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सोनाली बेंद्रे ने जिस ऑटोफेजी से 'कैंसर रिकवरी' का दावा किया, वो है क्या?

कुछ एक्सपर्ट्स ऑटोफेजी का समर्थन करते हैं, तो कुछ इसे असरदार नहीं मानते. पर पूरी बहस का सेंटर 'ऑटोफेजी' आखिर है क्या? इसका पक्ष-विपक्ष क्या है. ये हमने पूछा मैक्स हॉस्पिटल्स, नई दिल्ली के मेडिकल ऑन्कोलॉजी डिपार्टमेंट में सीनियर डायरेक्टर, डॉ. कुमारदीप दत्त चौधरी से.

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एक्ट्रेस सोनाली बेंद्रे

21 नवंबर, 2025. एक्स पर एक्ट्रेस सोनाली बेंद्रे ने एक पोस्ट किया और बवाल मच गया. सोनाली ने लिखा- “2018 में जब मुझे कैंसर का पता चला तो मेरे नेचुरोपैथ ने मुझे ऑटोफेजी नाम की एक स्टडी के बारे में बताया. मैंने इसके बारे में रिसर्च की और धीरे-धीरे इसे अपने रूटीन में शामिल कर लिया. तब से मैं इसे फॉलो कर रही हूं.”

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फिर शुरू हुआ विवाद. 'द लिवर डॉक' नाम से मशहूर डॉ. सिरिएक एबी फिलिप्स ने जवाब दिया. लिखा कि सोनाली को ऑटोफेजी का समर्थन नहीं करना चाहिए. ये झूठे इलाज को बढ़ावा देना है. कैंसर से ठीक हो चुके लोग, खासकर सेलिब्रिटी कैंसर सर्वाइवर, बाकी मरीज़ों और उनके परिवारवालों के लिए एक अहम सहारा हैं.

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लिवर डॉक ने ये भी लिखा कि सोनाली को स्टेज-4 मेटास्टेटिक एंडोमेट्रियल कैंसर डायग्नोज़ हुआ था. जो शरीर के अन्य हिस्सों तक फैल चुका था. इसके बाद वो न्यू यॉर्क गईं. वहां उनका सही इलाज हुआ. इसमें कीमोथेरेपी, रेडिएशन थेरेपी और सर्जरी शामिल हैं. सोनाली 2019 में कैंसर-फ्री हो गईं. इसके बाद वो वापस भारत लौट आईं. इस दौरान उनका कैंसर रिमेशन में गया यानी कैंसर के लक्षण गायब हो गए, क्योंकि उनको सही मीडियल इलाज मिला. वो भी एक एडवांस्ड कैंसर ट्रीटमेंट हॉस्पिटल में. ऐसा नैचुरोपैथी या ऑटोफेजी की वजह से नहीं हुआ. 

आलोचनाओं के बीच सोनाली ने 24 नवंबर को फिर पोस्ट किया. जिसका सार ये था कि वो झूठे इलाज को बढ़ावा नहीं दे रहीं. वो एक कैंसर सर्वाइवर हैं. उन्होंने जो भी लिखा, वो उनका निजी अनुभव और सीख है. कोई भी दो कैंसर एक जैसे नहीं होते. न ही दो लोगों का इलाज एक जैसा होता है. जो प्रोटोकॉल्स उन्होंने फॉलो किए. उनमें से एक ऑटोफेजी था. जिसे उन्होंने काफी रिसर्च और मेडिकल गाइडेंस के बाद चुना था. उन्हें उस वक्त भी फर्क महसूस हुआ था और आज भी ये उनके लिए फायदेमंद है.

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कुछ एक्सपर्ट्स ऑटोफेजी का समर्थन करते हैं, तो कुछ इसे असरदार नहीं मानते. पर पूरी बहस का सेंटर 'ऑटोफेजी' आखिर है क्या? इसका पक्ष-विपक्ष क्या है. ये हमने पूछा मैक्स हॉस्पिटल्स, नई दिल्ली के मेडिकल ऑन्कोलॉजी डिपार्टमेंट में सीनियर डायरेक्टर, डॉ. कुमारदीप दत्त चौधरी से.

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डॉ. कुमारदीप दत्त चौधरी, सीनियर डायरेक्टर, मेडिकल ऑन्कोलॉजी, मैक्स हॉस्पिटल्स, नई दिल्ली

डॉक्टर कुमारदीप कहते हैं कि ऑटोफेजी का मतलब है- सेल्स की सेल्फ क्लीनिंग. यानी शरीर के सेल्स खुद की ही सफ़ाई करते हैं. सेल्स हमारे शरीर का बेसिक यूनिट हैं. शरीर का हर हिस्सा सेल्स से मिलकर बना है. हमारे हर सेल के अंदर पुराने, टूटे हुए प्रोटीन और ख़राब माइटोकॉन्ड्रिया जमा होते रहते हैं. माइटोकॉन्ड्रिया यानी सेल का पॉवरहाउस.

