22 अप्रैल 2025. जम्मू-कश्मीर में हुए जघन्य आतंकी हमले की आंच बहुत तेजी से पाकिस्तान तक पहुँच गई. ऐसा होता भी क्यों न? सारे सबूत इसी ओर इशारा कर रहे थे. ISI की शह बने लॉन्चपैड से घुसपैठ के सुराग थे, लाहौर के जौहर टाउन में पकाई गई आतंक की ईंटें थीं, और अफ़ग़ानिस्तान से ब्लैक में खरीदी गईं M16 कार्बाइन राइफल्स. सबकी स्क्रिप्ट रावलपिंडी में लिखी गई थी.
जंग से पहले पाकिस्तान में होने वाला है तख्तापलट, इस आदमी ने किया खेल!
क्या पाकिस्तान में फिर से तख्तापलट होने वाला है? कौन शाहबाज शरीफ़ की पीठ में छुरा भोंकने का काम कर रहा है? क्या शहबाज़ शरीफ़ भी अपने बड़े भईया नवाज़ शरीफ़ वाले कांड का शिकार होंगे?
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लेकिन पाकिस्तान का आधार इस हमले के पहले ही हिल गया था. पूरा देश उबलती देग़ची पर रखा था. ऊपर से ढक्कन लगा था. अंदर सियासी बेक़रारी, सूबाई बग़ावतें खौल रही थीं. और जब भारत ने पहलगाम अटैक का आरोप लगाया, तो प्रेशर वाल्व उड़ गया. पूरी जली कुढ़ी बिरयानी दीवार पर छितराई हुई थी. कुछ चावल काले दिख रहे थे. एक काले चावल पर लिखा था ISI. कुछ जले चावल पाक आर्मी चीफ की कहानी सुना रहे थे. और दहकती हुई आंच कह रही थी एक कहानी - शाहबाज शरीफ़ की रुखसती, और एक और संभावित तख्तापलट का प्लॉट.
सवाल, क्या पाकिस्तान में फिर से तख्तापलट होने वाला है? कौन शाहबाज शरीफ़ की पीठ में छुरा भोंकने का काम कर रहा है? क्या शहबाज़ शरीफ़ भी अपने बड़े भईया नवाज़ शरीफ़ वाले कांड का शिकार होंगे? और पाकिस्तान का पुराना इतिहास क्या है? इन सवालों के जवाब ढूँढेंगे आज.

और जवाबों की खोज शुरु होती है 11 मार्च 2025 के दिन से. पाकिस्तान के क्वेटा से पेशावर जा रही जाफ़र एक्सप्रेस को बलोच विद्रोहियों ने हाईजैक कर लिया. 30 से ज़्यादा मुसाफ़िर मारे गए. आर्मी ने जवाब तो दिया. 33 आतंकियों को मार गिराने का दावा किया. और बचे हुए यात्रियों को छुड़ाने की घोषणा. लेकिन असली सवाल यह नहीं था कि ट्रेन छूटी कैसे, असली सवाल ये था कि ये हादसा रोका क्यों नहीं गया? इस हमले के बाद नेशनल सिक्योरिटी कमेटी की बैठक बुलाई गई. प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने मज़बूत कार्रवाई की अपील की. लेकिन सारा फोकस एक ही आदमी पर टिक गया. जनरल आसिम मुनीर. वही आसिम मुनीर, जिसे कुर्सी पर बैठने के बाद शहबाज़ शरीफ़ ने सेनाध्यक्ष बनाया था. कहते हैं कि इमरान को कुर्सी से सेना ने हटवाया, और शाहबाज को बैठाया. लिहाजा शरीफ़ परिवार ने कर्ज उतारा.
इस बैठक में मुनीर ने कहा, "हमें एक tough state कठोर राष्ट्र बनना होगा. ये जंग अब मुल्क के सर्वाइवल और आने वाली नस्लों की जंग है." सुनने में देशभक्ति लगती है. लेकिन डिक्शन बदलते ही मानी भी बदल जाते हैं. सवाल ये नहीं है कि उन्होंने ये क्यों कहा, सवाल ये है कि किसको ये कहा. क्या ये एक इशारा था कि जो सिविल हुकूमत नहीं कर पा रही, उसे अब फौज अपने हाथों में ले ले?
