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संदीप खरे की कविता 'एक सचमुच का नास्तिक'

एक सचमुच का नास्तिक,जब मंदिर के बाहर ही रुकता है,तब असल में मंदिर की पवित्रता में ही इज़ाफा हो रहा होता है.

मंदिर के बाहर रुका हुआ एक सचमुच का नास्तिक,थके हुए भगवान को बड़ी मिन्नतों से भेजता है मंदिर में.सुनिए संदीप खरे की पूरी कविता.