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औरतों को मायके से मिले एक चम्मच से भी लगाव होता है

शादी लड्डू मोतीचूर- 9 (छोड़ो ये न पूछो)

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18 जनवरी 2019 (Updated: 21 जनवरी 2019, 05:37 AM IST) कॉमेंट्स
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रश्मि प्रियदर्शिनी पांडे रश्मि प्रियदर्शिनी पांडे

रश्मि प्रियदर्शिनी एक स्वतंत्र लेखक/पत्रकार हैं. मैथिली-भोजपुरी अकादमी की संचालन समिति की सदस्य हैं.  उन्हें ज़ी नेटवर्क और हमार टीवी में पत्रकारिता का लंबा अनुभव प्राप्त है. कई मंचों से काव्य-पाठ करती आ रही हैं. आजकल 'बिदेसिया फोरम' नाम के डिजिटल प्लेटफॉर्म का संचालन कर रही हैं. दी लल्लनटॉप के लिए एक लंबी कहानी 'शादी लड्डू मोतीचूर' लिख रही हैं. शादी लड्डू मोतीचूर कहानी शहर और गांव के बीच की रोचक यात्रा है. कहानी के केंद्र में है एक विवाहित जोड़ी जिन्होंने शादी का मोतीचूर अभी चखा ही है. प्रस्तुत है इसका नौवां भाग -

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भाग 1 - दिल्ली वाले दामाद शादी के बाद पहली बार गांव आए हैं!

भाग 2 - दुल्हन को दिल्ली लाने का वक़्त आ गया!

भाग 3 - हंसती खिलखिलाती सालियां उसके इंतज़ार में बाहर ही बरसाती में खड़ी थीं

भाग 4 - सालियों ने ठान रखा है जीजाजी को अनारकली की तरह नचाए बिना जाने नहीं देंगे

भाग 5 - ये तो आंखें हैं किसी की... पर किसकी आंखें हैं?

भाग 6 - डबडबाई आंखों को आंचल से पोंछती अम्मा, धीरे से कमरे से बाहर निकल गई!

