हिंदी सिनेमा भले ही ढर्रे से चिपका दिखाई दे रहा हो, लेकिन रीजनल भाषाओं में बहुत बढ़िया काम हो रहा है. मराठी सिनेमा तो इस मामले में जैसे मशाल लेकर आगे चल रहा है. फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका ट्यूटोरियल हिंदी वालों को मराठी फिल्मकारों से लेना चाहिए. पिछले दशक भर में नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्मों की लिस्ट पर नज़र भर मार लीजिए. ज़्यादातर फ़िल्में मराठी की दिखाई देंगी. मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघू या' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए. ..

एक अच्छी फिल्म के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ क्या है? अच्छे एक्टर्स? करोड़ों का बजट? शानदार लोकेशंस? उम्दा गाने? होता होगा ये सब भी ज़रूरी लेकिन इन सबसे ऊपर भी एक चीज़ होती है. मैं अपना सवाल फिर दोहराता हूं. सबसे - सबसे ज़्यादा - ज़रूरी चीज़ क्या है? जिसके दम पर कोई भी फिल्म एक अच्छी फिल्म कहलाने लायक बनती है? सिनेमा की इमारत में नींव के पत्थर सी अहमियत रखने वाली वो चीज़ है कहानी. कहानी दमदार हो तो फिल्म के शानदार निकल आने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. युवा डायरेक्टर सागर छाया वंजारी के पास एक सुंदर सी कहानी आई, जिसे उन्होंने उतनी ही सुंदरता से दर्शकों तक पहुंचाया भी है. हम बात कर रहे हैं हाल ही में रिलीज़ हुई मराठी फिल्म 'रेडू' की.
'रेडू' यानी रेडियो. मुंबई का रेडियो महाराष्ट्र के मालवण में पहुंचते-पहुंचते रेडू हो चुका है. इस रेडियो से एक आदमी के इश्क़ की कहानी भर है ये फिल्म. मालवण के एक बेहद शांत गांव में रहता है तातू. अपनी बीवी छाया और बेटी सरू के साथ. जीने के लिए कुआं खोदता है. यानी मज़दूरी करता है. साल है 1972. ज़िंदगी समेत सब कुछ अल्ट्रा स्लो मोशन में चल रहा है. कोई हड़बड़ी नहीं. कोई जल्दबाजी नहीं. एक दिन किसी के पास एक रेडियो देख लेता है. पहली ही नज़र में इस अजूबे से प्यार कर बैठता है. 1972 में इंडिया में रेडियो जैसी चीज़ दुर्लभ जो थी. रेडियो पसंद तो आ गया लेकिन खरीदने की औकात है नहीं, सो मन मारकर रह जाता है.

फिल्म का पोस्टर.
तातू की ज़िंदगी तब बदलती है जब उसके घर कुछ दिनों के लिए उसकी साली और साली का पति रहने आते हैं. साढू अपने साथ लाया है रेडियो. उनके आने से झल्लाया हुआ तातू रेडियो की झलक पाकर पूरा बदल जाता है. जब तक मेहमान रहते हैं, रेडियो को एक बच्चे की तरह दुलार करता है. उसकी रेडियो के लिए दीवानगी देखकर साढू साहब जाते-जाते वो रेडियो उसे ही गिफ्ट कर जाते हैं. तातू को तो जैसे जन्नत मिल जाती है. लेकिन गरीब आदमी की कुटिया में खुशियां ज़्यादा देर टिकती कहां हैं? रेडियो गायब हो जाता है.
बेतहाशा भागदौड़ के बाद रेडियो का पता-ठिकाना तो मिलता है लेकिन उसे वहां से छुड़ाना विकट टास्क है. एक महाकठिन मिशन है. इस मिशन में कामयाब होने के लिए तातू को न सिर्फ तगड़ी जद्दोजहद करनी है, बल्कि सत्तर रुपए भी इकट्ठे करने हैं. जिस ज़माने में पांच पैसे में बहुत कुछ आ जाता हो वहां सत्तर रुपए बहुत बड़ी रकम है. पहाड़ जैसी. इस मिशन में तातू कामयाब होता है या नहीं, उसका रेडू उसे मिलता है या नहीं ये आप फिल्म देखकर ही जानिएगा. बस इतना बता देते हैं कि इसका क्लाइमेक्स न सिर्फ चौंकाने वाला है बल्कि आपकी संवेदनाओं को थप्पड़ मारकर जगाने की ताकत भी रखता है.

