22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकी हमले में एक बड़ा एंगल पर बात शुरू हो गई है. हमने आपको पहले भी बताया था कि पाकिस्तान के चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल आसिम मुनीर की इस पूरे हत्याकांड में क्या संलिप्तता हो सकती है. अब सूत्रों के हवाले से आ रही खबरों की मानें, तो पहलगाम में हुआ हमला पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI उर्फ Inter-services Intelligence के कश्मीर डेस्क की प्लानिंग के बाद संभव हो सका. इस डेस्क के इंचार्ज ब्रिगेडियर फैसल ने पहलगाम अटैक का पूरा प्लान बनाया. और उसको अमली जामा पहनाने में जरूरी मदद मुहैया कराई.
ड्रग्स, रेप, बमबाजी... ISI के काले कारनामे, ऐसी गंदी एजेंसी दुनिया में कहीं नहीं!
पहलगाम में हुए हमले में बहुत सारे मास्टरमाइंड सामने आए. काम का आदमी एक ही था - ISI के कश्मीर डेस्क का इंचार्ज ब्रिगेडियर फैसल. कहानी आई, और फिर इस ISI के गंदे कामों की लिस्ट खुल गई. जानते हैं पूरी कहानी.
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लेकिन ये हुआ कैसे? ISI ने किस तरीके से इस पूरे अटैक की प्लानिंग की होगी? इसको जानने के लिए आपको जाननी होगी ISI की पूरी कहानी. तभी हम आपको इस कहानी के रेशे समझा सकेंगे.
पाकिस्तान की पहली शिकस्त और शुरू हो गया ISIसाल 1947. आपको मालूम ही है कि इस साल देश में दो बड़ी घटनाएं होनी थीं. आज़ादी और बंटवारा. खाके तैयार किये जा रहे थे. कौन-सा जिला, कौन-सा इलाका किस देश के पास रहेगा? संसाधन कैसे बंटेंगे? सेना कैसे बंट सकेगी? ये सब माथापच्ची ब्लैक एंड व्हाइट में हो रही थी. अधिकतर चीजों का तो इलाज निकल गया, लेकिन बात एक व्यक्ति के बंटवारे पर आकर अटक गई. व्यक्ति का नाम - मेजर जनरल वाल्टर जोसेफ कॉथॉर्न. कॉथॉर्न, वैसे तो ऑस्ट्रेलिया के रहने वाले थे, लेकिन आजादी के पहले तक ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सेवाएं दीं. वो फौज की मिलिट्री इन्टेलिजेंस विंग देखते थे. बंटवारा हुआ, तो वो किस देश के पास रहेंगे, इस पर बहस होने लगी. और आखिर में तय हुआ कि कॉथॉर्न पाकिस्तान जाएंगे.

ऐसा हुआ भी. अपना देश चुनने चले लोगों के साथ जो पाकिस्तानी सैनिकों का जत्था चल रहा था, उसमें कॉथॉर्न साहब भी थे. जब पाकिस्तान पहुंचे, तो वहां की फौज में नौकरी मिली.
लेकिन विभाजन के समय न सुलझने वाली गुत्थी की लिस्ट में कॉथॉर्न अकेले नहीं थे. देश के बंटवारे के समय से ही पाकिस्तान की ग्रंथि जम्मू-कश्मीर में अटकी रही. उसका कहना था कि इस राज्य की आबादी मुस्लिमबहुल है, इसलिए इसका हक पाकिस्तान को मिलना चाहिए. और भारत इसको छोड़ना नहीं चाहता था. आखिर में सारी बात आकर टिक गई थी जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह पर. राजा साहब इस पशोपेश में थे कि वो भारत के साथ जाएं या पाकिस्तान के साथ. या एक अलग देश बनें. आखिरी फैसला उनका ही था. लेकिन राजा हरि सिंह को बहुत वक्त नहीं मिला. बंटवारे के कुछ ही महीनों बाद पाकिस्तान की आर्मी से समर्थित पश्तून कबीलाई लड़ाकों ने जम्मू-कश्मीर पर कब्जे के लिए अटैक कर दिया. हरि सिंह ने भारत में शामिल होने के काग़ज़ों पर दस्तखत किये, तब जाकर भारतीय सेना ने मोर्चा सम्हाला. और पाकिस्तान का सामना किया. इंडियन आर्मी ने खदेड़ना शुरू किया तो पाकिस्तान पीछे हटा. पाकिस्तान का पूरा प्लान फेल कर गया.` लेकिन वो अपनी अंतरराष्ट्रीय सीमा यानी रैडक्लिफ़ लाइन से आगे बढ़कर भारत के अंदर घुसकर बैठा रहा. भारत और पाकिस्तान ने युद्ध रोकने का फ़ैसला लिया. जहां युद्ध रुका, उसे सीजफायर लाइन कहा गया. बाद में साल 1972 के शिमला समझौते में थोड़े बदलावों के साथ इसी सीज़फायर लाइन को लाइन ऑफ कंट्रोल कहा गया.