भाग 7 - घर-दुआर को डबडबाई आंखों से निहारती पूनम नए सफ़र पर जा रही थी

भाग 8 - काश! उसने अम्मा की सुन ली होती



भाग 9 - छोड़ो ये न पूछो

'मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी'
गहरी नींद में होने के बावजूद पूनम को बुढ़वा-बाबाजी (परदादा) की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी. भोरे-बिहाने जब पूरा गांव सोया रहता, बुढ़वा-बाबाजी मानस की चौपाइयां गाते उठ जाते. उनकी आवाज़ इतनी तेज होती कि नहर तक पहुंचती. पूनम सहसा ही उठ बैठी. तभी, उसे ख्याल आया कि वो मायके में नहीं बल्कि ससुराल में है और बुढ़वा-बाबाजी की आवाज़ तो आदतन ही स्मृतियों के झरोखे से आ गई थी उसे उठाने. जल्दी से बिस्तर छोड़ती पूनम दरवाज़े तक पहुंची ही थी कि सासूमां के कदमों की चाप कमरे के बाहर आकर रुक गई. दरवाजा खटखटाना उनकी शान के खिलाफ था. उन वजनी भारी पायलों की छमक ही उनके आने की सूचना होती है, और ये बात पूरी पीली कोठी जानती है.
पूनम ने जल्दी से दरवाजा खोलना चाहा पर पुराने घर के इन दरवाजों की सांकलें भी ऐन मौके पर साथ नहीं देतीं. तभी चंदर आया, आगे की ओर ठेलते हुए दरवाजे की सांकल खोली और दरवाजा खुलने से पहले ही जल्दी से वापस पलंग में घुस गया. सासूमां ने मुस्कुराते हुए पूनम को देखा और धीरे से कहा- 'सबके जागने से पहिलहीं नहा-धो लो, फिर आज तुमलोग को दिल्ली भी निकलना है न! सब सामान सहियारने में समय लगेगा.'
गांव की बहुओं में कौन कितनी जल्दी उठ के सेनुर-बिंदी कर पूजा-पाठ कर लेती है ये भी बहस का मुद्दा होता है औरतों में.
आंगन में पूनम और चन्दर के साथ दिल्ली जाने वाले सामानों की थैलियां, कई तरह के झोले, बड़का सूटकेस, छोटका सूटकेस, तिलक में चढ़ाए हुए बर्तन-सेट के साथ चावल, दाल और गेंहू की बोरियां तैयार थीं. रसोई से उठती सोंधी-सोंधी खुश्बू बता रही थी कि ठेकुआ भी तैयार किया जा रहा है. रोज़ सुबह दही-चूड़ा खाने वाला ब्राह्मण दिल्ली में चूड़ा खरीद के खाएगा? ना. तो कतरनी चूड़े की दो बोरियां अलग तैयार थीं. दादी ने तो रंभुवा को बगइचा में सुबह-सुबह ही दौड़ा दिया था कटहल तोड़ के लाने के लिए. वहां दिल्ली में ऐसा गाछ का हरिहर कटहल कहां मिलेगा? शरीफा भी तोड़वाया जा चुका था. 'बहुत महंगा शरीफा मिलता है दिल्ली में,' चन्दर बता रहा था.
साथ जाने वाले सामानों  की फेहरिस्त बढ़ती ही जा रही थी. चन्दर ने अम्मा को आवाज़ लगाई-
अम्मा,पगला गई हो? इतना सामान क्यों दे रही हो? बाज़ार थोड़ी लगाना है!
अम्मा- 'अरे कितना सामान है रे चन्दर! डेढ़ सौ बीघा खेत अकेले जोतनिहार का बेटा पन्नी में चावल-दाल खरीद के खाएगा परदेस में? हमलोग का इज्जत है कि नहीं बिरादरी में! कल ही रहुलवा कह रहा था कि घर से चावल ले जाना भूल गए इस बार. सारी कमाई चावल खरीद के खाने में लग गई.'
चन्दर- 'अरे तो सिर्फ़ चावल का बोरा दो न. चार-चार बोरा काहे तैयार की हो? कौन ढोएगा इतना सामान? ट्रेन यहां दो मिनट के लिए रुकती है बस. तुम्हारी पतोह को बैठाएंगे कि सामान देखेंगे?'
बाहर से अंदर आते पिताजी ने गरजदार आवाज़ में फैसला सुनाया- 'सामान ज़्यादा है तो अपने कपड़ों को कम करो. चावल दाल की बोरियां कम नहीं होंगी.'