बेटी सरू के साथ तातू.
जैसा कि मैंने पहले ही कहा ये एक बेहद सुंदर कहानी का उतना ही शानदार प्रस्तुतीकरण है. तातू की भूमिका में शशांक शेंडे बेस्ट चॉइस हैं. उन्होंने अपने हावभाव से, अपने लहजे से, अपनी बॉडी लैंग्वेज से तातू के किरदार को ज़िंदा करके रख दिया है. कितने ही सीन ऐसे हैं जहां आप मंत्रमुग्ध होकर उनके एक्सप्रेशंस देखते रहते हैं. जब साढू बबन लौटते वक़्त तातू को रेडियो गिफ्ट कर देता है, उस वक़्त की ख़ुशी तातू के चेहरे से टप-टप टपकती है. आंखों में हज़ार वाट का बल्ब जलता दर्शकों को लिटरली दिखता है. इसी तरह रेडियो खो जाने पर उपजी हताशा उनके पूरे शरीर से लिपटी महसूस की जा सकती है. और क्लाइमेक्स में उनका अभिनय तो खैर एवरेस्ट जितना ऊंचा है. हिंदी फिल्मों में छोटे-मोटे रोल करके अननोटिस्ड रहे शशांक इस फिल्म में हर जगह छाए हुए हैं.
शशांक के साथ कदम से कदम मिलाके चलती है छाया कदम. तातू की पत्नी छाया की भूमिका में छाया कदम ने बेहद शानदार रंग भरे हैं. कहते हैं आपका जीवनसाथी ही आपका दर्द सबसे ज़्यादा महसूस कर सकता है. छाया और तातू की जोड़ी इस कहावत को हकीकत का रूप देती नज़र आती है. रेडियो से बिछड़े तातू की तकलीफ आप छाया के चेहरे पर से चुन सकते हैं. वही है, जो उस तकलीफ की तीव्रता को महसूस कर पाती है. तातू के मिशन सत्तर रुपए की खातिर वो एक्स्ट्रा मेहनत करती है. 'न्यूड' फिल्म के बाद एक बार फिर छाया कदम ने दिखा दिया है कि वो किसी भी रोल की आत्मा में घुस सकती है.

एक भावुक सीन में छाया कदम और शशांक शेंडे.
गौरी कोंगे, विनम्र भाबल, मृण्मयी और बाक़ी के सभी कलाकार अपने-अपने रोल से पूरा न्याय करते हैं.
रेडू सही मायनों में डायरेक्टर की फिल्म है. संजय नवगिरे की बेहद प्यारी कहानी को सागर छाया वंजारी ने एक खूबसूरत पेंटिंग बनाकर परदे पर पेश किया है.
फिल्म में छोटी-छोटी डिटेलिंग पर बहुत ज़्यादा ध्यान दिया गया है. एक तो फिल्म में मालवणी भाषा की मिठास कदम दर कदम बिखरी पड़ी है. उसके अलावा कछुए की तरह रेंगते गांव को बेहद कलात्मकता से परदे पर उतारा गया है. फिर भले ही वो गांववालों की डेली बोरिंग लाइफ हो, लोकल त्यौहार हो या रात के वक़्त शोर मचाते कीड़े. सिनेमेटोग्राफी कमाल की है. पेड़-पौधे-पगडंडीयां, नदी, समंदर सब कुछ बेहद खूबसूरती से कैमरे पर कैप्चर किया गया है. एक सीन में जब रेडियो के गायब होने की ख़बर सुनकर तातू और छाया बदहवास दौड़ रहे होते हैं, वो सीन बेहद ऊपर से, शायद ड्रोन कैमरे से, लिया गया है. इस तरह फिल्माने से रेडियो खोने की ट्रेजेडी और भी भयावह लगती है.

