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'लेखक का दिमाग गंदा है, देखें पुस्तक की पृष्ठ संख्या 215'

भारत के बहुत बड़े इंग्लिश ऑथर मुल्कराज आनंद की आज बरसी है. उनके क्लासिक 'अनटचेबल' की एक और लैजेंड्री नॉवेलिस्ट ई. एम. फॉर्स्टर द्वारा लिखी प्रस्तावना पढ़वा रहे हैं.

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मुल्कराज आनंद - 'कुली' और 'अनटचेबल' जैसे उपन्यासों के लेखक.
मुल्कराज आनंद (12 दिसंबर, 1905- 28 सितंबर, 2004) का पहला निबंध उनकी चाची की आत्महत्या से प्रेरित था, उनकी चाची को एक मुस्लिम महिला के साथ भोजन साझा करने के लिए परिवार द्वारा बहिष्कृत कर दिया गया था.
मुल्कराज का पहला मुख्य उपन्यास, 'अनटचेबल' (अछूत), 1935 में प्रकाशित हुआ. यह उपन्यास 'बक्खा' के जीवन की एक दिन की कहानी है. 'बक्खा' एक टॉयलेट-क्लीनर है, जो अंजाने में एक उच्च जाति के व्यक्ति से छू जाता है.
ये एक बहुत ही सरल भाषा में लिखी गई पुस्तक है, इसमें प्रयुक्त पंजाबी और हिंदी मुहावरों का अंग्रेजी अनुवाद व्यापक रूप से सराहा गया था और इस उपन्यास के बाद आनंद 'भारत के चार्ल्स डिकेंस' कहे जाने लगे. अछूत के अंत (क्लाइमेक्स) के विषय में चर्चित इंग्लिश ऑथर ई. एम. फॉर्स्टर टिप्पणी करते हुए कहते है - अछूतों को बचाने के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं है और न किसी आत्म-बलिदान अथवा त्याग की ही जरूरत है. आवश्यकता है, सीधे-सादे और एक मात्र साधन, 'फ्लश सिस्टम' की. 
E. M. Forster

ई.एम. फॉर्स्टर - अंग्रेजी भाषा के एक और प्रख्यात लेखक.
भारत और 'ब्रिटिश राज' पर लिखे उनके नॉवेल ‘ए पैसेज टू इंडिया’ ने दुनिया भर में धूम मचा दी थी. टाइम मैगज़ीन ने इसे 'सर्वकालीन 100 श्रेष्ठ नॉवेल' वाली लिस्ट में जगह दी. उन्होंने मुल्कराज आनंद के नॉवेल 'अनटचेबल' (अछूत) पर प्रस्तावना लिखी है. इस प्रस्तावना को एक एपेटाईज़र की तरह पढ़िये और उत्सुकता जगाइए 'मुल्कराज' को पढ़ने के लिए, 'अछूत' को पढ़ने के लिए, 'संवेदनशील' होने के लिए:


'अनटचेबल' (अछूत) पर ई.एम.फॉर्स्टर की प्रस्तावना     

कुछ वर्ष पहले मेरी ही लिखी हुई पुस्तक ‘ए पैसेज टू इंडिया’ की एक प्रति मेरे हाथ लगी, जिसे शायद किसी कर्नल ने पढ़ा था. पुस्तक पढ़ने के बाद अपनी भावनाओं के वशीभूत होकर उसने पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर ही लिख दिया; ‘होते ही जला डालो’.
उसी से कुछ नीचे उसने लिखा थाः ‘लेखक का दिमाग गंदा है, देखें पुस्तक की पृष्ठ संख्या 215’.
मैंने जल्दी से पृष्ठ 215 पलटा, जहां मुझे ये शब्द दिखाई दियेः ‘चंद्रपुर के भंगियों ने हड़ताल कर दी, जिसके परिणामस्वरूप आधे कमोड गन्दे पड़े रहे गये.’
उस टिप्पणी के कारण मैंने फौजी समाज से सदा के लिए अपने संबंध समाप्त कर दिये.
ख़ैर, यदि उस कर्नल ने ‘ए पैसेज टु इंडिया’ को गंदा समझा, तो ‘अछूत’ के विषय में वह क्या सोचेगा, जिसमें भारत के एक शहर के भंगी के एक दिन की व्यथा-कथा का वर्णन किया गया है?
यह पुस्तक साफ-सुथरी है या गंदी है? कुछ पाठक जो स्वयं को साथ-सुथरा मानते हैं, इस पुस्तक के दर्जन-भर पृष्ठों को पढ़ने से पहले ही लाल-पीले हो जाएंगे और कुछ भी कहने का दावा नहीं कर सकेंगे. मैं भी यह दावा नहीं कर सकता लेकिन उसका कारण कुछ और है. मुझे तो यह पुस्तक अवर्णनीय स्वच्छ प्रतीत होती है और मेरे पास इस विषय में कहने के लिए शब्द नहीं है. शब्दाडम्बर और वाक् जाल से बचते हुए पुस्तक सीधे पाठक के दिल तक जाती है और उसे शुद्ध कर देती है. हममें से कोई भी शुद्ध नहीं है, यदि होते, तो हम जीवित न होते. निष्कपट व्यक्ति के लिए सब कुछ शुद्ध हो सकता है और यही उसके लेखन की निष्कपटता है, जिसमें लेखक पूर्णतः सफल हुए हैं.
मानव के मल-त्याग करने का व्यवहार भी कैसा अजीब व्यवहार है. प्राचीन यूनानी लोग इसकी कोई परवाह नहीं करते थे. वे बड़े समझदार और प्रसन्न व्यक्ति थे. लेकिन हमारी और भारतीय सभ्यता अत्यंत विलक्षण बन्धनों में बंध गयी है. हमारा बंधन मात्र एक सौ वर्षों पुराना है और हममें से कुछ इसे खोलने का प्रयास कर रहे हैं. हमें बचपन से ही मल त्याग करने को लज्जाजनक लगने का प्रशिक्षण दिया गया है, जिसके कारण अनेक गंभीर बुराइयां पनप गयी हैं-शारीरिक भी और मनोवैज्ञानिक भी. आधुनिक शिक्षा इसका सामना करने का प्रयास कर रही है. भारतीय उलझन कुछ अलग प्रकार की है. अनेक पूर्व-बस्तियों की भांति इस प्रक्रिया को आवश्यक और प्राकृतिक मानते हैं. उनमें इसके प्रति कोई ग्रंथि नहीं है. लेकिन उन्होंने एक वीभत्स दुःस्वप्न विकसित कर लिया है, जिसकी जानकारी पश्चिम को नहीं है.
उनका विश्वास है कि मानव-मल धार्मिक रूप से अस्वच्छ और प्राकृतिक रूप से अरुचिकर है और जो साफ करते हैं, वे समाज से बहिष्कृत है. वास्तव में, मानव-मस्तिष्क किसी भी चीज को घृणित रूप में प्रस्तुत कर सकता है. कोई जानवर इस विषय पर ऐसा कुछ भी नहीं कहेगा, जैसा श्री आनंद के इस उपन्यास ‘अछूत’ का नायक कहता हैः ‘ वे सोचते हैं कि हम गन्दे हैं, क्योंकि हम उनकी गंदगी को साफ करते हैं.’
भंगी किसी गुलाम से भी गया-गुजरा है. कोई गुलाम अपने मालिक और अपने काम को बदल सकता है अथवा स्वतंत्र हो सकता है, लेकिन भंगी सदा-सदा के लिए बंधा हुआ है. उसका जन्म ही ऐसी स्थिति में होता है, जिससे वह छुटकारा नहीं पा सकता और उसे धर्म के आधार पर सामाजिक-संपर्क से बहिष्कृत माना जाता है. उसे अस्वच्छ माना जाता है और जब कभी वह किसी से छू जाता है, तो छू जाने वाले व्यक्ति भ्रष्ट हो जाते हैं. उन्हें स्वयं को स्वच्छ करना पड़ता है और अपने नित्यकर्म को दोबारा से व्यवस्थित करना पड़ता है. जब वह सार्वजनिक मार्ग पर चलता है, तो रूढ़िवादियों के लिए घृणित चीज़ बन जाता है और उसका कर्तव्य होता है कि वह पुकार कर लोगों को चेतावनी दे कि वह आ रहा है. इसमें कोई संदेह नहीं कि गंदगी उसकी आत्मा तक पहुंच जाती है और तब वह स्वयं के बारे में सोचता है कि उन क्षणों में उसे क्या होना चाहिए. कई बार यह भी कहा जाता है कि इतना अप्रतिष्ठित हो जाता है कि वह इसकी परवाह ही नहीं करता लेकिन जिन्होंने उसकी समस्या को सोचा-समझा है, उनकी राय ऐसी नहीं है और मैं भी ऐसा नहीं कहता. मुझे याद है, अपने भारत प्रवास के दौरान मैंने देखा कि भंगी अत्यंत दयनीय दिखाई देते थे, वे दूसरे नौकरों की अपेक्षा अधिक रूपवान होते थे और मैं जिन्हें जानता था, उनमें से एक में कवि जैसी कल्पना भी थी.