बात वापिस लाते हैं 1947 वाले युद्ध पर. इसमें पाकिस्तान नया देश था तो कोई इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद था नहीं. लिहाजा वो सिविल सेवाओं में लगे इंटेलिजेंस ब्यूरो के भरोसे बैठा हुआ था. युद्ध में शिकस्त मिली तो पाकिस्तान को लगा कि एक ऐसा सिस्टम होना चाहिए, जो डिफेंस से जुड़ा हो. आर्मी, नेवी, एयरफ़ोर्स, IB और मिलिट्री इंटेलिजेंस में बेहतर सामंजस्य हो. लिहाजा, ऐसा सिस्टम डिज़ाइन करने की जिम्मेदारी दी गई मेजर जनरल कॉथॉर्न को. इस समय कॉथॉर्न पाकिस्तान की आर्मी के डिप्टी चीफ ऑफ स्टाफ हो चुके थे. कॉथॉर्न की इस पूरी प्लानिंग और तैयारी में छककर साथ दिया पाकिस्तानी सेना के ब्रिगेडियर सैयद शाहिद हामिद ने. कुछ दिनों की मेहनत के बाद दोनों अधिकारियों ने एक एजेंसी की नींव रखी. जिसके नाम से ही समझ आता था कि ये तमाम सर्विसेज़ के बीच सूचनाओं का एक चैनल बनाएगा. नाम - Inter-services intelligence उर्फ ISI. काम तय हुआ - घरेलू सर्विलांस करना, सूचना जुटाना और काउंटर-इंटेलिजेंस ऑपरेशन चलाना.
दुनिया की सबसे कुख्यात एजेंसी का जन्म हो चुका था.
साल 1950 में इस एजेंसी की कमान मिली कॉथॉर्न को. उन्होंने ISI के काम में विस्तार किया. घरेलू और विदेशी खुफिया सूचनाओं के लिए अलग-अलग विंग बनाए. मिलिट्री इंटेलिजेंस को शामिल किया गया. एक रोबस्ट सिस्टम तैयार हो चुका था. इस सिस्टम को तीन फ्रन्ट पर लगातार एक्टिव रहना था - भारत से जुड़ी सीमा, अफगानिस्तान से जुड़ी सीमा और अपने देश के भीतर चल रहे छोटे-बड़े आंदोलन.
ISI के मुंह खून लग गयाISI को उसके असली दांत मिले साल 1958 में. इस साल अक्टूबर के महीने में पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल अय्यूब खान ने इसकन्दर अली मिर्जा की गद्दी का तख्तापलट किया. पाकिस्तान में सेना का राज स्थापित हुआ. प्रेसिडेंट बने खुद अय्यूब खान. ये पाकिस्तान के इतिहास में होने वाला पहला सैन्य तख्ता पलट था. इस तख्तापलट के साथ ही वहां की सेना पूरी तरह से ISI के अधीन हो गई. जिस एजेंसी का आविष्कार देश की सुरक्षा के लिए हुआ था, वो एजेंसी सिर्फ सेना के लिए काम कर रही थी. जनरल अय्यूब खान को डर लगा हुआ था कि कहीं उनके विरोधी किसी भांति सत्ता में वापिस न आ जाएं. लिहाजा ISI को राजनीतिक विरोधियों पर नजर बनाए रखने का आदेश दिया गया. ISI ने स्थानीय पत्रकारों, ट्रेड यूनियंस वगैरह पर भी निगहबानी रखी. लेकिन हद तो तब हो गई, जब साल 1965 के चुनाव में मोहम्मद अली जिन्ना की छोटी बहन फातिमा जिन्ना पर ISI ने जासूसी शुरू की. ISI और सेना ने चुनाव में जमकर धांधली की. और फातिमा जिन्ना चुनाव हार गईं. अय्यूब खान फिर से वजीर-ए-आजम बने.
