'घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं' को डायरेक्ट किया है अनामिका हकसर ने जो जानी-मानी थियेटर डायरेक्टर हैं. करीब 40 साल का अनुभव है. उन्होंने थियेटर के दिग्गजों बादल सरकार और बी. वी. कारंत से ट्रेनिंग ली थी. वे उन बेहद कम लोगों में से है जिन्होंने मॉस्को स्थित सोवियत इंस्टिट्यूट ऑफ थियेटर आर्ट्स से पढ़ाई की. पिछले कुछ वक्त से थियेटर से दूरी बनाने के बाद वे अपनी पहली फिल्म लेकर आई हैं.
चूंकि ये कोई कमर्शियल वेंचर नहीं बल्कि कलाकृति है इसलिए फिल्म को पूरा करने के लिए मार्च 2016 से इसकी क्राउडफंडिंग की गई. क्राउडफंडिंग यानी आम जनता जितना कम से कम पैसा भी दे सके वो दे और फिल्म की निर्माता बन जाए.
अब इस फिल्म का ट्रेलर आ गया है. जितना इसका नाम मज़ेदार है, ट्रेलर भी उतना ही अलग है. ऐसा है कि समझने के लिए बार-बार देखते हैं.
देखा? सभी को शायद न समझ में आया होगा. मूल रूप से ये कहानी पुरानी दिल्ली में रहने वाले, बोझा ढोने वाले, कचरा बीनने वाले और समाज के हाशिये पर पड़े प्रवासियों के बारे में है जो परिवार का पेट पालने अपने-अपने देस छोड़कर आए हैं. हालांकि दिल्ली जैसे शहरों को और सभ्यताओं को प्रवासियों ने ही बसाया औऱ आबाद किया लेकिन जिस समय उनके कष्ट का काल होता है तब तत्कालीन स्थानीय लोग और सरकारें उन्हें दुत्कारते ही हैं.
'घोड़े को जलेबी..' के मेकर्स इसकी कहानी कुछ यूं बताते हैं:
"ये कहानी चार आदमियों के इर्द-गिर्द घूमती है. एक जेबकतरा है, दूसरा सामान लोड करने वाला मजदूर व कार्यकर्ता है, तीसरा मिठाई-नाश्ता बेचने वाला और चौथा लोगों को हैरिटेज वॉक पर ले जाने वाला कंडक्टर / गाइड है. हम इनकी नजरों से पुरानी दिल्ली को देखते हैं. इनकी जिंदगियां, आशाएं, अभिलाषाएं और सपने. हम कई भाषाओं और लहजों में इन्हें सुनते हैं. जेबकतरा पतरू फैसला करता है कि लोगों को वॉक पर ले जाकर शहर का वो असल चेहरा दिखाएगा जो उन्होंने देखा नहीं. वो ऐसा करता है लेकिन स्थानीय व्यापारियों और पुलिस के सामने मुसीबत में पड़ जाता है. और तब वो तय करता है कि एक आखिरी 'ड्रीम वॉक' करेगा.फिल्म में रघुवीर यादव समेत कई नए एक्टर्स ने काम किया है. इनमें पेशेवर एक्टर्स के इतर 400 ऐसे लोगों ने भी अभिनय किया है जो एक्टर्स नहीं है, बल्कि सड़क पर रहने और चलने वाले आम लोग हैं.
अनामिका हकसर. (फोटोः फेसबुक)
यहीं पर फिल्म दिल्ली में रहने वाली प्रवासी आबादी की दबी हुई चेतना में प्रवेश करती है. साथ मिलकर ये walks अलग-अलग नजरियों से पुरानी दिल्ली के एक दृश्य और श्रव्य इतिहास का निर्माण करती है. और फिर जब लाली नाम का मज़दूर-कार्यकर्ता इस बखेड़े में शामिल होता है और मज़दूरों को एकजुट होने का भाषण देता है और सबको जेल पहुंचा देता है.
जादुई-यथार्थवाद, दस्तावेज़ी-यथार्थवाद, सच, कल्पना, काव्य और सपनों से भरी ये फिल्म पुरानी दिल्ली और इसके इतिहास की समधर्मी तहज़ीब को एक प्रेम-पत्र है. वो जो कंक्रीट और स्मॉग में ख़ुद को खोती जा रही है."
'घोड़े को जलेबी..' की रिलीज का स्टेटस अभी पता नहीं है. शायद जल्द ही इसे लेकर अपडेट किया जाए.
आखिर में, जान लें कि फिल्म के इस नाम के पीछे का किस्सा क्या है? डायरेक्टर अनामिका का कहना है कि उनकी एक आंटी हुआ करती थीं जो पुरानी दिल्ली में संगीत सीखने जाती थीं. वो बहुत कहानियां सुनाती थीं. जब अनामिका 15-16 बरस की थीं तब उन्होंने ये किस्सा उनसे सुना था. एक बार उनकी आंटी दिल्ली में कहीं से गुज़र रही थीं कि उन्होंने सुना किसी ने एक घोड़ेवाले से पूछा - "कहां जा रिया है तू?" तो घोड़ेवाला बोला - "अरे.. घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं." ज़ाहिर है सच में वो घोड़े को जलेबी खिलाने नहीं ले जा रहा था, बल्कि उस सवाल पूछने वाले पर तंज कस रहा था कि कॉमन सेंस है वो मेहनत-मज़दूरी वाला आदमी है घोड़े के साथ काम पर ही जा रहा होगा. घोड़े को जलेबी खिलाने वाले तंज में एक विडंबना भी छुपी है कि न तो उस जैसे आर्थिक-सामाजिक वर्ग के लोग अपने रोज़ के संघर्षों से मुक्त हो सकते हैं और न ही उन जैसे गरीब लोगों के घोड़े कभी जलेबी खा सकते हैं.
अनामिका बताती हैं कि वो किस्सा सुनने के बाद से ये लाइन उन्होंने अपने ज़ेहन में हमेशा सहेजकर रखी. उन्होंने सोचा था कि अपने किसी प्ले में इसे इस्तेमाल करेंगी. लेकिन फिर जब अपनी पहली फिल्म लिखनी शुरू की तो उसका ये नाम रखा - 'घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं.'
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