The Lallantop

'मम्मा! आपने कभी पापा के अलावा किसी और को आइ लव यू बोला है?'

माया सिंह की ‘मम्मा का मुअम्मा’ पुस्तक से 'पूर्वपीठिका' और एक कहानी.

post-main-image
चूंकि बच्चों के लिए सारी दुनियां ही नई होती है, उनकी जिज्ञासाओं का विस्तार भी चींटी से ले कर चांद तक होता है. इतनी बड़ी प्रयोगशाला में किसी बच्चे की तलाश या वैश्विक दृष्टिकोण किस दिशा में अभिव्यक्त होगी, यह बहुत हद तक उसके आस पास के लोगों और परिवेश पर भी निर्भर करता है.
Maya Singh - Photo
माया सिंह

दरअसल इस किताब ‘मम्मा का मुअम्मा’ की शुरुआत एक मां द्वारा अपने बच्चे के मासूम और रोचक सवालों को डायरी में दर्ज करने से हुई थी. मुअम्मा का मतलब होता है पहेली (puzzle) या रहस्य. साधारणतया हर बच्चे के मन में इतनी जिज्ञासाएं होती हैं कि बड़े लोगों के लिए उनका समाधान देना मुश्किल हो जाता है. प्राकृतिक रूप से उनके इन अनंत सवालों का शिकार होती हैं माएं, जिन पर वे सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं.
इतना ही नहीं, बच्चे अपने आस-पास जो कुछ भी देखते हैं उसके आधार पर अपनी सोच विकसित करते हैं. इस क्रम में कई बार उनकी मासूमियत स्थिति को बेहद मजेदार बना देती है. पहले पहल मेरा उद्देश्य केवल अपने बच्चे की बातों को छोटी-छोटी कहानियों के रूप में संस्मरण के तौर पर संभाल कर रखना था. परंतु समय के साथ इस संस्मरण ने खुद ही एक रोचक किताब का रूप लेना शुरु कर दिया.
अब तक मौजूद किसी भी साहित्य से यह किताब इस मायने में अनोखी है कि यह छोटी-छोटी मनोरंजक कहानियों के माध्यम से बच्चों की अवलोकन (ऑब्जरवेशन) क्षमता, तर्क-शक्ति तथा शब्द-संयोजन के विकास का विवेचन करती है. इस लिहाज से यह पुस्तक बाल मनोविज्ञान और बाल सामाजिकी के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है.
इस किताब के केंद्र में एक बच्चा ‘कीनू’ है जो दिन रात सवाल पूछता है और एक मां है जिसे धैर्य के साथ लगातार बच्चे के प्रश्नों का जवाब देना होता है. मां को दो बातों का ध्यान हमेशा रखना पड़ता है – एक तो यह कि अगर एक ही विषय पर अलग-अलग दिन कुछ पूछा जाये तो उत्तर विरोधाभाषी नहीं हों. और दूसरा खतरा ये कि कहीं मिलने वाले जवाब से बच्चे के दिमाग में तुरंत तीन-चार सवाल और न आ जाएं.
MKM - 1
ये संग्रह मैंने तब लिखना शुरू किया जब मेरे दोनों बच्चे छोटे थे. उम्र के हिसाब से दो बच्चों की अलग-अलग जरूरतों, परिवार की जिम्मेदारियां और अपनी महत्वाकांक्षाओं के बीच तालमेल बैठाना थोड़ा मुश्किल लग रहा था. लेकिन सबसे ज्यादा मुश्किल लग रहा था बड़े होते बच्चे के मन में दोगुनी रफ़्तार से बढ़ती जिज्ञासाओं का समाधान करना.
और फिर एक अच्छी मां माने जाने वाले मेरे अहम् को धक्का तब लगा जब बेटे ने शिकायत करनी शुरू कर दी कि मम्मा तो अब मेरे साथ खेलती ही नहीं है, और ज्यादा बात भी नहीं करती. यह एक कड़वा सच था, जिसको स्वीकार करते हुए मैंने थोड़ी भरपाई करने की कोशिश की. जब कोशिश करके मैंने उससे बातें करनी शुरू की तो इतना मजा आने लगा कि एक-दो वार्तालाप तो मैंने बिना कुछ सोचे याद रखने लिए लिख लिया. लेकिन ये सिलसिला जैसे-जैसे आगे बढ़ा मुझे लगने लगा कि ये जिंदगी में किया गया मेरा सबसे अच्छा काम हो सकता है.
उषा सिंह
उषा सिंह

