आइए, कहानी से शुरुआत करते हैं
SC-ST ऐक्ट पलटने वाले जस्टिस आदर्श गोयल को NGT अध्यक्ष बनाना चाहिए या नहीं!
क्या इतने बरसों से गलती के साथ लागू किया जा रहा था SC/ST ऐक्ट?

साल 2009. महाराष्ट्र के सतारा जिले का कराड इलाका. यहां के सरकारी फार्मेसी कॉलेज में भास्कर करभरी गैडवाड नाम के एक सज्जन स्टोर-कीपर काम करते थे. बाद में उन्हें पुणे के गवर्नमेंट डिस्टेंस एजुकेशन इंस्टीट्यूट में पोस्टिंग दे दी गई. स्टोर-कीपिंग के दौरान भास्कर के सीनियर थे सतीश भिसे और किशोर बुराड़े. ये दोनों कॉलेज की सालाना रिपोर्ट भी बनाते थे, जो गोपनीय होती थी. सतीश और किशोर ने 2005-06 की अपनी रिपोर्ट में लिखा कि भास्कर अपना काम ढंग से नहीं कर पाते और उनका व्यवहार ठीक नहीं है. भास्कर को किसी तरह रिपोर्ट के बारे में पता चल गया और उन्होंने कराड सिटी पुलिस थाने में एक केस दर्ज कराया.

भास्कर, जिन्होंने केस दर्ज कराया था.
भास्कर दलित हैं और सतीश और किशोर सवर्ण. भास्कर ने FIR में लिखवाया कि सतीश और किशोर ने काम नहीं, बल्कि जाति की वजह से उन्हें प्रताड़ित किया. कराड थाने में 3122/ 9 नंबर से ये FIR SC/ST ऐक्ट (प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटिज ऐक्ट 1989) की धारा 3(1) 9, 3(2) (7)6 के तहत दर्ज कराई गई. साथ में IPC की धारा 182 (गलत जानकारी देना), 192 (गलत जानकारी वाले दस्तावेज तैयार करना), 193 (न्याय प्रक्रिया के दौरान गलत सबूत देना), 203 (गलत जानकारी देना) और 219 (सरकारी अधिकारी का न्यायिक प्रक्रिया के दौरान गलत जानकारी देना) भी जोड़ी गईं.
2009 में एक थाने से शुरू हुआ ये मामला 6 साल बाद भास्कर के ऑफिस डायरेक्टर सुभाष महाजन तक पहुंचा. भास्कर ने महाजन पर सतीश और किशोर को बचाने के आरोप में SC/ST ऐक्ट के तहत केस दर्ज कराया. जब महाजन अग्रिम ज़मानत के लिए हाईकोर्ट पहुंचे, तो उन्हें ज़मानत मिल गई. फिर जब वो खुद पर लगे आरोप हटवाने बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंचे, तो 5 मई 2017 को कोर्ट ने महाजन की अर्जी खारिज कर दी. फिर महाजन सुप्रीम कोर्ट पहुंचे.

वो कॉलेज, जहां भास्कर काम करते थे.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में महाजन के खिलाफ FIR हटाने का आदेश दिया. साथ ही, कोर्ट ने SC/ST ऐक्ट में अग्रिम ज़मानत को मंजूरी दी और SC/ST ऐक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी.
क्या कहा था जस्टिस गोयल ने अपने फैसले में
20 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आदर्श कुमार गोयल ने इस केस का फैसला सुनाया. दो जजों की इस बेंच में उनके साथ जस्टिस यूयू ललित भी थे, लेकिन फैसला जस्टिस गोयल की कलम से ही लिखा गया. अपने फैसले में उन्होंने कहा, 'SC/ST ऐक्ट में बिना जांच के गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए. कानून के तहत शुरुआती जांच के बिना गिरफ्तारी नहीं होगी और कोई कार्रवाई करने से पहले पुलिस द्वारा शुरुआती जांच की जानी चाहिए.'

जस्टिस गोयल
और मामला बद से बद्तर कब हुआ
ये केस 9 साल में खत्म हुआ. इन 9 सालों में सुप्रीम कोर्ट पहुंचने तक ये केस भास्कर बनाम सुभाष महाजन से सुभाष महाजन बनाम महाराष्ट्र स्टेट बन चुका था. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने दलितों को नाराज़ कर दिया. इसके नतीजे को यूं देखा गया कि दलितों के पास अपने बचाव का जो मज़बूत कानूनी हथियार था, उसे छांट दिया गया. इसके खिलाफ 2 अप्रैल को दलितों ने भारत-बंद किया, जिसमें मरने वालों का सरकारी आंकड़ा 11 है. फिर जब फैसला सुनाने वाले जज साहब को NGT (राष्ट्रीय हरित अधिकरण) का अध्यक्ष बनाया गया, तो बहस और तीखी हो गई.