लेकिन साल 1965 में ISI ने सिर्फ चुनाव में ही धांधली नहीं की. इस साल ISI ने भारत के खिलाफ एक प्लान पर काम शुरू किया. प्लान का नाम - ऑपरेशन जिब्राल्टर. दरअसल, साल 1962 में भारत, चीन से जंग हार गया था. इसके बाद ISI ने सेना को इत्तिला किया कि भारत का मनोबल बहुत गिरा हुआ है. और सेना भी अच्छी हालत में नहीं है. कश्मीर पर फिर से कब्जा जमाने की कोशिश की जा सकती है. ISI ने सेना से कहा - अगर इस समय आम कश्मीरी मुसलमानों को ट्रिगर किया जाए, तो वे भारत के खिलाफ तैयार हो सकते हैं.

इस बात पर भरोसा किया गया. कुछ सैनिक और कुछ एजेंट्स भारतीय सीमा के भीतर चले आए. उन्होंने स्थानीय लोगों से बातचीत की. बरगलाने का प्रयास शुरू किया. भारत को खबर लगी, तो जवाबी कार्रवाई शुरू की गई. दोनों ओर से जानें गईं. जनरल अय्यूब को कुछ हाथ नहीं लगा. सोवियत यूनियन ने दोनों देश के सीज़ फ़ायर पर साईन लिये. और आख़िर में जाकर अमरीका और सोवियत यूनियन ने मिलकर 10 जनवरी 1966 को भारत और पाकिस्तान के बीच समझौता कराया. जिसे कहा गया - ताशकंद समझौता.
ISI के नाम पर लिखा गया - FAILलेकिन यही एक मौका नहीं था, जब ISI फेल हुई हो. साल 1971 में होने वाली जंग में भी ISI की गड़बड़ी की वजह से ही जंग शुरू हुई थी. दरअसल इस साल हुई जंग के पहले पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली राष्ट्रवाद उभर रहा था. ये भी तथ्य था कि भारत की तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने इस राष्ट्रवाद के साथ खड़ा होने का फैसला लिया था. जिसके बाद पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन शुरु हुआ, सशस्त्र गुरिल्ला आउटफिट 'मुक्ति वाहिनी' प्रकाश में आया. कहा जाता है कि ISI को पूर्वी पाकिस्तान में पनप रहे इस आंदोलन की सूचना देर से मिली. और सूचना मिलने के बाद ISI ने जिस तरह से काम करना शुरू किया, वो तरीका किंचित निष्प्रभावी और शर्मनाक था. पाकिस्तान की सेनाओं ने पूर्वी पाकिस्तान में एक ऑपरेशन शुरू किया. नाम - सर्चलाइट. ISI और सेना ने विद्रोह ख़त्म करने के बजाय, क़त्ल-ए-आम शुरू कर दिया. पूरे देशभर में बांग्ला समुदाय के लोगों की हत्या की गई. पाकिस्तानी फ़ौज गांव-गांव जाती. वहां मौजूद बंगाली और हिंदू परिवारों को चिन्हित शुरू किया. फिर उस गांव में छापा मारकर उन परिवारों की महिलाओं का सामूहिक बलात्कार किया जाता, और फिर पूरे परिवार की हत्या कर दी जाती. एक अनुमान के मुताबिक़ 8 महीने और 20 दिन तक चले इस हत्याकांड में पाकिस्तानी आर्मी ने 30 लाख के आसपास लोगों का क़त्ल किया. लाखों बंगाली लोगों ने भागकर भारत में पनाह ली थी.