मुनीर ने गवर्नेंस' का ज़िक्र किया. सवाल उठाया "आख़िर कब तक हम जान देते रहेंगे?" मुनीर के बयान में एक वाक्य था, ‘साफ्ट स्टेट नहीं चलेगा.’ पाकिस्तान की फौज एक ज़माने से "सॉफ्ट स्टेट" के खिलाफ़ लड़ाई लड़ती रही है. लेकिन जब ये बयान एक ऐसे वक़्त पर आता है, जब बलोचिस्तान में विद्रोह उठा हुआ था, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान फिर से सर उठा रही थी, सिंध और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा भी पूरे कंट्रोल में था नहीं. तो क्या ये एक रूटीन कमेंट था? या फिर आर्मी चीफ़ के ज़हन में कोई और स्क्रिप्ट चल रही थी?
जनरल की मंशा और साफ हुई. 17 अप्रैल को Overseas Pakistani Convention में मुनीर ने भाषण दिया. दर्शकों में PM शहबाज़ शरीफ़ और उनके मंत्री भी मौजूद थे. मुनीर ने वहां ‘Two-Nation Theory’ को दोबारा ज़िक्र किया. कहा कि हिंदू और मुसलमान “हर चीज़ में अलग हैं. धर्म अलग है, रस्में अलग हैं, तहज़ीब अलग है, सोच अलग है, मंशा अलग है.” दर्शकों को उन्होंने कहा “अपने बच्चों को ये बात याद दिलाओ. ताकि पाकिस्तान की कहानी कभी न भूले.”

मुनीर की इस कड़ी ज़ुबान को कैसे देखा जाना चाहिए? एक दफ़ा फिर पीछे चलते हैं. जनरल जिया उल हक़ ने जब भुट्टो का तख्तापलट किया. तख्तापलट करने के बाद जिया-उल-हक पाकिस्तान की जनता से रुबरू हुए. 14 मिनट लंबा भाषण दिया. जिया ने कहा-
“मिस्टर भुट्टो की हुकूमत खत्म हो चुकी है. सारे मुल्क में मार्शल लॉ वापस लगा दिया गया है. मैंने जो किया लोकतंत्र की हिफाजत और मुल्क की भलाई के लिए किया. मेरी कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा नहीं है. तीन महीने बाद मैं चीफ मार्शल लॉ अडमिनिस्ट्रेटर की अपनी ये पोस्ट छोड़ दूंगा. जनता के हाथों चुने गए जन प्रतिनिधियों को सत्ता सौंप दूंगा. पाकिस्तान इस्लाम के नाम पर बना था. अगर इसे टिकना है, आगे बढ़ना है, तो इसे इस्लाम के साथ ही रहना होगा. इसीलिए मेरा मानना है कि मुल्क में एक इस्लामिक सिस्टम होना चाहिए. हर चीज इस्लामिक तौर-तरीके से होनी चाहिए.”
अब मुनीर भी वैसी ही बातें कर रहे हैं. मुनीर जानते हैं कि वो जंग मोल लेने की हालत में नहीं हैं. ऐसे में क्या मुनीर एक सीमित जंग का माहौल बना रहे हैं. ताकि एक दुश्मन मुल्क को कोसने और एक सिविल सरकार को असफल साबित करने का मौक़ा मिले?
22 अप्रैल को पहलगाम हमले का स्वाभाविक इल्जाम पाकिस्तान पर लगा. सही भी था. इसके बाद सरहद पार से मिलेजुले स्वर सुनाई दिए. जंग के बाद प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ वो पहले शख़्स थे जिन्होंने पहलगाम हमले के निष्पक्ष जांच की मांग की. उनकी सरकार के मंत्रियों ने भी ये बात दुहराई. वो लगातार कह रहे थे कि ऐसी कोई कंट्री पहलगाम हमले की जांच करे, जो भारत पाकिस्तान - किसी के भी प्रति पक्षधर न हो.
लेकिन आधिकारिक बयान में एक गड़बड़ी कर दी पाकिस्तान के इन्टीरीयर मिनिस्टर मोहसिन नकवी ने. उन्होंने पत्रकारों से बात करते हुए पहलगाम हमले की जांच की बात तो कही. साथ ही भारत पर भी इल्जाम लगा दिया कि हमारी एजेंसियां उनके देश के बलोचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा वाले इलाके में इन्सर्जन्सी को बढ़ावा दे रही हैं.

