हम अक्सर राह चलते लोगों के नाम रख देते हैं. ज़्यादातर को उनकी शारीरिक बनावट, रूप-रंग के आधार पर कोई नाम दे देते हैं. नाटा-मोटा-लंबू-टिंगू. कुछ लोगों को उनके गोरे रंग या भूरे बालों के चलते ‘गोरा’, ‘फिरंगी’, ‘अंग्रेज’ बोल देते हैं. लेकिन ऐसा करते हुए हम कतई नहीं सोचते कि जिसका हम मज़ाक उड़ा रहे हैं, वो किसी बीमारी के चलते परेशान हो सकता है. छत्तीसगढ़ में एक लड़की ऐसे व्यवहार से इस कदर परेशान हुई कि उसने खुदकुशी कर ली.
छत्तीसगढ़ के कवर्धा में रहने वाली रंगीता नौवीं क्लास में पढ़ती थी. रंगीता को ल्यूकोडर्मा नाम की बीमारी थी. इस वजह से उसकी त्वचा सफेद हो गई थी. इसके चलते स्कूल में उसके क्लासमेट्स और टीचर उस पर फब्तियां कसते थे, उसका मज़ाक उड़ाते थे. शिकायत करने के बावजूद ये सब नहीं रुका. रंगीता को लगातार ‘अजीब’ और ‘अलग’ होने का अहसास कराया जाता रहा. आखिर में रंगीता अपने आस-पास के लोगों से हर रोज़ ताने सुनते-सुनते परेशान हो गई और उसने ज़िंदगी खत्म करने का फैसला ले लिया.
क्या होता है ल्यूकोडर्मा?

हमारी त्वचा का रंग उसमें मौजूद पिगमेंट की वजह से होता है. ल्यूकोडर्मा होने पर हमारे शरीर का इम्यून सिस्टम (हमारे शरीर का अंदरूनी डॉक्टर) त्वचा के पिगमेंट के खिलाफ काम करने लगता है. इससे त्वचा के किसी एक हिस्से में पिगमेंट खत्म होने लगता है. तो उतने हिस्से की त्वचा अपना रंग खोने लगती है और सफेद हो जाती है. अगर आपकी त्वचा डार्क हो तो ये दाग ज़्यादा उठकर दिखते हैं. दुनिया में 1-2 फीसदी लोगों को ये बीमारी होती है. भारत में ये संख्या 4-5 फीसदी तक है. इम्यून सिस्टम की गड़बड़ी से होने के कारण ल्यूकोडर्मा को ऑटोइम्यून डिसॉर्डर की श्रेणी में रखा जाता है.
ल्यूकोडर्मा को लेकर सभी सवालों का जवाब फिलहाल मेडिकल साइंस नहीं दे पाया है. इसीलिए बीमारी के इर्द-गिर्द काफी भ्रांतियां हैं. वैसे इतना पूरी तरह से तय है कि ल्यूकोडर्मा किसी तरह का इंफेक्शन नहीं होता. ल्यूकोडर्मा के मामलों में शरीर के इम्यून सिस्टम में गड़बड़ी क्यों होती है, इसका पक्का कारण मालूम नहीं चल पाया है. माना जाता है कि ल्यूकोडर्मा के मामलों में पेशेंट की साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) का रोल होता है.
लेकिन इतना तय है कि ल्यूकोडर्मा ना ही छूने या किसी और तरह से फैलता है.
इसका इलाज क्या है?
आम बीमारियों में हम जो दवाइयां लेते हैं, उनसे हमारे इम्यून सिस्टम को मदद मिलती है. इस तरह हम ठीक होते हैं. लेकिन ल्यूकोडर्मा में यही इम्यून सिस्टम गड़बड़ा जाता है. इसलिए मामला थोड़ा पेचीदा हो जाता है. लंबे समय तक इसे लाइलाज तक माना गया. आज भी इसका शर्तिया और पक्का इलाज मौजूद नहीं है. लेकिन इसके इलाज की दिशा में काम होने लगा है. भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने भी इसके लिए एक दवा तैयार की है, जिसके नतीजे आशाजनक रहे हैं.

बीमारी का असल असर मन पर होता है
ल्यूकोडर्मा से त्वचा का रंग बदलता है. लेकिन इसका असल असर लोगों के मन पर होता है. भारत जैसे देश में जहां ज़्यादातर लोगों का रंग गेहुंआ होता है, किसी की त्वचा पर सफेद धब्बे या पूरी तरह सफेद त्वचा एक बहुत भद्दा रिएक्शन पैदा करती है. यही रंगीता के साथ भी हो रहा था. इस वजह से ल्यूकोडर्मा के मरीज़ कई बार डिप्रेशन में चले जाते हैं. इस बीमारी के मरीज़ों को सबसे ज़्यादा नुकसान इस बात से होता है कि उन्हें कोढ़ का मरीज़ समझ लिया जाता है. इसलिए कई लोग इनके चकत्ते देखकर इनसे कतराने लगते हैं.
हमारी आपकी क्या ज़िम्मेदारी बनती है?
चूंकि ल्यूकोडर्मा के मरीज़ इलाज में पेचीदगी से पहले ही परेशान होते हैं, तो हमारी आपकी ज़िम्मेदारी इन्हें लेकर बढ़ जाती है. सबसे पहली जरूरत तो ये है कि हम अपने मन का सारा शक-शुबहा निकालकर इनसे घुले मिलें. ज़रूरत है कि हम एक ‘परफेक्ट शरीर’ के आइडिया से ऊपर उठें. एक तय ढांचे से बाहर किसी को भी अपनाने से कतराएं नहीं. ये ल्यूकोडर्मा के मरीज़ों को सहज होने में मदद करेगा. याद रखें कि किसी को उसकी शारीरिक बनावट या रंग-रूप के आधार पर तंग करना बॉडी-शेमिंग कहलाता है और ये एक तरह का भेदभाव ही है. इसमें शामिल होकर आप कानून भी तोड़ते हैं और एक कमतर इंसान होने की मिसाल भी पेश करते हैं.
यहां कहना ये नहीं है कि आप बीमारियों की रोकथाम में कोताही बरतें, या लापरवाह हो जाएं. हमारा ज़ोर इस बात पर है कि खुद बचने के लिए आपका व्यवहार जाने-अंजाने में किसी को चोट न पहुंचाए, इसका ध्यान ज़रूर रखें.
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