ये बात है अप्रैल 2019 की. भारत की खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ (रॉ) को कुछ सीक्रेट जानकारियां हाथ लगीं. इसमें दर्ज़ था कि श्रीलंका में चर्च और भारतीय दूतावास पर बड़े हमले की साज़िश चल रही है. रॉ ने इस जानकारी को ‘स्टेट इंटेलिजेंस सर्विसस’ (SIS) के साथ साझा किया. SIS, श्रीलंका की खुफिया एजेंसी है. शुरुआत में इसे ‘नेशनल इंटेलिजेंस ब्यूरो’ के नाम से जाना जाता था. SIS ने इस टिप को सरकार के साथ साझा किया. आगे की कार्रवाई के लिए इजाज़त मांगी. लेकिन वहां अंदरुनी पॉलिटिक्स चल रही थी. इस चक्कर में एक खतरनाक आहट को नज़रअंदाज कर दिया गया.
फिर आई 21 अप्रैल की तारीख़
ईस्टर संडे का दिन. ईसाई इस दिन को जीसस क्राइस्ट के पुनर्जीवित होने की याद में सेलिब्रेट करते हैं. राजधानी कोलंबो में उस दिन खुशी का माहौल था. चर्चों में प्रार्थना सभाएं आयोजित की गईं थी. सब कुछ अपनी गति से घट रहा था. अचानक ही सब पलट गया. वहहां जोरदार धमाकों की आवाजें सुनाई पड़ी. फिर चीख-पुकार मची और पूरा नज़ारा वीभत्स हो गया. हर तरफ तबाही मची थी. लाशों का अंबार लगा था. वो खुशनुमा सुबह मिनटों के भीतर मातम में बदल गई थी.

श्रीलंका ब्लास्ट्स में 8 आतंकी सहित करीब 300 लोगों की मौत हुई थी और 500 से अधिक लोग घायल हुए थे. (तस्वीर: एपी)
उस सुबह कोलंबो में छह धमाके हुए थे. तीन चर्चों में और तीन लग्ज़री होटलों में. सारे हमले आत्मघाती थे. यानी हमलावर ने ख़ुद को बम से उड़ा लिया था. उसी रोज, जब प्रशासन घायलों को बचाने और आगे की तहक़ीक़ात में व्यस्त था. दो और धमाके हुए. कोलंबो से सटे इलाकों में. 21 अप्रैल 2019 को हुए सीरियल ब्लास्ट में 300 से ज्यादा लोगों की मौत हुई, जबकि 500 से अधिक लोग घायल हुए थे. मरनेवालों में कई विदेशी नागरिक भी थे, जो छुट्टियां बिताने श्रीलंका आए हुए थे.
पवित्र दिन पर किसकी नीयत खराब हो गई?
इस आतंकी हमले ने पूरी दुनिया को सकते में ला दिया. श्रीलंका में सिविल वॉर का लंबा इतिहास रहा है. 2009 में सेना ने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे) को निर्णायक तौर पर हरा दिया था. तब जाकर सिविल वॉर पर विराम लगा. फिर श्रीलंका में उम्मीद की किरण नज़र आई. शांति की उम्मीद. इस भरोसे में खलल किसने डाला? एक पवित्र दिन पर किसकी नीयत खराब हो गई?
इसका आरोप लगा दो स्थानीय मुस्लिम गुटों पर. इनमें सबसे खास था, नेशनल तौहीद जमात. एक कट्टर इस्लामिक संगठन, जिसे बौद्ध मूर्तियां तोड़ने और शरिया कानून का प्रचार-प्रसार करने के लिए जाना जाता था. तौहीद जमात के लीडर ‘ज़हरान हाशिम’ को इस हमले का मास्टरमाइंड बताया गया. लेकिन जांच एजेंसियां इतने से संतुष्ट नहीं थी. उन्हें किसी बाहरी सपोर्ट का शक था.