रेडियो खोने की ख़बर से आंदोलित तातू का परिवार.
एक और सीन का ज़िक्र करना चाहूंगा. गिफ्ट में हासिल रेडियो लेकर जब तातू गांव में लौटता है तो यूं चलता है, जैसे पूरी धरती का वही राजा है. इस सीन में तातू ने भड़क पिंक कलर की शर्ट पहन रखी है. वो जहां-जहां से गुज़रता है स्क्रीन पर सिर्फ वो ही रंगीन फ्रेम में दिखता है, बाकी सब गांववाले ब्लैक एंड वाइट नज़र आते हैं. ऐसा ही कुछ तो उसके दिमाग में चल रहा होगा नहीं? सिर्फ उसी की दुनिया रंगीन और बाकियों की ब्लैक एंड वाइट. बिना कुछ कहे ये सीन तातू की मनोदशा बयान कर जाता है. इसके लिए सागर साहब को फुल मार्क्स.
कहते हैं सिनेमा कहानी कहने का सबसे सशक्त माध्यम है. सागर वंजारी अपनी फिल्म से इस बात को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं.

रेडियो वाला राजा.
इसके गीतों का ज़िक्र किए बगैर गुज़र जाना नाइंसाफी होगी. ख़ास तौर से एक गीत. 'देवाक काळजी रे..' गुरू ठाकुर के लिखे शानदार लफ़्ज़ों को अजय गोगावले ने इतने बेहतरीन तरीके से गाया है कि आप इस गीत को दिनभर लूप पर सुन सकते हैं. इसे सुनते हुए आपको एक और शानदार मराठी फिल्म 'नटरंग' के गीत 'खेळ मांडला' की याद भी ज़रूर आएगी. वो भी गुरु ठाकुर और अजय गोगावले का ही जॉइंट शाहकार था. 'देवाक काळजी रे' एक निराश, हताश शख्स की धमनियों में उम्मीद को इंजेक्ट करने की ताकत रखता है. विजय गवांडे का संगीत मालवण की मिट्टी से बेहद ईमानदार लगता है. इसी फिल्म का दूसरा गाना 'कोंबडो घालता कुकारो', इस साल गणेशोत्सव में सबसे ज़्यादा बजने वाला है इसमें कोई शक नहीं.
रेडू का ट्रेलर:
इस फिल्म की सबसे ख़ास बात ये कि ये कोई मैसेज देने की ज़िद नहीं करती. ये बस अपनी कहानी कहती जाती है. उस प्रक्रिया में आप बहुत कुछ खुद चुनते हैं. ये कहानी और इसका क्लाइमेक्स आपके साथ, आपके घर तक आता है. क्लाइमेक्स देखने के बाद मुझे डोमिनिक लापियर की शानदार किताब 'सिटी ऑफ़ जॉय' का एक प्रसंग याद आ गया. उस ख़ास सीन में डॉ. आर्थर लोएब अपने साथी से कहता है,
"सबसे ज्यादा दबे कुचले लोग ही शायद सबसे ज्यादा जिंदादिल होते हैं. इन सबसे नीचे के तबकों में ही मित्रतापूर्ण काम पहचाने जाते हैं. उनके लिए संसार भर के डॉलरों से एक मुस्कान की कीमत ज्यादा है."ये बेहद सच्ची बात है. इस कीमती मुस्कान का एक अंश आप भी पाना चाहते हैं, तो ये फिल्म देख डालिए.
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