जस्टिस गोयल की नियुक्ति के प्रस्ताव का लेटर
जस्टिस गोयल के पास कहने के लिए और भी बहुत कुछ था
7 जुलाई 2014 को अपने जन्मदिन पर सुप्रीम कोर्ट में कार्यभाल संभालने वाले जस्टिस गोयल 2018 में अपने जन्मदिन से एक दिन पहले रिटायर हो गए और इसके कुछ ही घंटों बाद उन्हें NGT का अध्यक्ष बना दिया गया. वो संस्था, जिसमें सरकार किसी की नियुक्ति तो कर सकती है, लेकिन किसी को उसके पद से हटा नहीं सकती. पर्यावरण मामलों की अदालत, जिसे कुछ मामलों में हाईकोर्ट जितने अधिकार हासिल हैं. नियुक्ति की घोषणा वाले दिन जस्टिस गोयल ने कहा,
'SC/ST ऐक्ट की सुनवाई के दौरान मेरे दिमाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचलने के लिए इमरजेंसी के दौरान की गईं गलतियां थीं. ये फैसला मैंने दिया है. आमतौर पर जज फैसलों पर नहीं बोलते, लेकिन मैं बोल सकता हूं. इसमें अग्रिम ज़मानत न मिलने का प्रावधान था. क्या किसी निर्दोष व्यक्ति को अरेस्ट किया जा सकता है? अगर ऐसा हो, तो अदालतों का क्या काम?'

जस्टिस गोयल
और इस प्रकरण में दलितों के रहनुमाओं का क्या स्टैंड है
अब मुद्दा SC/ST ऐक्ट पर आए फैसले से बढ़कर जस्टिस गोयल की नियुक्ति पर आ गया है. देश की मौजूदा NDA सरकार में हिस्सेदार कई राजनीतिक दल मांग कर रहे हैं कि जस्टिस गोयल की नियुक्ति रद्द की जाए. ये मांग किससे की जा रही है, ये भी स्पष्ट है. 23 जुलाई की शाम लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के घर दलित सांसदों की मीटिंग हुई, जिसमें तय किया गया कि इस नियुक्ति का विरोध किया जाएगा. सांसदों का सवाल है कि जिन जज ने SC/ST ऐक्ट के खिलाफ फैसला सुनाया, उन्हें रिटायरमेंट के तुरंत बाद NGT का अध्यक्ष क्यों बनाया जा रहा है.

केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान
रामविलास पासवान ने इस बारे में गृहमंत्री राजनाथ सिंह को पत्र लिखा. उनके बेटे चिराग पासवान ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा. राष्ट्रीय समता पार्टी के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा कह रहे हैं, 'हम आश्वासन देते हैं कि भारत सरकार के फैसले से लोगों को कोई परेशानी नहीं होगी. अगर होती है, तो हम अध्यादेश लाकर या संसद से कानून बनाकर दलितों का अहित नहीं होने देंगे. उसी जज को NGT जैसी जगहों में पद देने से लोगों में गलत संदेश गया है, इसीलिए सबने उन्हें हटाने की मांग की है. मैं भी इस मांग का समर्थन करता हूं.' खुद बीजेपी के उदित राज और रिपब्लिकन पार्टी के अध्यक्ष रामदास आठवले भी इन्हीं सुर में बात कर रहे हैं.

नरेंद्र मोदी के साथ रामदास आठवले
पर क्या इन्हें वाकई दलितों के हितों की चिंता है
वैसे जब बीजेपी के सहयोगियों की नाराज़गी की बात हो ही रही है, तो लगे हाथों ये भी याद कर लिया जाए कि संसद में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान इन नेताओं ने कैसे मौजूदा सरकार की तारीफें पढ़ी थीं. तब कहा जा रहा था कि इस सरकार ने दलितों को और मज़बूत करने का काम भी किया है. लेकिन आज ये सांसद दलितों पर बढ़ते हमलों, आरोपियों के पकड़े न जाने और नेशनल सिक्यॉरिटी ऐक्ट के तहत बंद दलितों को न छोड़ने का मुद्दा उठा रहे हैं. सदन और सदन के बाहर इन नेताओं की भाषा, लहज़ा और शब्द अलग-अलग हैं. वो भी तब, जब ज़ाहिर है कि सदन के अंदर बोली गई बात का वजन ज़्यादा है. बाहर आप कुछ भी कहते रहिए.