अनटचेब्लस (अछूत) का मुखपृष्ठ
अनटचेबल (अछूत) का मुखपृष्ठ.
‘अछूत’ जैसा उपन्यास कोई भारतीय ही लिख सकता है और वह भी ऐसा भारतीय जिसने अछूतों का भली-भांति अध्ययन किया हो.
कोई यूरोपियन भले ही कितना सहृदय क्यों न हो, बक्खा जैसे चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता; क्योंकि वह उसकी मुसीबतों को इतनी गहराई से नहीं जान सकता; और कोई अछूत भी इस पुस्तक को नहीं लिख सकता; क्योंकि वह क्रोध और आत्म-दया में उलझ जाता. प्रस्तुत पुस्तक में लेखक श्री आनंद एक आदर्श स्थिति में हैं. वह क्षत्रिय हैं और यह आशा की जा सकती है कि गंदगी का भाव उन्हें विरासत में नहीं मिला होगा. वह अपने बचपन में उन भंगियों के बच्चों के साथ खेले थे, एक भारतीय रेजिमेंट से सम्बद्ध थे. वह उन बच्चों को पसन्द करते हुए ही पले-बढ़े और उन्होंने उस त्रासदी को समझा, जिसे उन्होंने नहीं भोगा था. उनके पास पूरी जानकारी और तटस्थता का उचित सम्मिश्रण है. वह दर्शन के माध्यम से उपन्यास के क्षेत्र में आये हैं और इसीलिए उन्होंने बक्खा के चरित्र को गाम्भीर्य प्रदान किया है. इस कारण उन पर अस्पष्टता का आरोप भी लगाया जा सकता है, लेकिन उनका नायक कोई कपोल-कल्पना नहीं है, अपितु एक जरा-सा बांका, भव्य, असल भारतीय है. उसका डील-डौल भी विशिष्ट है. उसका चौड़ा एवं बुद्धिमत्तापूर्ण चेहरा, मनोहारी धड़ और भारी नितंब, जो उसके काम करते समय दिखाई देते हैं अथवा जब वह फौजी जूते पहने पैर पटक कर बाहर के बीचों-बीच अपने हाथों में एक कागज में सस्ती मिठाई लिए हुए चहलकदमी करता है.
पुस्तक की योजना साधारण है, लेकिन इसका अपना रूप-स्वरूप है. सारा क्रियातंत्र एक ही दिन में अत्यंत छोटे-से क्षेत्र में पूरा हो जाता है.
छू जाने जैसी अनर्थकारी घटना प्रातःकाल घटित होती है और धीरे-धीरे विष फैलता जाता है. यहां तक कि हॉकी-मैच जैसी सुखद घटनाएं और देहात में घूमना भी पीछे छूट जाता है. अनेक कंटीले उतार-चढ़ाव के बाद हम उस समाधान पर पहुंचते हैं, जहां पुस्तक समाप्त हो जाती है. देखा जाए तो समाधान तीन हैं. पहला समाधान कर्नल सिंह का है-यीशू मसीह. यद्यपि बक्खा का ह्रदय सुनकर द्रवित हो जाता है कि यीशू मसीह जात-पात का लिहाज किये बिना सब लोगों को गले लगा लेते हैं, तथापि वह ऊब जाता है; क्योंकि वह धर्मप्रचारक उसे यह बता ही नहीं पाता कि यीशू मसीह कौन हैं. इसके पश्चात् दूसरा समाधान हैः गांधी. गांधी भी यही कहते हैं कि सब भारतवासी एक समान हैं. गांधी द्वारा यह बताया जाना कि उनके आश्रम में एक ब्राह्मण एक भंगी का काम करता है, बक्सा के ह्रदय को छू लेता है. इसके बाद तीसरा समाधान सामने आता है, जिसे एक आधुनिकतावादी कवि के मुख से कहलवाया गया है. यह समाधान नीरस है, लेकिन सीधा-सादा व स्पष्ट है और अत्यंत विश्वासोत्पादक. अछूतों को बचाने के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं है और न किसी आत्म-बलिदान अथवा त्याग की ही जरूरत है. आवश्यकता है, सीधे-सादे और एक मात्र साधन, 'फ्लश सिस्टम' की. शौचालय बनवाकर और जल-निकासी का उचित प्रबन्ध करके, पूरे भारत में अछूत समस्या जैसी बुराई को समाप्त किया जा सकता है.
कुछ पाठक, जो कुछ घटित हो चुका है उसे पढ़ने के बाद पुस्तक के अंतिम भाग को बकवास कह सकते हैं, लेकिन यह निष्कर्ष ही लेखक को योजना की अनिवार्य अंश है. यह पुस्तक का चरमोत्कर्ष है और इसका तिगुना प्रभाव होगा. बक्खा अपने पिता के पास और अपने उसी गंदे बिस्तर के पास लौट आता है. कभी वह महात्मा गांधी के बारे में सोचता है, तो कभी कुछ और. उसके दिन भी फिरेंगे. आसमान में नहीं, तो धरती पर बदलाव अवश्य आएगा और शीघ्र ही आएगा.

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