वो ISI का ही इनपुट था - जब 3 दिसंबर को पाकिस्तानी एयरफ़ोर्स ने भारत के एयर बेसेज़ पर हमला शुरू किया. लेकिन मामूली नुकसान के एवज में भारत को भड़का दिया. नतीजा? युद्ध, बलवा और 16 दिसंबर को पाकिस्तान की फौज का शर्मनाक आत्मसमर्पण. जन्म बांग्लादेश का.
लेकिन इस युद्ध में अपनी भद्द पिटवाने के बाद ISI ने होश सम्हाला. साल 1972 में जनरल याह्या खान की तानाशाही का अंत हुआ, गद्दी पर बैठे ज़ुल्फिकार अली भुट्टो. उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) की सदारत में ISI ने बलूचिस्तान के इलाके में राष्ट्रवादी आंदोलन पर काम करना शुरू किया. बलोच विद्रोहियों की हत्या की गई, उन्हें पकड़कर जेल में भरा गया. पाकिस्तान किसी हाल में एक और देश नहीं बर्दाश्त कर सकता था. ये सबकुछ कुछ समय तक चलता रहा.
ISI के हाथ में आया पैसा, और दिमाग उड़ गया!फिर आया साल 1977, जिसे कहा गया कि ये वो साल था जब ISI को अकूत शक्तियां मिलीं. ये साल था एक और तख्तापलट का. ये साल था ज़िया उल हक़ के पाकिस्तान के तानाशाह की गद्दी पर बैठने का. 1979 में लेफ्टिनेंट जनरल अख्तर अब्दुर रहमान ISI के मुखिया बने और उन्होंने इसे वैश्विक राजनीति का केंद्र बना दिया.

साल 1979 में ही सोवियत संघ और अफगान मुजाहिदों के बीच युद्ध शुरू हुआ. अफ़गान मुजाहिद अकेले नहीं थे. उन्हें अमरीका की खुफिया एजेंसी CIA से पैसे मिल रहे थे. और इन पैसों को पम्प करने का जरिया बना था ISI. सऊदी खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर ISI ने अफ़गान मुजाहिदों को पैसे और हथियार उपलब्ध कराए. पाकिस्तान में उनके लिए शिविर स्थापित किए. BBC में प्रकाशित साल 2011 की रिपोर्ट बताती है कि ISI ने ये सारा काम इतनी चोरी से किया था, कि इसके बारे में पाकिस्तान की फौज तक को खबर नहीं हुई थी. कहा जाता है कि इस युद्ध में ISI की खुफियागिरी ही थी, जिसने उसे तमाम एजेंसियों को फोकस मे ला दिया था.
देश के भीतर, ISI ने 1985 के चुनावों को प्रभावित किया, बेनज़ीर भुट्टो की पार्टी की निगरानी की, और इस्लामी गठबंधनों को बढ़ावा दिया.
कश्मीर में ISI ने आतंकी घुसाएफिर 1989 में जब सोवियत रूस की सेनाएं अफ़ग़ानिस्तान से हट गईं, तो पाकिस्तान के पास CIA के पैसे से आए हथियारों, और प्रशिक्षित फिदायीन लड़ाकों का जखीरा मौजूद था. अब इनकी जरूरत अफ़ग़ानिस्तान में नहीं पड़नी थी. लिहाजा ISI ने इन चीजों को कश्मीर में भेजना शुरू कर दिया. ये कश्मीर की पॉलिटिक्स में वो समय था, जब राज्य के लोगों को लग रहा था कि उनके साथ चुनाव में धांधली की गई है. इस्लामिक मोर्चे को राजीव गांधी और फ़ारूक़ अब्दुल्लाह के गठजोड़ ने बेईमानी से हराया है. हजारों कश्मीरी युवा हाथ में बंदूक उठाने को तैयार थे. सैयद सलाहुद्दीन जेल से निकलकर आ चुका था. आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के गठन का रास्ता तैयार हो रहा था. ऐसे में अगर ट्रेंड फिदायीन भारत में घुसते तो ISI का प्लान कश्मीर कामयाब हो जाता. ISI ने किया भी यही. सैकड़ों की संख्या में भारत में घुसपैठ शुरू कराई. इस घुसपैठ में भारत की सेना और बीएसएफ का ध्यान बंटाने का काम शुरू किया पाकिस्तान के रेंजर्स और पाक आर्मी के जवानों ने. सीधा आदेश ISI ऑफिस से.