सदन में नो कॉन्फिडेंस मोशन के दौरान की एक तस्वीर
और इस विरोध प्रदर्शन की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
जस्टिस गोयल की नियुक्ति के विरोध में देश के कई दलित संगठनों ने 9 अगस्त को प्रदर्शन का अह्वान किया है. बीजेपी के ये सहयोगी नेता भी इस प्रदर्शन में शामिल होने की धमकी दे रहे हैं. याद रहे कि 2 अप्रैल को शुरू हुए प्रदर्शन के निशान अभी तक बाकी हैं. उसकी वजह से लोग अभी तक जेल में बंद हैं. अब सरकार ऐसे ही एक और प्रदर्शन को हवा दे रही है, जिसका अंज़ाम किसी को पता नहीं है. सरकार तब भी बवाल रोकने में विफल रही थी और इस बार तो उसके अपने सहयोगी प्रदर्शन में शामिल होना चाहते हैं.

इस फैसले के खिलाफ दलित संगठनों ने पूरे देश में विरोध प्रदर्शन किया था.
NGT छोड़िए, जस्टिस गोयल के फैसले का ही पोस्टमॉर्टम कर लीजिए
जस्टिस गोयल के फैसले का समर्थन करने वाले तर्क करते हैं कि SC/ST ऐक्ट का दुरुपयोग किया जा रहा है. दलित किसी को परेशान करने या दुश्मनी निकालने के लिए भी इस धारा के तहत केस दर्ज करा देते हैं. कई मौकों पर सवर्णों ने अपनी दुश्मनी निकालने के लिए दलितों के ज़रिए इस ऐक्ट को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया.
जस्टिस गोयल के फैसले के विरोध में तर्क रखे जाते हैं कि दलितों को तो वैसे भी केस दर्ज कराने में तमाम तरह की दिक्कतें आती हैं. थाने वगैरह में उनकी सुनवाई कम होती है. ऐसे में सदियों से चले आ रहे छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ उनके पास एक ही हथियार था, जिसकी धार भी कुंद कर दी गई.
लेकिन ये दोनों ही तर्क बेहद आम हैं, जो दलितों के हालात और SC/ST ऐक्ट की थोड़ी भी जानकारी रखने वाला शख्स बता सकता है. लेकिन असल सवाल सरकार की मंशा और हमारे सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने का है. इसे समझने के लिए हमने वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया से बात की, जो इसकी बेहद सरल व्याख्या करते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया
अनिल याद करते हैं कि चाहे SC/ST ऐक्ट हो या महिलाओं के दहेज-प्रताड़ना संबंधी कानून, सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कुछ वक्त में कई मामलों में कानून की नई व्याख्याएं पेश की हैं. SC/ST ऐक्ट स्पेशल ऐक्ट है, जिसे संसद में लंबी बहस और विमर्श के बाद बनाया गया. और आज एक केस के फैसले में इसके एक महत्वपूर्ण हिस्से को काटकर अलग कर दिया गया. इसे समाज के वंचित वर्ग के फायदों से नाराज़ होने वाले वर्चस्ववादी समूह के दबाव के तौर पर भी देखा जा सकता है.
जस्टिस गोयल और भारत सरकार के बीच कोई कनेक्शन है?
अनिल बताते हैं कि किसी भी जज की नियुक्ति कोलोजियम से होती है, जिसमें सरकार से राष्ट्रपति तक शामिल होते हैं. ऐसे में नियुक्त हो चुके किसी जज की मंशा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता. लेकिन भारत में निश्चित तौर पर भारतीय मानसिकता काम करती है. आप किसी भी पद पर हों और आप कोई भी फैसला करें, ये छाप हमेशा दिखती है. जैसे इस फैसले में संसद द्वारा पारित कानून की व्याख्या को पलट दिया गया, क्योंकि कानून के बारे में अनदेखा शुबहा है.