बच्चों की बातचीत पर आधारित होने के कारण बिलकुल सरल भाषा तथा बीच-बीच में अंग्रेजी के शब्दों का भी इस्तेमाल स्वाभाविक है. साथ ही हर कहानी के साथ जुड़े कार्टून्स इसको और ज्यादा रोचक और मजेदार बनाते हैं. किताब को पूर्णता प्रदान करने के लिए मैंने इसमें कीनू के अलावा दूसरे बच्चों की अजीबोगरीब उलझनों को भी जोड़ने की कोशिश की है.
हालांकि ये किताब मैंने अपने बेटे से बात-चीत के आधार पर लिखी है, मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूं कि ये केवल एक खास बच्चे की कहानी नहीं है. जहां माता-पिता इस किताब में दर्ज घटनाओं को पूरी तरह से आत्मसात कर पाएंगे वहीं यह लगभग हर उम्र के पाठकों का मनोरंजन कर सकती है. हर बच्चे के मन में हजारों सवाल आते हैं और वे हर समय जवाब की तलाश में रहते हैं. प्रत्येक नई चीज या नई घटना को अपने शब्दकोष के अन्दर परिभाषित करने की कोशिश करते हैं.
इतना ही नहीं, बच्चे अपनी कल्पना-शक्ति का पूरा उपयोग कर पाते हैं. हम-लोग जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं वैसे-वैसे जानकारियां हमारी कल्पना करने की शक्ति पर हावी होती जाती हैं. प्रॉब्लम ये है कि एक समय ऐसा आता है जब हम दूसरों की कल्पनाशक्ति को भी स्वीकार नहीं कर पाते हैं - खासकर अपने बच्चों की, जिनको दुनियां की सारी वास्तविकताएं जल्दी से जल्दी समझा देना हमारा काम होता है. जबकि सच तो यह है कि जानकारियों में पूरी तरह बंध जाने कि बजाय अगर हम बड़े लोग भी कभी-कभी उनके साथ मिल कर उनकी तरह सोचने की कोशिश करें तो हर चीज को बिलकुल नई रौशनी में देख पाएंगे.
साथ ही समय रहते अगर हम लोग बच्चे की जिज्ञासाओं के आधार पर उनके मानसिक स्तर को समझ कर आगे बढ़ने में उनका साथ दें तो शायद कम्पटीशन के युग में उनकी राहें थोड़ी और दिलचस्प हो जाएं.


अंडे या बच्चे!

बड़ी बहस है इस बात की कि बच्चों के सवालों के जवाब सही-सही देने चाहिए, या बच्चों जैसे जवाब देने चाहिए, या फिर उन्हें चुप ही कर देना चाहिए. एक दिन मैंने सोचा कि आज अपने छह साल के बेटे कीनू के हर सवाल का जवाब दूंगी. पर मुझे कहां पता था कि वो उस दिन क्या पूछेगा…
बातों-बातों में उसने पूछ दिया, ‘मम्मा जब आपकी शादी पापा से नहीं हुई थी तब आप पापा  को पहचानते थे या नहीं?’

‘नहीं,’
मैंने कहा. यह सच था. हमारी शादी घरवालों की मर्जी से, और हम दोनों की मर्जी के खिलाफ हुई थी.
‘जब पापा को जानते नहीं थे तब आप उनसे प्यार भी नहीं करते थे?’
ये था उसका अगला सवाल.
‘नहीं बेटा.’
मुझे थोड़ी हैरानी भी हुई कि आज इस छोटे से बच्चे के दिमाग में क्या चल रहा है. जवाब जल्दी ही मेरे सामने था.
‘मम्मा! आपने कभी पापा के अलावा किसी और को आइ लव यू बोला है?’