BBC की रिपोर्ट बताती है कि पाकिस्तान ने इस आरोप से हमेशा इनकार किया है. लेकिन जितने भी सबूत मिले हैं, उसने हमेशा एक अलग कहानी बयां की है.
लेकिन भारत के खिलाफ साजिश में शामिल ISI की अपने देश में भी कोई अच्छी स्टैन्डिंग नहीं थी. 90 का दशक, और पाकिस्तान में एक अलग शक्ति का उभार हो रहा था. ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी बेनज़ीर भुट्टो राजनीति में अपनी जगह बना रही थीं. साथ था पापा वाली पार्टी PPP का. अपनी तकरीरों में वो एक नए और प्रगतिशील पाकिस्तान की नींव रखती दिखाई दे रही थीं. और बार-बार इस बात की वकालत करती थीं, कि पाकिस्तान को सेना की तानाशाही से मुक्ति दिलानी है और लोकतंत्र स्थापित करना है. उनके इस कदम की प्रशंसा हो रही थी. उनके और उनके पिता के जेल जाने के किस्से सुनाए जा रहे थे. जनता में समर्थन का एक स्वर साफ सुना जा सकता था.
भुट्टो और ISI की गंदी लड़ाई!उस समय पाकिस्तान के तानाशाह जनरल ज़िया उल हक़ नहीं चाहते थे कि भुट्टो परिवार से कोई भी सत्ता में आए. ऐसा न पाकिस्तान की सेना ही चाहती थी, और न ही ISI. उनको चाहिए था कि पाकिस्तान में जनता का राज न चल सके. और चले भी, तो कोई ऐसा शख्स सत्ता में आए, जो सेना के करीबी हो, दक्षिणपंथी हो. प्रगति दरकार नहीं थी.
लेकिन इधर पूरे पाकिस्तान में प्रदर्शन शुरू हो गए थे. जनता चुनाव की मांग कर रही थी. ऐसे में ज़िया उल हक़ ने मई 1988 में संसद भंग कर दिया, और नवंबर में चुनावों की घोषणा कर दी. लेकिन नवंबर का महीना भी ISI के कहने पर चुना गया था. ज़िया उल हक़ को सूचना मिली थी कि कुछ ही महीनों पहले तो बेनज़ीर का आसिफ अली ज़रदारी के साथ निकाह हुआ है, और नवंबर में उन्हें संतान प्राप्ति हो सकती है. लिहाजा, वो चुनाव कैम्पेन में हिस्सा नहीं ले पाएंगी. हक़ को ISI ने एक और आइडिया दिया था, जिस पर अमल करते हुए उन्होंने ऐलान किया कि पाकिस्तान का आम चुनाव पार्टी के नाम पर नहीं लड़ा जाएगा, बल्कि व्यक्तियों के नाम पर लड़ा जाएगा.
लेकिन अगस्त 1988 में ही ज़िया उल हक़ की प्लेन क्रैश में मौत हो गई. उनके प्लेन क्रैश पर सवाल उठाए गए थे. कहा गया था कि इसमें पाकिस्तान के खिलाफ खड़ी शक्तियों का हाथ है. लेकिन कुछ साबित नहीं हो सका. हालांकि उनकी मौत को बेनज़ीर भुट्टो ने खुदा का न्याय बताया. सुप्रीम कोर्ट ने पार्टी व्यक्तियों के नाम पर चुनाव लड़ने वाला नियम खारिज कर दिया. और पार्टी के नाम पर चुनाव लड़ने का रास्ता खुल गया.
