चीफ गेस्ट के तौर पर आमंत्रित किया गया था. चूंकि भारत और फ़्रांस के बीच संबंध ऐतिहासिक रूप से अच्छे रहे हैं. जब भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था, तब पश्चिमी देशों के कड़े रुख के बावजूद फ़्रांस ने भारत का समर्थन किया था और परमाणु प्लांट लगाने में भारत की मदद भी की थी. इन मधुर संबंधों को देखते हुए इस बार फ़्रांस के राष्ट्रपति को आमंत्रित किया गया है. भारत के पीएम नरेंद्र मोदी साल 2023 में फ़्रांस के नैशनल डे जिसे BASTILLE DAY कहा जाता है उसमें बतौर मुख्य अतिथि गए थे.

अब आसान भाषा में समझते हैं परेड की थोड़ी बारीकियां

समारोह की शुरुआत होती है राष्ट्रपति का काफिला आने से. प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया अपनी स्पेशल कार में होते हैं. इनके आसपास विशेष अंगरक्षक चलते हैं जिन्हें प्रेसीडेंशियल गार्ड्स कहा जाता है जो एक घुड़सवार यूनिट है. तिरंगा फहराने के समय राष्ट्रपति के घुड़सवार अंगरक्षक समेत वहां मौजूद सभी लोग सावधान की मुद्रा में खड़े होकर तिरंगे को सलामी देते हैं. फिर राष्ट्रगान बजता है. राष्ट्रगान के दौरान 21 तोपों की सलामी दी जाती है.  साल 2022 तक पोंडर तोपों से सलामी दी जाती थी. उसके बाद साल 2023 से भारत में बनी मेक इन इंडिया तोपों से पहली बार राष्ट्रपति को सलामी दी गई.

गणतंत्र दिवस की परेड ध्वजारोहण के बाद शुरू हो जाती है. सभी सैनिक और परेड में शामिल होने वाले व्यक्ति, चाहे वो एनसीसी के कैडेट्स हों, या झांकी की व्यवस्था देखने वाले सहायक हों, सब तड़के तीन-चार बजे ही कर्तव्य पथ पर पहुंच जाते हैं. परेड में शामिल होने के लिए सभी दल सैकड़ों घंटे तक अभ्यास कर चुके होते हैं.जिसकी तैयारी कई महीने पहले शुरू हो जाती है.

सर्वश्रेष्ठ परेड की ट्रॉफी देने के लिए पूरे रास्ते में कई जगहों पर जजों को बिठाया जाता है. ये जज हर दल को  200 में से नम्बर देते हैं.  इसके आधार पर सर्वश्रेष्ठ मार्चिंग दल का चुनाव होता है. किसी भी दल के लिए इस ट्रॉफी को जीतना बड़े गौरव की बात होती है.

परेड में शामिल सभी झांकियां 5 किमी प्रति घंटा की नीयत रफ्तार से चलती हैं, ताकि उनके बीच उचित दूरी बनी रहे और लोग आसानी से उन्हें देख सकें. ये स्पीड फिक्स होती है. इन झांकियों के चालक एक छोटी सी खिड़की से ही आगे का रास्ता देखते हैं, क्योंकि सामने का लगभग पूरा शीशा सजावट से ढका रहता है.

इस परेड में शामिल सैनिकों का चुनाव भी खास तरीके से किया जाता है. इन सैनिकों को कई महीने पहले ही चुन लिया जाता है. इन्हें मार्चिंग कंटिंजेंट कहा जाता है.

चुने जाने के लिए इन सैनिकों की फिजिकल फिटनेस और कठिन परिस्थितियों को सहने की क्षमता को देखा  जाता है. सबसे बेस्ट जवानों को ही परेड करने का मौका मिल पाता है.

आर्मी की तमाम रेजीमेंट्स के अलावा नेवी और एयरफोर्स भी मार्च करते हैं. साथ ही अन्य केन्द्रीय बल जैसे CRPF,   CISF और  NSG भी इस परेड का हिस्सा होते हैं. दिल्ली पुलिस देश कि एकमात्र ऐसी पुलिस है जो इस परेड में हिस्सा लेती है.

साल 2024 की परेड में एक बात खास है  कि इस बार परेड में सिर्फ महिला सिपाही भी होंगी. तो क्या आप भी हमारी तरह 26 जनवरी की इस परेड के लिए एक्साइटेड हैं? हम तो बहुत हैं. बहरहाल, आज की आसान भाषा की किश्त में फिलहाल इतना ही. देखते रहिये, दी लल्लनटॉप.

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