वहीं 29 अप्रैल को पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता अहमद शरीफ़ चौधरी ने भारत के बारे में तमाम चीज़ें कहीं. बेतुके आरोप लगाए. सुबूत की मांग की. लेकिन निष्पक्ष जांच वाली बात नहीं कही.
जानकार बताते हैं कि मोहसिन नकवी का बयान देना एक बड़ी साजिश की ओर इशारा कर रहा था. हमने जब पाकिस्तान के कुछ पत्रकारों से बात की, तो उन्होंने कहा कि इस समय पाकिस्तानी सेना का पूरा फोकस भारत के साथ एक जंग में है. जिसकी आड़ में वो पश्चिमी देशों, चीन और मिडिल ईस्ट के देशों से फन्डिंग ले सके. ऐसे में सेना "शांति" या "जांच" के फोरम पर बात नहीं करना चाह रही है. और उड़ती खबरों की मानें, तो पाकिस्तान के मंत्री मोहसिन नकवी हुए जनरल आसिम मुनीर के रिश्ते में. जानकार बताते हैं कि सरकार में सेना के प्यादे हैं. और उनकी भाषा बोल रहे हैं. युद्ध चाह रहे हैं.
सरकार के भीतर सेना की घुसपैठ का अंदाज एक और तथ्य से लगता है. 30 अप्रैल को खबर आई कि पाकिस्तान ने अपनी खुफिया एजेंसी ISI के चीफ, लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद असीम मलिक को वहाँ का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) का अतिरिक्त प्रभार सौंप दिया है. माना जा रहा है कि इस कदम में भी सेना का हाथ है. लेकिन सेना ऐसा क्यों चाहेगी? जानकार बताते हैं कि इस समय पाकिस्तान की माली हालत पतली है, और सब खेल पैसे का है. इसलिए अचरज नहीं होना चाहिए, यदि सरकार में धीरे-धीरे घुसती, पाकिस्तान की सेना शहबाज़ शरीफ़ का तख्तापलट दे.
ऐसे में देखें तो ढेर सारे बयान हैं, और बयानों के मानी. और आदेशों को मानने के लिए बनी हुई सेना खुद Tough State होने की वकालत में उतर आए, राष्ट्र की मजबूती की वकालत करने लगे. क्या आपने कभी देखा कि भारत के किसी सेनाध्यक्षों ने इस स्तर की बात की हो? नहीं. लेकिन इतिहास में जब भी पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों ने देश-राष्ट्र-पीढ़ी-मजबूती जैसे शब्द अपने भाषणों में फेंके हैं, सरकार के गिरने के रास्ते खुले हैं. तख्तापलट के पक्ष में स्थितियां बनी हैं.
इतिहास भी कुछ ऐसे ही संकेत देता है. दरअसल पाकिस्तान में साल 1958 से ही एक परिपाटी चली आ रही है. वहाँ के सेनाध्यक्षों ने सबसे पहले उसी हाथों पर अपने दांत गड़ाए हैं, जिन हाथों ने खाना खिलाए, ताकत दी.
परंपरा शुरू करने वाले अय्यूब खान1958 में दही में ज्योरन डाला था जनरल अय्यूब खान ने. इस समय मेजर जनरल इसकन्दर अली मिर्जा पाकिस्तान के प्रेसिडेंट हुआ करते थे. 7 अक्टूबर के दिन उन्होंने देश में मार्शल लॉ लगा दिया. तत्कालीन फिरोज़ खान नून की सरकार को बर्खास्त कर दिया. इसके साथ ही उन्होंने तब के आर्मी चीफ जनरल अय्यूब खान को मार्शल लॉ प्रशासक और प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. इसकन्दर अली मिर्जा को लगा कि अब सब उनके हिसाब से हो रहा है.

लेकिन जनरल अय्यूब खान को मार्शल लॉ प्रशासक की कुर्सी देकर उन्होंने गलती कर दी थी. इस प्रशासक के पास मार्शल लॉ के तहत एक्सीक्यूटिव पॉवर्स आ गई थीं. इसकन्दर अली मिर्ज़ा की हैसियत बस कुर्सी भर की रह गई थी. लिहाजा, जनरल अय्यूब खान ने अपना आखिरी दांव खेला. खुद को ही कुर्सी पर बिठाने वाले इसकन्दर अली मिर्जा को बर्खास्त करके देशनिकाला दे दिया. और खुद राष्ट्रपति बन गए. इस घटना के साथ पाकिस्तान में तख्तापलट की परिपाटी शुरू हो गई.