लोगों को लगा कि भुट्टो परिवार के चिरपरिचित दुश्मन ज़िया उल हक़ जिंदा नहीं हैं, लिहाजा चुनाव बहुत शांति से निपट जाएगा. लेकिन ऐसा होना नहीं था. चुनाव के एक दो महीने पहले देश के इस्लामिक संगठनों ने बेनज़ीर का विरोध शुरू कर दिया. वो कहने लगे कि अगर कोई महिला देश की कमान सम्हालेगी, तो ये इस्लाम के नियमों के खिलाफ होगा. बेनज़ीर की किसी विदेशी क्लब में डांस करते फ़ोटो वीडियो वायरल किये गए. उन्हें बदनाम करने की कोशिश की गई. और आखिर में एक पार्टी बनाई गई - इस्लामी जम्हूरी इत्तिहाद (IJI). ये एक संयुक्त मोर्चा था, जिसे लीड कर रहे थे नवाज़ शरीफ़. कहा गया कि इस मोर्चे और बेनज़ीर के खिलाफ चलने वाला पूरा कैम्पेन ISI के इशारों पर किया गया. लेकिन बेनज़ीर की चुनाव में जीत हुई. और वो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं.

शपथ लेने के कुछ ही दिनों बाद बेनज़ीर ने तत्कालीन ISI चीफ हामिद गुल को कुर्सी से उतार दिया. ये देखकर तत्कालीन राष्ट्रपति ग़ुलाम इशाक खान, और पाकिस्तान के आर्मी चीफ असलम बेग को चिंता हुई. उन्होंने एक प्लान तैयार किया. बेनज़ीर भुट्टो को संसद से बाहर का रास्ता दिखाना है. ISI के इशारों पर भुट्टो की पार्टी के कुछ नेताओं को पैसा खिलाना शुरू किया गया. लेकिन बेनज़ीर भुट्टो को इन सबकी भनक पहले से लग गई थी. उन्होंने इंटेलिजेंस ब्यूरो को काम पर लगा दिया. और कुछ ही दिनों बाद IB ने ISI और सेना के अधिकारियों की कॉल रिकार्डिंग बेनज़ीर के सामने रख दी. इस ऑपरेशन को ISI ने नाम दिया हुआ था - ऑपरेशन मिडनाइट जैकाल.
इस पूरे प्लान में राष्ट्रपति की रजामंदी थी. लेकिन IB ने जैसे ही प्लान खोला, राष्ट्रपति ने उल्टा बेनज़ीर कैबिनेट पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा दिए. साल 1990. बेनज़ीर की सरकार बर्खास्त. फिर से चुनावों की घोषणा हुई. और ISI ने बक्से में से साल 1988 का इत्तिहाद (IJI) का भूत झाड़पोंछकर निकाल लिया. लेकिन इस बार ISI ने पैसे का इस्तेमाल किया. तत्कालीन ISI चीफ लेफ्टिनेंट जनरल असद दुर्रानी ने साइन किए, और जनता के पैसों को मेहरान नामक बैंक से IJI नेताओं के खातों में डाल जाने लगा. कोशिश ये कि इन पैसों से चुनाव में IJI मजबूत हो, और भुट्टो को किनारे लगाया जा सके. खबरें बताती हैं कि ISI ने अरबों रुपये इस चुनाव में बहा दिए. लेकिन कुछ ही दिनों बाद ISI की ये चाल खुल गई. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. चुनाव में बेनज़ीर की पार्टी हार चुकी थी, नवाज़ शरीफ़ जीतकर ISI के चहेते प्रधानमंत्री बने. पैसों के इस स्कैंडल को नाम मिला - मेहरानगेट.
लेकिन नवाज़ शरीफ का IJI तो एक संयुक्त मोर्चा था, लिहाजा पार्टियों में झंझट शुरू हुआ. तीन साल में ही नवाज़ शरीफ़ की सरकार गिर गई, फिर से चुनाव हुए. बेनज़ीर भुट्टो, दूसरी और आखिरी बार पाकिस्तान की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठीं.
ISI उर्फ बम उर्फ आतंक उर्फ दोहरापनसाल 1993 में एक तरफ जहां नवाज़ शरीफ़ की कुर्सी जा रही थी, उस समय ISI क्या कर रही थी? जवाब - मुंबई में बम धमाके. ISI पर इल्जाम है कि उसने दाऊद इब्राहिम और उसके परिवार के लोगों के साथ मिलकर मुंबई में सीरियल बम ब्लास्ट करवाए. जिसमें 250 से ज्यादा लोग मारे गए. इस धमाके के ठीक पहले दाऊद और उसका पूरा परिवार पाकिस्तान के कराची भाग गया, और आज भी वहीं रह रहा है.