MKM - 2
‘हां बेटा! तुम्हें कहा है और किग्गू को भी. मेरे मम्मी पापा भाई बहन सबको बोला है,’
मैंने सच कहा. हालांकि ये बात भी काबिल-ए-गौर है कि मैंने कीनू  के सामने उसके पापा को आइ लव यू बोला है या फिर ऐसा उसने खुद ही मान लिया है. इससे पहले कि मैं यह बात याद कर पाती, उसने अगला सवाल पूछा.
‘आपने अपने फैमिली मेम्बर्स के अलावा किसी को कभी आई लव यू बोला है - जैसे किसी अंकल या अपने किसी फ़्रेंड को?’

मैं चुप हो गयी. सुना है बच्चों से झूठ नहीं बोलना चाहिए. पर वो कहां पीछा छोड़ने वाला था! ‘मम्मा बताइए न.’

‘नहीं,’
मैंने कहा. ‘कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. हम जिसको बहुत ज्यादा प्यार करते हैं उसी को तो आई लव यू बोलते हैं न!’

‘ओके.’
कीनू मेरे इस जवाब से कितना संतुष्ट हुआ वो तो मुझे पता नहीं लेकिन उसके ‘ओके’ कहने का अंदाज बिलकुल वैसा ही था जैसा मैं तब कहती हूं जब मुझे अपनी बात कहने से पहले उसकी बात सुनने का नाटक करना पड़ता है. ऐसा ‘ओके' कहने की आदत समय के साथ लगभग हर माता पिता को हो जाती है. बहरहाल जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि कीनू ने अगला सवाल पूछने की उत्सुकता में ये वाला विषय खत्म कर दिया था.
‘पता है मम्मा मैं तो डर ही गया था. जब आपकी एनिवर्सरी आने वाली थी, मुझे लगा मुझे वापस आपके पेट में जाना पड़ेगा. फिर आप पापा से शादी करोगे और मैं फिर से बाहर आऊंगा.’

‘नहीं बेटा ऐसा नहीं होता. ये तो सालगिरह है. आप अपने बर्थडे पर बार-बार पैदा थोड़े ही न होते हो. एक बार जन्म ले लिया और अब बार-बार उस दिन को सेलिब्रेट करते हो.’ मैंने अपनी हंसी रोकते हुए जवाब दिया.

जब कीनू ये सब पूछ रहा था तब मैं उसके लिए किचन में ऑमलेट बना रही थी. उसने कहा काश इस अंडे में से चूजा निकल आता और मैं उसके साथ खेल पाता. ‘नहीं कीनू! ये खाने वाले अंडे हैं, इनमें से चूजे नहीं निकलते बेटा.’

MKM - 3
तभी कीनू की नजर खिड़की पर बैठे बंदर और उसके बच्चे पर पड़ी. भला हो असम के लोगों का जिन्होंने जंगल और उसमें रहने वाले जानवरों का इतना ख्याल रखा है. हालांकि उस समय तो मुझे ऐसा लगा कि यह मेरे खिलाफ कोई षड़यंत्र है, जिसमें सारी प्रकृति कीनू का साथ दे रही है मेरे दिमाग का दही जमाने में.
‘लेकिन मम्मा बंदर के बच्चे कैसे बाहर निकलते हैं? उनके अंडे तो होते ही नहीं हैं!’
उसने यह बेहद साधारण सा सवाल किया.
‘जैसे तुम और किग्गू मम्मा के पेट से बाहर आए वैसे ही,’
मैंने मामले को डिप्लोमेटिक तरीके से सुलझाना चाहा. मुझे बिलकुल अंदाजा नहीं था कि इसके बाद मैं कितनी बुरी तरह फंसने वाली थी.
‘लेकिन मम्माआआ! आपके पेट से तो हमें डॉक्टर अंकल ने बाहर निकाला. उनके पेट से बच्चे को कौन निकालता है?’