चन्दर ने सर पकड़ लिया. कहां तो उसने सेकंड एसी में एक रोमांटिक सफर का ख़्वाब बुना था कहां उसे अब इतने सामानों की चौकीदारी में लगना था. उसने सोचा पूनम को ही बोलता हूं वो अपने सामान कुछ कम कर ले. कमरे में गया तो देखता क्या है दीवान के अंदर घुसी पूनम एक अलग ही दुकान खोलने की तैयारी में है. तमाम साड़ियों और मैचिंग चूड़ियों के साथ स्वीट ड्रीम्स लिखे हुए तकिया के खोल सहित चादरें तो सिंधी स्टिच वाले टेबल क्लॉथ भी. सुग्गा-सुग्गी की जोड़ी वाले परदे तो शादी वाला लहंगा भी.
'अरे यार, क्या है ये? फिर घर दुबारा नहीं आना है क्या?'
पूनम ने बड़े वाले ट्रंक के अंदर से तिलक में चढ़ाया गया बजाज का मिक्सी और माइक्रोवेव निकाल कर चन्दर को पकड़ाया और तांबे वाले बर्तनों के सेट पर सोचनीय दृष्टि डाली. चन्दर कांप उठा- 'पूनम, पूरी ट्रेन में सिर्फ हम नहीं जा रहे हैं.'
'अरे कुली कर लेंगे न! आपको थोड़ी न ढो के ये सारा सामान ले जाना है दिल्ली तक. आप ही के लिए तो मुजफ्फरपुर मौसी के डेरा पर एक महीना रह कर कुकिंग कोर्स किए थे. माइक्रोवेव तो ले जाना पड़ेगा न वरना सब सीखा-पढ़ा भुला जाएंगे हम', पूनम ने मासूमियत से कहा.
'वहां खरीद लेंगे न! कुछ चीज़ें यहां भी तो रहने दो. आखिर जब छुट्टियों में आओगी तो अपने हाथ का जादू नही दिखाओगी सबको?  'चन्दर ने हार न मानी लेकिन तक तक उधर आंखों से छलकने वाला हथियार तैयार हो चुका था. अब तो चुप रहने में ही भलाई थी.
'औरतों को मायके से मिले एक चम्मच से भी लगाव होता है. पेटी और बक्सों में धूप दिखा-दिखा के जोगाई जाती हैं ब्याह वाली चीज़ें. चाची के बक्सा में तो तब का लक्स साबुन रखा है जब वो एक रुपइया का आता था. अपनी नाउन को उन्होंनें कभी वही साबुन दिया और नाउन ने उस एक रुपइया वाले लक्स की कथा घर-घर मे छींट दी.' चन्दर को ये सारी बातें याद आ गईं जिसे पूनम ने शायद आज ही के दिन को ध्यान में रख कर कभी उसे सुनाईं थीं.
देखते ही देखते ट्रेन का समय हो गया. सासूमां ने पूनम को साथ में लिया और देवकुरी की ओर चलीं. सारे देवी-देवताओं से गलती-सही, भूल-चूक के लिए माफी मांगी. पूनम-चन्दर के जल्द से जल्द दो से तीन होने की भखौती मांगी और बहू की नज़र मन ही मन उतारी. चलते-चलते पूनम ने सासुमां से दिल्ली आने की याचना की और सास ने बहू के सिर पर हाथ रखा.
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उधर छोटे-बड़े कुल पच्चीस सामानों की मोटरी-गठरी तैयार हो गई थी. स्टेशन पर साथ जाने के लिए गांव के कुछ विशेषज्ञ-मुस्टंडे बुलाए गए थे. चूंकि सप्तक्रांति बहुत ही कम समय के लिए रुकती है तो इतने सारे सामान के ज़खीरे को उन्हीं गिने-चुने पलों के अंदर ट्रेन में टिकाने-जमाने वालों की स्पेशल टीम साथ आई थी. ये बेइंतहां खलिहारों की टीम होती है पर इनकी खूबी खास मौसम और मौकों पर परिलक्षित होती है. तो ट्रेन के आते ही ये चीते चौकन्ने हो उठे. जो भी सामान जिसके हाथ आया, उठा कर जो भी डिब्बा सामने दिखा उसमें घुसने लगा.
ये देख चन्दर चिल्ला उठा- 'अरे अपना ससुरारी काहे झोलवा रख रहा है रे रहुलवा?'