इसके साथ ही कश्मीर में जब-जब मिलिटेन्सी बढ़ी, ISI का नाम आया. पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकी संगठनों के ट्रेनिंग शिविर चलाना ISI के एजेंडे में शामिल रहा.

फिर साल 2001 के 11 सितंबर को अमरीका में आतंकी हमला हुआ. जिसके बाद अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में अल-क़ायदा और तालिबान के खिलाफ जंग छेड़ दी. पाकिस्तान से मदद मांगी गई. ISI आगे आया. अल-कायदा के कुछ आतंकी पकड़े गए. लेकिन सरगना ओसामा बिन लादेन लापता था. दस सालों तक चले हंट के बाद अमरीका के पैरों के नीचे से जमीन तब खिसकी, जब पाकिस्तान के कब्जे वाले इलाके में मौजूद एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन बरामद हुआ. पाकिस्तान सैन्य अकादमी के बिल्कुल पास. यही नहीं, 9/11 के हमलों से जुड़े आरोपी ख़ालिद शैख़ मोहम्मद को रावलपिंडी से, जबकि रमज़ी बिन-अल-शीबा को कराची से गिरफ़्तार किया गया था.

साल 2001 में ही जब भारत के संसद भवन पर जैश ए मोहम्मद के आतंकियों ने हमला किया, तो इन आतंकियों को इंटेल, ट्रेनिंग और हथियारों से लैस करने में ISI का नाम आया.
साल 2006 में बनारस सीरियल बम धमाके, साल 2006 के मुंबई ट्रेन बम धमाके और साल 2008 के मुंबई आतंकी हमलों में भी ISI का नाम आया. और हर बार की तरह पाकिस्तान और ISI ने इन आरोपों को नकार दिया.
जुलाई 2010 में ISI की कलई खुल गई, जब पता चला कि उसके अधिकारी तालिबान को ट्रेनिंग और हथियार मुहैया करवा रहे हैं. और साल 2011 में Wikileaks ने कुछ कागज जारी किए. इनमें लिखा था कि US एजेंसीज़ के लिए ISI एक "आतंकी संगठन" है. इसी साल अमरीकी सेनाओं के ज्वाइंट चीफ एडमिरल माइक मुलेन ने ये कहकर चौंका दिया कि ISI, अमरीकी सैनिकों के हत्यारे और अफगान मुजाहिद जलालुद्दीन हक्कानी के ग्रुप को पैसे दे रहा है. साल 2010 में ब्रिटिश पीएम डेविड कैमरून ने भी कहा कि जब भी आतंकवाद की बात आती है, तो ISI दोहरा किस्म का व्यवहार करता है.
इसके अलावा पाकिस्तान में हो रहे विद्रोह हों, तख्तापलट हो, या चुनाव में धांधली - ISI सर्वत्र है.
ड्रग्स, बम, बंदूक का मालिक ISIइसके अलावा ISI का नाम खालिस्तान आंदोलन और उससे जुड़ी गैंगबाजी को बढ़ावा देने में आता है. दरअसल, जब 70 और 80 के दशक में पंजाब के इलाके में खालिस्तान आंदोलन का उदय हुआ, और भारत सरकार ने इस क्रैकडाउन शुरू किया तो ISI ने खालिस्तानी संगठनों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. खबरें बताती हैं कि सीमावर्ती राज्य का फायदा ISI ने उठाया. खालिस्तानी उग्रवादियों को लाहौर और सियालकोट में ट्रेनिंग और हथियार मुहैया कराए गए. बब्बर खालसा के आतंकी वाधवा सिंह और परमजीत सिंह पंजवार को पाकिस्तान ने अपने देश में पनाह दी. लेकिन इतना हथियार और पैसा बहाने के बदले में ISI को क्या मिल रहा था? जवाब है - नशे का चैनल. दरअसल, अफ़गान पाक बॉर्डर पर जमकर अफीम की खेती की जाती है. जिस इलाके में ये खेती होती है, उसे गोल्डन क्रेसन्ट उर्फ सुनहरा अर्धचंद्र कहा जाता है. जानकार बताते हैं कि पाकिस्तान इस अकूत अफीम की खेती को दुनिया भर में पहुंचाता है. इसके एवज में उसे मोटा पैसा मिलता है. इस वजह से ही पंजाब में नशे की खपत ज्यादा है. बॉर्डर से अंधेरे में ड्रग्स के पैकेट सीमा के इस पार फेंक दिए जाते हैं, और हैंडलर उसे इधर उधर पहुंचा दिया करते हैं. यही हैंडलर भारत की सीमा में ड्रोन से गिराए जाने वाले हथियार भी रिसीव करते हैं, और उन्हें उनके रिसीवर्स तक पहुंचा दिया जाता है. इस पूरे कांड के पीछे एक ही नाम - ISI.