तानाशाह ज़िया उल हक़ का जन्मइसके बाद अगला तख्तापलट हुआ साल 1977 में. प्रधानमंत्री थे ज़ुल्फिकार अली भुट्टो. और सेनाध्यक्ष थे जनरल ज़िया उल हक़. दोनों की आपस में नहीं बनती थी. इस साल पाकिस्तान में आम चुनाव भी हुए थे. प्रगतिशील किस्म राजनीति की वकालत करने वाली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP)को चुनाव में जनता का समर्थन मिल रहा था. लेकिन लीगी और धार्मिक आधार पर चलने वाली पार्टियों ने मिलकर पाकिस्तान में एक संयुक्त मोर्चा बना लिया था. नाम - पाकिस्तान नेशनल अलायंस (PNA). PNA चुनाव में PPP को कड़ी टक्कर दे रही थी. लेकिन चुनाव में PNA बुरा हारी. उसने PPP पर चुनाव में धांधली के इल्जाम लगाए. और पूरे देश में हिंसक प्रदर्शन होने लगे.

इन प्रदर्शनों का केंद्र थे मस्जिद और मदरसे, जो स्वाभाविक कारणों से PNA की पॉलिटिक्स को सूट भी करते थे. प्रदर्शन इतना बढ़े कि PNA ने पाकिस्तानी आर्मी को चिट्ठी लिखकर मार्शल लॉ लगाने की दरखास्त की. पाकिस्तान आर्मी इसी ताक में बैठी थी. ज़िया उल हक़ एक्टिव हुए. उनको बढ़िया मौका मिला हुआ था क्योंकि बीच क्राइसिस भुट्टो मिडिल ईस्ट की लंबी यात्रा पर चले गए थे. उनको सूचना मिली कि PNA शांति समझौते के लिए तैयार है. जैसे ही वापिस आए, तो पता चला कि कोई भी समझौता नहीं होना है. अब गिरफ्तार होना है. वैसा ही हुआ, ज़िया उल हक़ ने भुट्टो और उनके मंत्रियों को बंदी बना लिया, मार्शल लॉ लगा. नए प्रेसिडेंट - ज़िया उल हक़.
चाय पर तय हुआ परवेज़ मुशर्रफ़ का भाग्यइसके बाद तख्तापलट की अगली सफल कहानी लिखी गई साल 1999 में. किरदार - प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़, सेनाध्यक्ष जनरल परवेज़ मुशर्रफ. मतलब आप जब प्रधानमंत्री जैसे पदों का जिक्र पाकिस्तान के संदर्भ में सुनें, तो इतना भर सोच लें कि कभी कभी वहाँ भी जम्हूरियत की शक्ति का स्वांग सफलता से रच लिया जाता है. तो 99 में हुआ कारगिल युद्ध. जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने नवाज़ शरीफ़ को धोखे में रखकर कारगिल में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ करा दी थी. पाकिस्तानी सैनिक मुजाहिदों का भेष धरकर आए थे. बाद में नवाज़ शरीफ़ को पता चला, तो वो शुरुआत में जरूर थोड़ा अचकचाए थे, लेकिन फिर आर्मी का साथ भी दे दिया था. प्रधानमंत्री ने अपने जनरल पर भरोसा जमाया था. लेकिन भारत ने इस युद्ध में पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी. शिकस्त के बाद नवाज़ शरीफ और मुशर्रद में खटपट हो गई. बातचीत बंद. चूल्हा अलग कर लिया गया.

12 अक्टूबर का दिन. प्रधानमंत्री आवास के अहाते में दो जन चाय की चुस्कियां ले रहे थे. मेज़ की एक तरफ़ बैठे थे, उस समय के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और दूसरी तरफ़ थे, खुफिया एजेंसी ISI के डीजी जियाउद्दीन बट्ट. चाय पर चल रही चर्चा के केंद्र में परवेज मुशर्रफ थे, जो खुद उस समय श्रीलंका के दौरे पर गए हुए थे. चाय के बीच शरीफ़ ने बट्ट को कहा कि आपको अगला सेना प्रमुख बना रहे हैं. बट्ट तो खुश, लेकिन मुखबिरों ने ये सूचना दे दी परवेज़ मुशर्रफ को. बौखलाए हुए मुशर्रफ ने वापिस पाकिस्तान की यात्रा शुरू की. जैसे ही उनका प्लेन पाकिस्तान के एयरस्पेस में पहुंचा, एयर ट्राफिक कंट्रोल ने बोल दिया कि प्लेन को पाकिस्तान में घुसने की इजाजत नहीं है. प्लेन को पाकिस्तान से बाहर ले जाइए.