ट्रेन के बाहर खड़ा चन्दर पूरी ट्रेन में अपनी चीजों को बंटते देख 'रहुलवा एंड टीम' के सात खानदान अंधाधुंध गालियों की बौछार से तार रहा था. खुद उसके हाथ में शरीफों की थैली थी जिसे दादी ने ये कहकर अलग से पकड़ाया था कि ये बिल्कुल पके हुए हैं और इन्हें रास्ते में ही खा लेना है.
पिताजी पूनम को उसकी बर्थ पर बैठाकर बाहर आए और चन्दर से कहा- 'जाइये बैठिए और सबसे पहले सारी चीजों को इधर-उधर की बोगियों से इकट्ठी कर लीजिएगा.' मन ही मन भुनभुनाता  चन्दर 'जी' कहता हुआ जैसे ही प्रणाम करने के लिए झुका, पिताजी ने देखा उसके कंधे पर जनेऊ नहीं है! ट्रेन में घुसने ही वाले चन्दर को उन्होंने कंधे से पकड़ कर पीछे किया. चन्दर हैरानी से उनका मुंह देखने लगा. पिताजी ने उसे समझाने में समय बर्बाद करने से बेहतर ये सोचा कि क्यों न उसे जनेऊ पहना दिया जाए. उन्होंने कुर्ते की जेब मे हमेशा रहने वाले जनेऊ को निकाल कर चन्दर को पहनाना चाहा पर शर्ट के ऊपर से ये मुमकिन नहीं था. उधर चन्दर को सीटी देती सप्तक्रांति दिख रही थी. वो समझ ही नही पा रहा था कि आखिर पिताजी उसे रोक क्यों रहे हैं. जनेऊ पहनाने के लिए अधीर पिताजी ने उसकी शर्ट खोलनी शुरू की. उधर चन्दर ने चलती ट्रेन की हैंडल उसी हाथ से पकड़ ली जिसमे शरीफों की थैली थी और ट्रेन के साथ-साथ दौड़ना शुरू किया.
चन्दर को हाथ से निकलते देख पिताजी ने रहुलवा को आवाज़ लगाई. बिना जनेऊ तो वो चन्दर को जाने ही नहीं देंगे भले ही दुनिया इधर की उधर हो जाए. रहुलवा हनुमान जी की तरह प्रकट हो गया और अंगद की तरह उसने एक जगह पैर टिका दोनों हाथों से चन्दर का हाथ पकड़ लिया.पिताजी अब तक चन्दर के शर्ट की अधिकतर बटनें खोल चुके थे और जनेऊ अपनी जगह पर पहुंचने ही वाला था. तब तक ट्रेन के अंदर और बाहर मौजूद तमाशाबीनों ने रस्साकस्सी के इस खेल में दोनों पार्टियों का उत्साहवर्धन शुरू कर दिया था.खिड़की पर बैठी पूनम की निगाहें शोर का पीछा करती जब वजह पर पड़ी तो वो अवाक सी गेट पर आई. स्थिति ये थी कि ट्रेन के गेट को पकड़ कर साथ-साथ दौड़ता चन्दर है जिसके हाथों में पूनम का हाथ अब बस आने ही वाला है..और दूसरी तरफ उसका दूसरा हाथ पकड़े रहुलवा के साथ दौड़ते पिताजी हैं. "दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे" का ग्राम्य रूप देख कर सारी पब्लिक जोश में आ चुकी थी. पर "होइहि सोई जो राम रचि राखा." अचानक शरीफे वाली थैली झटके से फटी और पके शरीफे चन्दर के चेहरे पर फेसपैक लगाते हुए पांवों के नीचे बिछ गए.अगले ही पल उन पर चन्दर का पैर फिसला और देखते ही देखते चन्दर ज़मीन पर. पब्लिक अचानक शांत सी हो गई. चन्दर ने धीरे से सर उठाया और पिताजी को आग्नेय नेत्रों से देखा..फिर आंखों के सामने से गुजरती ट्रेन पर नज़र पड़ी और पूनम का हैरान-परेशान चेहरा दिखा.
अब स्टेशन पर गर्दन में अटके जनेऊ,खुली शर्ट के विपरीत दिशाओं में उड़ते पल्लों और पके शरीफों के रस-गंध युक्त चन्दर की काया अवाक सी पड़ी है. तभी किसी के मोबाइल का रिंगटोन बज उठा-'ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ..छोड़ो ये न पूछो."


…टू बी कंटीन्यूड!


वीडियो देखें- किताबवाला: बेखुदी में खोया शहर, एक पत्रकार के नोट्स किताब पर बात

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