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चिपको आंदोलन के मशहूर पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा का कोरोना से निधन

94 वर्षीय सुंदरलाल बहुगुणा कोरोना संक्रमण के कारण 8 मई से एम्स ऋषिकेश में भर्ती थे.

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पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने शुक्रवार दोपहर को एम्स ऋषिकेश में अंतिम सांस ली. (फ़ाइल फ़ोटो)
मशहूर पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा (Sunderlal Bahuguna) का 21 मई शुक्रवार को निधन हो गया. वह ऋषिकेश एम्स में भर्ती थे. चिपको आंदोलन के कर्ता-धर्ता माने जाने वाले 94 साल के बहुगुणा कोरोना से संक्रमित थे.
ऑक्सीजन लेवल में उतार-चढ़ाव होने के कारण उन्हें 8 मई को अस्पताल में भर्ती कराया गया था. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, अस्पताल आने के 10 दिन पहले से ही उनमें कोरोना के लक्षण थे. एम्स, ऋषिकेश के निदेशक रविकांत के मुताबिक, सुंदरलाल बहुगुणा ने दोपहर 12.05 बजे अंतिम सांस ली.
गांधीवादी सुंदरलाल बहुगुणा के निधन पर पीएम नरेंद्र मोदी समेत कई नेताओं ने शोक जताया. मोदी ने ट्वीट में लिखा कि सादगी से भरे सुंदरलाल बहुगुणा जी को कभी भुलाया नहीं जा सकता.   उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने ट्वीट में लिखा, क्या था चिपको (Chipko) आंदोलन? 1962 में चीन से युद्ध के बाद भारत सरकार ने तिब्बत सीमा पर अपनी पैठ मजबूत करने की तैयारी की. कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक बॉर्डर के इलाकों में सड़कें बनाने का काम शुरू हुआ. उस वक्त उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) के इलाके में आने वाले चमोली जिले में भी सड़क निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई. सड़क बनानी थी तो जमीन चाहिए थी, और पहाड़ के जंगल वाले इलाकों में बिना पेड़ों को काटे जमीन कैसे मिलती. ऐसे में बड़े पैमाने पर जंगल की कटाई शुरू हुई.
Sunderlal Bahuguna
स्कूली बच्चों के साथ चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा. (फाइल फोटो)

1972 आते-आते ये कटाई काफ़ी तेज हो गई. पेड़ों को काटने का स्थानीय लोगों ने विरोध किया. सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे लोग विरोध में सामने आ गए. इलाके की महिलाएं भी जंगल कटाई के खिलाफ उतर आईं. जगह-जगह महिला मंगल दल बन गए. रैणी गांव में भी महिला मंगल दल बना. गौरा देवी को इसका अध्यक्ष बनाया गया. महिला मंगल दल की महिलाएं घर-घर घूमकर लोगों को पेड़ों का महत्व समझातीं और पर्यावरण के लिए जागरूक करतीं.
Sunderlal BAHUGUNA
सुंदरलाल बहुगुणा और उनकी पत्नी विमला

1973 की शुरुआत में तय हुआ कि रैणी गांव के ढाई हजार पेड़ काटे जाएंगे. इसके विरोध में पूरा गांव खड़ा हो गया. 23 मार्च 1973 को पेड़ों की कटाई के विरोध में रैली निकाली गई. लेकिन इस सबका सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा. पेड़ काटने का ठेका भी दे दिया गया. ठेकेदार पेड़ काटने पहुंच गए. तभी गौरा देवी के नेतृत्व में रैणी गांव की महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं. उनका कहना था,
‘पहले हमें काटो, फिर पेड़ को काटना.’
नतीजतन पेड़ों को काटने का फरमान सरकार को वापस लेना पड़ा. इसके बाद पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने का ये अभियान आसपास के इलाकों में भी फैल गया. इसे चिपको आंदोलन कहा गया. सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरणविद् पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने के इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व करने लगे. आगे चलकर यह आंदोलन देश-दुनिया में प्रसिद्ध हो गया. पूरी दुनिया के पर्यावरण प्रेमी और पर्यावरण संरक्षण में लगे लोग इससे प्रेरित हुए.
इस आंदोलन का असर यह हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को वन संरक्षण कानून लाना पड़ा. इसके जरिए इस इलाके में पेड़ों की कटाई पर 15 साल के लिए बैन लगा दिया गया. यहां तक कि केन्द्र सरकार ने अलग से वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भी बना दिया.

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