अब मुझे रोना आ रहा था. क्या छह साल के इस बच्चे को अब मुझे प्रजनन प्रक्रिया समझानी होगी? उसको इतना तो पता था कि डॉक्टर अंकल ने किग्गू को मम्मा का पेट काट कर बाहर निकला है. लेकिन नॉर्मल डिलीवरी के बारे में उसे कैसे बताती!
‘जानवरों के भी डॉक्टर होते हैं कीनू तुमने देखा नहीं जब महक दीदी का डॉग सिम्बा बीमार होता है तो वे लोग उसको वेटेनरी डॉक्टर के पास ले जाते हैं!’
मैं अपने स्तर पर लॉजिकल जवाब देने की भरपूर कोशिश कर रही थी.
‘लेकिन ये बन्दर तो किसी के Pet (पालतू) नहीं हैं न मम्मा! इनको कौन ले जाता होगा?’
उसका प्रश्न भी बिलकुल जायज था.
‘वो खुद ही चले जाते हैं कीनू,’
मैं और क्या कहती.
‘लेकिन मम्माआआ! मुझे नहीं लगता इनको किसी हॉस्पिटल का एड्रेस पता होगा.’

तो क्या मुझे अपना सर फोड़ लेना चाहिए!
‘थोड़े बड़े तो हो जाओ बेटा फिर सब बता दूंगी. कैसे समझाऊं. अभी मैं तुम्हें हर बात नहीं समझा पाऊंगी,’
मैंने अपने आप को संभालते हुए कहा.
MKM - 4
‘मम्मा आप कोशिश तो करो. आप कर सकते हो. कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.’
मेरे बेटे की इस भारी-भरकम संवाद की पहली दो पंक्तियां वही थी जो मैं हमेशा उसको बोलती थी. और तीसरी पंक्ति का श्रोत था उसका फेवरेट कार्टून निंजा हथोडी.
‘कीनू इतना क्यूं बोलते हो? इतना नहीं बोलना चाहिए बेटा. ज्यादा बोलने वाले बुद्धू हो जाते हैं. अभी चुप हो कर अपना खाना खतम कर लो,’
मैंने अपना संयम खोना शुरू कर दिया था.
मेरी इस बात ने उसे डरा ही दिया था शायद. कीनू बिलकुल चुप हो गया. कुछ सोच में भी पड़ गया था. मैं खुश थी.
दो मिनट बाद…..
‘मम्मा आज तक कौन कौन बोलते-बोलते बुद्धू हो गया है?’
नाम तो बहुत सारे आए दिमाग में, लेकिन मैंने यह सोच कर अपनी जुबान को लगाम दिया कि यह बोलू बच्चा जा कर किसी को बता ही न आये कि आप कम बोला करो; मम्मा ने कहा है आप बोलते-बोलते बुद्धू हो गए हो.
‘नाउ शट अप एंड गेट लॉस्ट कीनू. अब मैं तुम्हारी किसी बात का जवाब नहीं दे रही.’

बच्चों की परवरिश पर हजार लेक्चर देने और सुनने के बाद भी हमलोग अपना संयम खो ही देते हैं. लेकिन अभी तक तो कीनू ने केवल जन्म से संबंधित सवाल पूछे थे. इससे कुछ और भी जटिल प्रश्न बाकी थे.


पुस्तक का नाम: मम्मा का मुअम्मा
लेखक: माया सिंह
छायांकन: उषा सिंह
ऑनलाइन उपलब्धता: उपलब्ध (अमेज़न)

मूल्य: सौ रुपए मात्र


एक कहानी रोज़ में पढ़िए कुछ कहानियां:

'तेरा बाप अभी मरा नहीं, तू क्यूं चिंता करता है?'

'वयस्क फ़िल्मों में दिखाए गये प्रेम करने के तरीकों को व्यवहार में न लाइए'

'गुदड़ी के अंदर घुसकर, फेसबुक में 'इट्ज़ चिलिंग' अपडेट करना हर किसी का सौभाग्य नहीं!
'