ज़हरान हाशिम.
ये शक तब गहरा गया, जब इस्लामिक स्टेट ने ईस्टर संडे को हुए हमलों की जिम्मेदारी ले ली. इसके बाद इस्लामिक स्टेट के मुखिया अबू बक़्र अल-बग़दादी ने एक वीडियो जारी किया. इसमें उसने आत्मघाती हमलावरों को शहीद बताया और उनकी खूब तारीफ़ भी की. श्रीलंका में इस्लामिक स्टेट के हस्तक्षेप का ये पहला बड़ा मामला था. हालांकि, ये दावा कभी साबित नहीं हो सका.
खैर, हमले के बाद और क्या-क्या हुआ?
सरकार ने नेशनल तौहीद जमात को आतंकी संगठन घोषित कर दिया. पुलिस ने तौहीद जमात के ठिकानों पर छापेमारी की और कई संदिग्धों को गिरफ़्तार किया. मुस्लिम महिलाओं के बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगा दी. सोशल मीडिया साइट्स को बैन कर दिया. कई इलाकों में कर्फ़्यू लगा दिया गया.
बुर्क़ा और सोशल मीडिया पर बैन तो अस्थायी था. लेकिन एक चीज स्थायी तौर पर बस गई. वो थी मुस्लिमों के प्रति नफ़रत. श्रीलंका में मुस्लिम आबादी लगभग 10 प्रतिशत है. बहुसंख्यक हैं सिंहली बौद्ध. उनकी आबादी लगभग 70 प्रतिशत है. अल्पसंख्यक होने के बावजूद मुस्लिम चुनाव में निर्णायक भूमिक निभाते थे. उनकी आर्थिक स्थिति भी बाकियों से बेहतर है. इससे सिंहली लोग गुस्सा थे. आतंकी हमले ने इस आग को और भड़का दिया.
ईस्टर संडे अटैक के वक़्त श्रीलंका के राष्ट्रपति थे. मैत्रीपाल सिरिसेना. 2015 के राष्ट्रपति चुनाव में तौहीद जमात ने सिरिसेना के पक्ष में कैंपेन चलाया था. सिरिसेना पर कट्टर संगठनों को बढ़ावा देने का आरोप लगा. सिरिसेना ने 2019 के चुनाव में नहीं उतरने का फ़ैसला किया था.

श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति मैथ्रीपाला सिरिसेना. (तस्वीर: एपी)
जब नवंबर, 2019 में दोबारा राष्ट्रपति चुनाव हुए, विपक्ष ने मुद्दे को पकड़ लिया था. विपक्ष के उम्मीदवार थे, गोटबाया राजपक्षे. पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई. जब महिंदा राष्ट्रपति थे. तब गोटबाया रक्षा सचिव का पदभार संभाल रहे थे. लिट्टे के खात्मे में उन्होंने काफी अहम भूमिका निभाई थी. इस दौरान गोटबाया पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप भी लगे. लेकिन उन्होंने इसे हमेशा नज़रअंदाज ही किया है.

श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे. (तस्वीर: एपी)
जब चुनाव का दिन आया, सिंहली लोगों को लगा, गोटबाया ही वो शख़्स हैं, जो उन्हें इस्लामिक कट्टरता से बचा सकते हैं. उन्होंने एकमुश्त होकर गोटबाया के पक्ष में वोटिंग की. गोटबाया भारी अंतर से चुनाव जीत गए. राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने ऐसे लोगों को प्रमुख पदों पर बिठाया, जिनके ऊपर वॉर क्राइम्स के आरोप थे. उन्होंने प्रिवेंशन ऑफ़ टेररिज़्म ऐक्ट (PTA) को और नुकीला बनाया.
ये ऐक्ट आख़िर आया कहां से?
PTA 1979 में टेंपररी तौर पर लागू किया गया था. 1982 में इसे स्थायी बना दिया गया. इसके तहत पुलिस किसी भी संदिग्ध की तलाशी ले सकती थी या जब चाहे तब गिरफ़्तार कर सकती थी. समय के साथ-साथ ये कानून क्रूर होता गया. जानकारों के मुताबिक, कई बेगुनाह लोगों को इसका कहर झेलना पड़ा. उसकी कभी भरपाई नहीं हो पाई. सिरिसेना सरकार ने इन अत्याचारों को माना और PTA को भंग करने की दिशा में कदम भी बढ़ाया. लेकिन ऐसा होता, उससे पहले ही उनकी सरकार चली गई.

