सोशल मीडिया पर बड़ी बड़ी बातें होती हैं. ऐसा नहीं है, वैसा नहीं है. लेकिन हकीकत आज भी वही है. छुआछूत. और करते भी हम तुम ही हैं. क्योंकि जब बात अमल की आती है तो पता नहीं वो सोशल वाला रूप हमारा कहां चला जाता है. ओडिशा के एक गांव में दलित मर गया, लेकिन उसका अंतिम संस्कार उस जगह पर नहीं करने दिया गया, जहां सबका होता है. सिर्फ इसलिए क्योंकि उसे एड्स था. कब्रिस्तान से लाश वापस आई. ये देख के तो मौत को भी मौत आ जाए. लेकिन इंसान… शर्म आती है ऐसे लोगों के इंसान होने पर.
ये कैसा समाज है. जो ढोंग का ऐसा लबादा ओढ़े हुए है. जिसको इंसानियत तक नहीं आती. एक दलित एड्स से मर गया, इसलिए उसकी लाश को श्मशान घाट में नहीं जाने दिया गया. मुझे तो उन बदअक्लों पर हैरानी होती है. और मन में सवाल आता है उस दलित का अंतिम संस्कार वहां करने से बाकी मुर्दों को कुछ हो जाता क्या.
जब ओडिशा के गांव में लोगों ने दलित का अंतिम संस्कार नहीं होने दिया, तब घर वाले लाश वापस घर ले आए और घर के सामने ही अंतिम संस्कार कर दिया. 35 साल का ये आदमी मुंबई में काम करता था, जहां उसे एचआईवी हुआ. जब उसकी हालत बिगड़ी तो वह बालासोर जिले के तेंतेई गांव में लौट आया. उसे कटक के एससीबी मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया. जहां शुक्रवार को उसकी मौत हो गई. जब फैमिली वाले उसकी लाश लेकर हनसियानीपड़ा के कब्रिस्तान पहुंचे, तो गांववालों ने वहां एंट्री ही नहीं होने दी.
इसके लिए कानून भी है
ऐसा भी तब हुआ है जब कुछ दिन पहले ही सेंटर गवर्नमेंट ने एचआईवी और एड्स (रोकथाम और नियंत्रण) बिल, 2014 में कुछ फेरबदल को मंजूरी दी है. इस बिल में एचआईवी मरीजों के हक़ बचाए गए हैं, जिसके तहत इस तरह के लोगों के साथ भेदभाव करने वालों को कम से कम तीन महीने और ज्यादा से ज्यादा दो साल की जेल है, और एक लाख रुपये तक का जुर्माना देना पड़ेगा.
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