फिर मुशर्रफ ने खुद एटीसी से बात की. लेकिन बात बनी नहीं. फिर उन्होंने पायलट से कहा कि कराची के चक्कर लगाते रहो. इतनी देर में मुशर्रफ़ के वफ़ादार सैनिकों ने एयरपोर्ट को घेर लिया था. एटीसी को हारकर इजाज़त देनी पड़ी. विमान उतरा. मुशर्रफ़ ने अपनी किताब 'इन द लाइन ऑफ फ़ायर' में इस घटना का विस्तार से ज़िक्र किया है. उन्होंने दावा किया कि उतरते टाइम विमान में सिर्फ सात मिनट का ईंधन बचा था.
अब असहज होने की बारी नवाज शरीफ की थी. मुशर्रफ के वफादार सैनिक शरीफ के घर में दाखिल हो चुके थे. उन्हें हिरासत में ले लिया गया. टीवी चैनर्सों पर सेना का पहरा लगा दिया गया. रात होते-होते धुंध साफ हो चुकी थी. नवाज़ शरीफ को पद से बर्खास्त कर दिया गया था. जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने पाकिस्तान का कंट्रोल अपने हाथों में ले लिया था. दिन का पहला तख्तापलट असफल रहा. लेकिन रात होते-होते मुशर्रफ ने बाजी पलट दी थी. कुर्सी हथियाने के बाद उन्होंने संसद और संविधान को भंग कर दिया.
फौज से भिड़कर फंस गए इमरान खानअब आइए साल 2019 में. एक और उदाहरण लीजिए. इस बार का समीकरण थोड़ा अलग है. तख्तापलट नहीं हुआ. सेना ने प्रधानमंत्री को हटवा दिया. साथ मिला ISI का. इस बार केंद्र में हैं इमरान खान. साल 2018 में इमरान ने छोटी-मोटी पार्टियों के साथ गठबंधन करके सरकार बनाई थी. पाकिस्तान की सेना का साथ मिला था, तो इमरान ने प्रधानमंत्री बनने के साथ सेना के चहेते लोगों को नियुक्ति देना शुरू किया. सेना जिसे चाहती, इमरान उसे ही मनमाफिक पद देते. ऐसे ही उन्होंने साल 2018 के उत्तरार्ध में तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल आसिम मुनीर को खुफिया एजेंसी ISI के प्रमुख की कुर्सी दी.

लेकिन आसिम मुनीर 8 महीनों के भीतर ही खटपट शुरू हो गई. ISI चीफ ने प्रस्ताव रखा बुशरा बीबी की जांच का. बुशरा यानी इमरान की पत्नी. उन पर उस समय भ्रष्टाचार के इल्जाम लग रहे थे. इमरान ने मना कर दिया. और ISI चीफ को हटा दिया. लेकिन सेना को बुरा लगा, सेना लग गई आसिम मुनीर के पीछे. इमरान के पास से सेना का समर्थन गिरने लगा. तब इमरान ने लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद को ISI वाली कुर्सी दी.
लेकिन सेना ये नहीं चाहती थी. सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा, फ़ैज़ हमीद की जगह किसी और को कुर्सी पर चाहते थे, लेकिन इमरान ऐसा करना नहीं चाहते थे. फौज के प्रेशर के बावजूद इमरान, हमीद को हटाने का नोटिस जारी नहीं कर रहे थे. वो चाहते थे कि हमीद उनके राजनीतिक फायदे के लिए काम करते रहें. लिहाजा सेना ने सरकार से एकदम दूरी बना ली. विरोधियों को हवा दी. अप्रैल 2022 में अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए उनकी सरकार गिराई गई. फिर हुए तमाम उलटफेर, और अब हैं इमरान जेल में.
यानी आप इतिहास तो देख रहे हैं कि फौज किसी की सगी नहीं. जम्हूरियत की भी नहीं, वजीरों की भी नहीं. अपीलों के समानांतर है न्याय का इंतजार भी. क्या होगा, तो समय के पेट में.
ये खबर यहीं तक, स्वस्थ रहिए, मस्त रहिए. पढ़ते रहिए लल्लनटॉप.
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