राष्ट्रपति बनते ही गोटबाया राजपक्षे ने प्रिवेंशन ऑफ़ टेररिज़्म ऐक्ट को और नुकीला बनाया. (तस्वीर: एपी)
आज हम इसकी चर्चा क्यों कर रहे हैं? वजह है, गोटबाया सरकार का नया फ़ैसला. श्रीलंका सरकार पूरे देश में बुर्क़ा पहनने पर रोक लगाने जा रही है. साथ ही, एक हज़ार से अधिक मदरसों पर भी बैन लगाने की तैयारी हो रही है. इसके अलावा, PTA के तहत पुलिस किसी भी संदिग्ध को दो साल तक के लिए हिरासत में रख सकती है. वो भी बिना कारण बताए.
मिनिस्टर फ़ॉर पब्लिक सिक्योरिटी सरत वीरासेकरा ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में ये जानकारी दी. उन्होंने कहा कि ये फ़ैसला राष्ट्रीय सुरक्षा को मज़बूत करने के लिए लिया गया है. वीरासेकरा ने ये भी कहा कि ‘उनके समय में मुस्लिम लड़कियां और महिलाएं बुर्क़ा नहीं पहनती थीं. ये धार्मिक अतिवाद है.’

श्रीलंका के फ़ॉर पब्लिक सिक्योरिटी मिनिस्टर सरत वीरासेकरा. (तस्वीर: एएफपी)
फ़ैसलों का विरोध भी शुरू हो गया है
श्रीलंका में फिलहाल लगभग दो हज़ार मदरसे हैं. वीरासेकरा ने बताया कि ये मदरसे ‘राष्ट्रीय सुरक्षा नीति’ को ठेंगा दिखा रहे थे. उन्होंने कहा, ‘कोई भी स्कूल खोलकर बच्चों को बेमतलब की चीज़ें नहीं पढ़ा सकता है. जो भी मदरसे रजिस्टर्ड नहीं हैं या नेशनल एजुकेशन पॉलिसी का पालन नहीं कर रहे हैं, उनपर जल्दी ही ताला लगाया जाएगा.’
सरकार अपने फ़ैसलों पर डटी हुई है. वहीं दूसरी तरफ़ इन फ़ैसलों का विरोध भी शुरू हो गया है. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि सरकार मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन कर रही है. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि ऐसे समय में जबकि मुस्लिम आबादी खतरा महसूस कर रही हो, ऐसे फ़ैसलों से उनका भरोसा कमज़ोर होगा.
उनका इशारा कोविड-19 में मुस्लिमों को जलाने के आदेश की तरफ था. दरअसल, पिछले साल सरकार ने गाइडलाइंस जारी कर कहा था कि कोविड-19 से मरनेवालों को दफ़नाने की जगह जलाया जाएगा. उनका तर्क था कि दफ़नाने से कोरोना वायरस के फैलने की आशंका होती है. हालांकि, उन्होंने इस दावे को लेकर कोई सबूत पेश नहीं किया. इस्लाम में मृत शरीर को दफ़्न करने की परंपरा है. सरकार ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया. इससे नाराज़ मुस्लिमों ने देशभर में प्रदर्शन भी किए. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी इस फ़ैसले की आलोचना की थी. आख़िरकार, 26 फ़रवरी 2021 को सरकार ने अपनी ज़िद छोड़ दी. और, अपना फ़ैसला वापस ले लिया.
सरकार अपने कदम पीछे खींच लेगी?
बुर्क़ा और मदरसों पर बैन को लेकर भी विरोध के स्वर उठने लगे हैं. क्या इस बार भी सरकार अपने कदम पीछे खींच लेगी? जानकारों की मानें, तो ऐसा होना बेहद मुश्किल है. ऐसा क्यों? क्योंकि इस्लामिक कट्टरता की ख़िलाफ़त गोटबाया सरकार की सबसे बड़ी करेंसी रही है. इसी के जरिए वो बहुसंख्यक सिंहली लोगों को अपने पाले में करने में सफ़ल रही है. वो इसे गंवाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहेगी.
इसके अलावा, सरकार सिंहली लोगों में कट्टर इस्लाम का डर बरकरार रखना चाहती है. ताकि बहुसंख्यक आबादी को कोई दूसरा विकल्प न मिल जाए. ये गोटबाया राजपक्षे और उनकी पार्टी के लिए तो फायदे का सौदा है. लेकिन श्रीलंका के लोगों पर इसका क्या असर पड़ेगा, ये तो आनेवाला वक़्त ही बताएगा.
ये वक़्त उम्मीदों और आशंकाओं की सीमा पर खड़ा है. ये किस करवट बैठेगा, इससे जुड़ी अपडेट्स लल्लनटॉप आप तक पहुंचाता रहेगा.