ISI के ड्रग्स और हथियार वाले काम से खालिस्तानी ही नहीं, गैंगस्टर्स का भी नाम जुड़ता है. खबरें बताती हैं कि गोल्डी बराड़ और लॉरेंस बिश्नोई जैसे गैंग्स को हथियार और सेकेंडरी लेवल की कमाई करवाने में सबसे बड़ा हाथ ISI का है.
ISI कैसे काम करता है?BBC उर्दू में छपी उमर फारूक की एक रिपोर्ट से ISI के कामधाम का हिसाब भी पता चलता है. जैसे -
"ISI के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि आईएसआई पाकिस्तान की "प्रमुख" ख़ुफ़िया एजेंसी है जिसे क्षेत्र में हो रही हर गतिविधि की ख़बर रहती है."
"अफ़ग़ानिस्तान में शांति वार्ता होती है, तो पाकिस्तान उसमें मौजूद होता है. अगर तालिबान काबुल में सरकार बनाता है, तो भी दुनिया हमारी तरफ़ देखती है. अफ़ग़ानिस्तान से पश्चिमी राजनयिकों के निकालने का मामला हो, तो हमारी मदद की ज़रूरत होती है. आप किसी भी मामलें को देखें, उसमें हमारी अहमियत दिखाई देगी."
लेखक डॉक्टर हेन एच. केसलिंग ने अपनी पुस्तक 'ISI ऑफ़ पाकिस्तान' में लिखते हैं - ISI के संगठनात्मक ढांचे पर सेना का दबदबा ज़्यादा है, हालांकि नौसेना और वायु सेना के अधिकारी भी संगठन का हिस्सा हैं.
उन्होंने आगे लिखा - "ISI के अंदर आज तक डाइरेक्टोरेट्स काउंटर-इंटेलिजेंस है, जिसे 'ज्वाइंट काउंटर इंटेलिजेंस ब्यूरो' (संयुक्त जवाबी ख़ुफ़िया कार्रवाइयों के ब्यूरो) का नाम दिया गया है, जो सबसे बड़ा डायरेक्ट्रेट है. विदेशों में तैनात पाकिस्तानी राजनयिकों की निगरानी करना, इसके साथ-साथ मध्य पूर्व, दक्षिण एशिया, चीन, अफ़ग़ानिस्तान, पूर्व सोवियत संघ और मध्य एशिया के नौ स्वतंत्र राज्यों में ख़ुफ़िया अभियान चलाना इसकी ज़िम्मेदारी है."
वो आगे लिखते हैं - "जम्मू-कश्मीर के लिए ज्वाइंट इंटेलिजेंस नॉर्थ ज़िम्मेदार है. इसकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी ख़ुफ़िया जानकारी जुटाना है. उन्हें जम्मू-कश्मीर में ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने का भी काम सौंपा गया है. यह कश्मीरी चरमपंथियों को सबोटाज और विध्वंसक गतिविधियों के लिए प्रशिक्षण, हथियार, गोला-बारूद और फंड मुहैया कराता है."
और हर तरह के आरोपों से भाग रही ISI पर इल्जाम हैं - देश के भीतर ISI पर बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में लोगों को गायब किया जाना, 2018 और 2024 के चुनावों को प्रभावित करना, और पत्रकारों-समाजसेवियों की निगरानी व डराना.
वीडियो: आसान भाषा में: भारत-पाकिस्तान में जंग हुई तो क्या होगा? पाकिस्तानी सेना में कितनी ताकत है?