ऑटोफेजी के ज़रिए सेल्स की अंदर से सफ़ाई होती है. सेल का ख़राब हो चुका भाग रीसाइकिल हो जाता है. सेल्स दोबारा से हेल्दी बन जाते हैं और ज़्यादा क्षमता से काम करने लगते हैं. इसी प्रोसेस को ऑटोफेजी कहा जाता है. ये शरीर में हमेशा चलता रहता है. हालांकि, जब आप भूखे रहते हैं. फास्टिंग करते हैं. आपको कोई इंफेक्शन हो जाता है या आप बहुत स्ट्रेस में होते हैं. तब ये प्रोसेस और ज़्यादा एक्टिव हो जाता है.

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ऑटोफेजी से कैंसर ठीक करने का दावा अभी साइंटिफिकली प्रूव नहीं हुआ है (फोटो Getty)

कई रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि ऑटोफेजी कैंसर में मदद कर सकता है. इसके पीछे दो थ्योरीज़ हैं. 

- पहली थ्योरी ट्यूमर बनने से पहले वाली स्टेज को लेकर है. कुछ स्टडीज़ में पाया गया कि सही ऑटोफेजी शरीर में DNA को होने वाले नुकसान को कम कर सकती है. सेल्स के खराब और टूटे हिस्सों को हटा सकती है और सेल्स को नुकसान से बचा सकती है. इससे कैंसर होने का रिस्क कम हो जाता है.

- दूसरी थ्योरी फास्टिंग से जुड़ी है. जानवरों पर हुई कुछ स्टडीज़ में देखा गया है कि जब आप फास्ट करते हैं. भूखे रहते हैं. तब नॉर्मल सेल्स 'प्रोटेक्ट मोड' में चले जाते हैं. इससे नॉर्मल सेल्स की तुलना में कैंसर सेल्स, इलाज के सामने ज़्यादा कमज़ोर पड़ जाते हैं. कुछ रिसर्च में ये भी देखा गया है कि फास्टिंग करने या कम कैलोरी खाने से ऑटोफेजी का प्रोसेस तेज़ी से होता है. कीमोथेरेपी के साइड इफेक्ट थोड़ा कम हो सकते हैं. ट्यूमर पर भी ज़्यादा अच्छा असर दिखता है.

लेकिन ये बातें ज़्यादातर लैब टेस्ट और जानवरों पर हुई स्टडीज़ पर आधारित हैं. इंसानों पर इसके पक्के सबूत कम हैं.

अभी तक साइंस ने ये साबित नहीं किया है कि ऑटोफेजी से कैंसर ठीक हो जाता है या रिकवरी आसान हो जाती है. अब तक जो भी रिसर्च हुई हैं. उनसे ऑटोफेजी का रोल दो तरह से समझ में आया है. शुरुआती स्टेज में ये ट्यूमर को सप्रेस कर सकता है. इससे कैंसर बनने का चांस कम होता है.

लेकिन कैंसर होने के बाद, ऑटोफेजी उल्टा असर कर सकता है. ये कैंसर सेल्स की मदद कर सकता है. उन्हें एनर्जी दे सकता है. उनमें इलाज का स्ट्रेस झेलने की क्षमता बढ़ा सकता है. कीमोथेरेपी या रेडियोथेरेपी से बचाकर, कैंसर सेल्स को मजबूती दे सकता है. इसलिए अगर किसी को कैंसर डायग्नोस हुआ है, तो इलाज के लिए साइंटिफिक तरीके ही अपनाएं.

अब तक कोई भी बड़ी मेडिकल बॉडी फास्टिंग, कीटोजेनिक डाइट, लो-कार्ब डाइट या ऑटोफेजी को कैंसर के स्टैंडर्ड इलाज का हिस्सा नहीं मानती है. ऑटोफेजी एक नेचुरल प्रोसेस है. लेकिन इससे कैंसर ठीक करने का दावा अभी साइंटिफिकली प्रूव नहीं हुआ है.

कैंसर के इलाज के दौरान शरीर को पर्याप्त कैलोरी, प्रोटीन, विटामिंस और मिनरल्स की ज़रूरत होती है. ऐसे में फास्टिंग या कोई खास डाइट फॉलो करने से वज़न घट सकता है. मांसपेशियां कमज़ोर हो सकती हैं. इम्यून सेल्स कमज़ोर होने से इंफेक्शन का रिस्क भी बढ़ जाता है. इन सबसे इलाज पर बुरा असर पड़ सकता है. इसलिए जो आपका ऑन्कोलॉजिस्ट कहे, इलाज का वही तरीका अपनाएं.

(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से ज़रूर पूछें. दी लल्लनटॉप आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)

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