आज आप उपासना झा की दो कविताएं पढ़ें. उपासना बिहार के समस्तीपुर से हैं. होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई की. फिर इसी फील्ड में नौकरी भी की. पढ़ाया भी. उसके बाद चार बरस एक अंग्रेजी अखबार के ऐड सेक्शन में रहीं. फिलहाल लखनऊ में रहती हैं.
1.
आत्मा का विदा-गीत
कोई जब जा रहा हो
बिना कुछ कहे,
धीरे से हाथ छुड़ाकर
मौन का हो ओट आंसू रोकने के डर से
जिसकी हथेलियों को पकड़ने के लिए ही
बने हों हाथ तुम्हारे सुनो तब मीत मेरे रोकना मत
जाने देना,
विदा में प्रेम देना अंजुलि भर-भर
और बांध देना राह के लिए
प्राण की खूंट में
आत्मा से निकली सबसे सुंदर प्रार्थनाएं मीत मेरे, कांपते हाथों में
होता है पता दुःख की गहरी खोह का
उसे संभाल रखना
आंसुओं से मत भिगोना
स्मृतियों से बनाईं अल्पना
उसमें भरना रंग प्रेम का, उल्लास का पुलक कर दौड़ना मत
मोड़ पर आभास होता है
कि जाता हुआ कोई लौटता है
हुलस कर हांक मत देना उसे
मीत मेरे, जाने देना
रोकना मत उसे ***
2.
अमरबेल
जब-तब अमरबेल सी उग आती हैं तुम्हारी याद
और मैं हर बार
भूल जाती हूं कि अमरबेल की जड़ें नहीं होतीं
जिस पेड़ पर पनपती हैं,
उसी की शिराओं का रस पीती हैं,
जैसे हर बार
तुम्हारी याद सोखती है थोड़े से मेरे प्राण मुझे हर बार काटनी पड़ती हैं इसकी टहनियां
और लहूलुहान होते हैं मेरे ही हाथ
रीतते दिनों के साथ रिसती रहती हैं मेरी आत्मा भी,
आंखों से ढुलक गया इंतज़ार कबका
सूखी रेत उड़ती है बस,
जैसे तुम बिना कहे गए थे
और रास्ता दोराहा बन गया था
वैसे ही बिना कहे चली आती है तुम्हारी याद,
बस तुम ही जानते थे की जब मैं बहुत बोलती हूं
तो अपनी घबराहट छिपा रही होती हूं
और जब चुप होती हूं तो गुस्सा.
और जब हंसना होता है तो रो पड़ती हूं
तुम गए, क्यों गए
और सारी कड़ियां उलझ गईं,
जिस मन में झरते थे हरसिंगार
वहां उग आई हैं अमरबेल ***
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