जस्टिस यूयू ललित (बाएं) और जस्टिस एके गोयल. इन्हीं की बेंच ने एससी-एसटी ऐक्ट पर फैसला सुनाया.
जस्टिस गोयल और भारत सरकार के बीच कोई सीधा कनेक्शन नहीं स्थापित नहीं है. लेकिन जिस तरह अटॉर्नी जनरल ने इस केस में सरकार का पक्ष रखने के बजाय, ऐक्ट की हिमायत करने के बजाय दूसरे पक्ष पर मोहर लगाई और जिस तरह जस्टिस गोयल की रिटायरमेंट के तुरंत बाद NGT अध्यक्ष के तौर पर नियुक्ति की गई, वो अपने-आप में पर्याप्त है.
कोर्ट में आंकड़े चलते हैं, पर इन्हें पढ़ा किस नज़रिए से जाएगा?
सच्चाई ये है कि मौजूदा वक्त में दलितों के खिलाफ हमले और अत्याचार बढ़े हैं और सरकार उन्हें सुरक्षा दे पाने में नाकाम रही है. उधर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पुलिस का एक आंकड़ा दिया कि 2016 में दलितों के उत्पीड़न के कुल मामलों में 5,347 और आदिवासियों के उत्पीड़न के कुल मामलों में 912 शिकायतें झूठी निकलीं. वहीं 2015 में 15,638 केसेज़ में से 11,024 केसेज़ में या तो सज़ा नहीं हुई या आरोपी को दोष-मुक्त कर दिया गया. 495 केस वापस ले लिए गए. सिर्फ 4,119 केसेज़ में सज़ा हुई. ये आंकड़े सुप्रीम कोर्ट में दुरुपयोग के नज़रिए से देखे गए.
पर इन आंकड़ों को एक ही नज़रिए से क्यों देखा जाए? इसे दलितों को न्याय दिलाने में सिस्टम की नाकामी क्यों न कहा जाए. और जब हम आंकड़ों की बात कर ही रहे हैं, तो सुप्रीम कोर्ट के वकील संतोष कुमार के आंकड़े क्यों न देखें. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हवाले से संतोष बताते हैं कि 2014 में दलितों के खिलाफ 47,064 अपराध हुए. यानी हर घंटे पांच से ज़्यादा अपराध. गंभीरता के लिहाज़ से देखें, तो हर दिन दो दलितों की हत्या हुई और हर दिन छ: दलित महिलाओं से बलात्कार हुआ. 2004 से 2013 तक 6,490 दलितों की हत्या हुई और 14,253 दलित महिलाओं से रेप हुआ.
फैसले पर राजनीति हो रही है या फैसला ही राजनीतिक है
इस बहस में अनिल चमड़िया एक और दिलचस्प सीन याद दिलाते हैं. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान वोट मांगने के लिए घर-घर संपर्क कर रहे भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं ने लोगों को आश्वासन दिया था कि उनके नेता SC/ST ऐक्ट में बदलाव के लिए प्रयास करेंगे. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को वो अपनी सफलता भी बता सकते हैं, लेकिन इस ऐक्ट को कमज़ोर करने के बाद उनके पास दलितों की भलाई का कोई और तरीका है क्या?
यहां जस्टिस गोयल के रिटायर होने के बाद के बयान पर भी गौर किया जाना चाहिए. वो कहते हैं कि इस केस का फैसला सुनाते समय उनके दिमाग में इमरजेंसी का ख्याल था. यकीनन इमरजेंसी इस देश का एक काला अध्याय है, जब ढेर सारे बेकसूरों के साथ गलत हुआ. लेकिन इसकी तुलना SC/ST ऐक्ट से कैसे की जा सकती है. ये ऐक्ट तो लाया ही इसी वजह से गया कि सदियों से जिनके खिलाफ अत्याचार हो रहा था, उनके घाव पर नीम रखी जा सके. वैसे भी हमारे मुल्क में इमरजेंसी किसी बुरी घटना से ज़्यादा '60 साल वाली कांग्रेस सरकार का दमन' है.

भारत में इमरजेंसी की दो सूरतें
इमरजेंसी की तुलना एक कानून के साथ कैसे की जा सकती है, जिसे लागू कराने के लिए संसद में इमरजेंसी के स्तर पर काम किया गया हो.
NGT के भले के लिए जस्टिस गोयल के रिटायरमेंट की राह देख रही थी सरकार!
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण अधिनियम 2010 द्वारा स्थापित NGT वो संस्था है, जो पर्यावरण संबंधी कानून लागू कराने और पर्यावरण संबंधी मामलों में फैसले सुनाने का काम करती है. 20 दिसंबर 2017 को जस्टिस स्वतंत्र कुमार के रिटायर होने के बाद से इसके अध्यक्ष का पद 6 महीने से ज़्यादा वक्त से खाली था. जस्टिस स्वतंत्र के रिटायरमेंट के बाद जस्टिस उमेश दत्तात्रेय साल्वी को NGT का कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया. वो 13 फरवरी को रिटायर हो गए, जिसके बाद जस्टिस जवाद रहीम को कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया. मौजूदा वक्त में NGT में वायु प्रदूषण, गंगा-यमुना की सफाई, वैष्णो देवी और दिल्ली में पुनर्विकास संबंधी कई योजनाएं लंबित हैं. इतना काम रहते हुए भी अभी NGT के 20 से ज़्यादा स्वीकृत पद खाली हैं.
दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का दावा करने वाली पार्टी के सबसे बड़े नेता, जो इस वक्त देश का निज़ाम है, से मांग की जा रही है कि वो सरकार के एक फैसले को वापस लेते हुए. जबकि उसके अतीत में पैर पीछे खींचने के उदाहरण ढूंढने पर ही मिलते हैं. फिर चाहे कितना ही नुकसान क्यों न हो जाए.
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