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कहानी उस कत्ल की, जिसने यूपी में माफियाराज स्थापित कर दिया

सारे गैंगस्टर एक ही गैंगवार से पैदा हुए थे.

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1. आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने 'फ़िराक़' को देखा है
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फिराक गोरखपुरी
फिराक गोरखपुरी का शेर है. उन्हें ये नहीं पता था कि कौन सी नस्ल आ चुकी थी गोरखपुर में उस वक्त. उनके आखिरी दिनों में जेपी का आंदोलन चल रहा था और उन्हीं दिनों में गोरखपुर में इटली से आया शब्द गैंगवार बड़ा ही प्रचलित हुआ था.
2. गोरखपुर में रहना है, तो योगी-योगी कहना है.
adityanath योगी आदित्यनाथ
80 के दशक में छात्रों की एक दुकानदार से बहस हुई थी. वो दौर ही था बहसों का. बहस में दुकानदार ने पिस्तौल निकाल ली. बहस की गुंजाइश खत्म हो गई. पर डरने से तो पार्टी का पक्ष कमजोर हो जाता. छात्रों ने प्रदर्शन किया. एक लड़का एसएसपी आवास की दीवार पर चढ़ गया. गला फाड़ के चीखने लगा. यही लड़का बाद में योगी आदित्यनाथ कहलाया. पर उस वक्त योगी बच्चे थे. क्योंकि वो दौर था हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र प्रताप शाही का.
3. ये वो दौर था जब गोरखपुर के गैंगवार की खबरों को बीबीसी रेडियो पर रोज सुनाता था. यूपी गोरखपुर की वजह से सीधा विश्व के पटल पर आ गया था.

क्या ये अद्भुत नहीं लगता कि जब जेपी देश में इंदिरा की सत्ता बदल रहे थे, उस वक्त कुछ नौजवान गोरखपुर के चिल्लूपार में बैठकर बंदूक की नाल साफ कर रहे थे?

जब देश में जेपी का आंदोलन चल रहा था, गोरखपुर इटली बन रहा था

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गोरखपुर के दक्षिणांचल की सीट है चिल्लूपार. भोजपुरी में लोग जब धमकी देते हैं तो कहते हैं कि मारब त दक्खिन चल जइबा. चिल्लूपार वही वाला दक्खिन है. एक वक्त में यूपी की राजनीति इस छोटी सी विधानसभा से तय होने लगी थी. वीरेंद्र प्रताप शाही और श्री प्रकाश शुक्ला जैसे लोग यहीं से आते थे. शाही को तो शेरे पूर्वांचल भी कहा जाता था. ये वो तमगा है जो यूपी में जनता की पसंद को बताता है. ये बताता है कि जब आप देश में इंडस्ट्री नहीं लाएंगे और सब कुछ सरकारी ठेके से करेंगे तो लोग अपराध को इज्जत से देखने लगेंगे.
थोड़ा पीछे लौटते हैं. 1970 के दशक में देश में जेपी का आंदोलन चल रहा था. छात्र नेता देश को बदलने जा रहे थे. पर गोरखपुर के छात्र वर्चस्व कायम करने में जुटे थे. गोरखपुर यूनिवर्सिटी के छात्रनेता बलवंत सिंह हुआ करते थे. दूसरी तरफ थे हरिशंकर तिवारी. बलवंत सिंह को एक नया लड़का मिला. अपनी जाति का. वीरेंद्र प्रताप शाही. अब जोड़ का तोड़ मिला था. तिवारी ब्राह्मणों का वर्चस्व बना रहे थे. शाही ठाकुरों का. वर्चस्व मतलब जमीन हड़प लेंगे. खरीदेंगे नहीं. पेट्रोल भरा के पैसे नहीं देंगे. कोई आंख मिला के बात नहीं करेगा. सुनने में ये बड़ा रोचक लगता है. पर इस वर्चस्व से जुड़ गया पैसा. रेलवे स्क्रैप की ठेकेदारी मिलने लगी. बहुत पैसा था इसमें. बिना कुछ किये. कहते हैं कि दोनों ने लड़के जुटाए. हथियार जुटाया. और इटली के माफियाओं की तर्ज पर गैंग बना लिये. दोनों माफियाओं के बीच जारी वर्चस्‍व की जंग में पूरा शहर हिल गया था. जनपद मंडल के चार जिलों में कहीं न कहीं रोज गैंगवार में निकली गोलियों की तड़तड़ाहट सुनाई देती थी. आए दिन दोनों तरफ के कुछ लोग मारे जाते थे. कई निर्दोष लोग भी मरते थे. इसकी कई कहानियां हैं. सच्ची-झूठी हर तरह की.
तभी लखनऊ और गोरखपुर विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके युवा विधायक रविंद्र सिंह की हत्या हो गई. कहते हैं कि इसके बाद ठाकुरों के गुट ने वीरेंद्र प्रताप शाही को अपना नेता मान लिया. गोरखपुर माफियाराज से पूरी तरह रूबरू हो चुका था. सरकारी सिस्टम पूरी तरह फेल हो चुका था. प्रदेश की राजधानी में इन दोनों गुटों ने अपनी-अपनी एक समानांतर सरकार बना ली थी. दरबार लगने लगे. जमीनों के मुद्दे इनके दरबार में आने लगे. लोग कोर्ट जाने से बेहतर इनके दरबार को समझने लगे. कहते हैं कि इन दोनों के आशीर्वाद से तमाम छोटे-बडे़ माफियाओं का उदय होने लगा. इसका प्रभाव यहां के सबसे बड़े शिक्षा केंद्र गोरखपुर विवि पर रहा. दखलदांजी यहां की छात्र राजनीति में भी रही. आर्मी तैयार रहती.
harishankar हरिशंकर तिवारी

इसी बीच 1985 में गोरखपुर के ही वीर बहादुर सिंह यूपी के मुख्यमंत्री बन गये. उनके लिए प्रदेश संभालने से ज्यादा महत्वपूर्ण माफियाओं को संभालना था. जनता इसी बात से उनको नाप रही थी कि वो संभाल पाते हैं कि नहीं. वो इसके लिए गैंगस्टर एक्ट लाए. मतलब गुंडा एक्ट. लेकिन दूसरी तरफ दोनों को समाज और राजनीति में स्वीकार कर लिया गया था. पंडित हरिशंकर तिवारी छह बार और वीरेंद्र प्रताप शाही दो बार विधायक चुने गए थे. इन पर आरोप लगता रहा कि ये कानून तोड़ रहे हैं, पर इनके दर पर आकर लोगों को 'न्याय' मिल जाता था. नये लोग भी जुड़ने लगे थे. पूर्व विधायक अंबिका सिंह, पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी, पूर्व सांसद ओम प्रकाश पासवान, पूर्व सांसद बालेश्वर यादव आदि का उनके नुमाइंदे बन लोगों के रहनुमा बन चुके थे. कहते हैं कि 90 का दशक आते-आते अपराध राजनीति और बिजनेस में तब्दील हो चुका था.
ये लोग कितने ताकतवर थे इस बात का अहसास एक घटना से हो जाता है. कोयला माफियाओं के सरताज कहलाने वाले सूर्यदेव सिंह के ऊपर जब गाज गिरी तो प्रधानमंत्री चंद्रशेखर उनके पक्ष में खड़े दिखाई दिए थे.
आखिरकार इलाका घेरने की नौबत आ ही गई. सारे लकड़बग्घे एक साथ नहीं रह सकते थे. 1997 की शुरुआत में श्रीप्रकाश शुक्ला
ने लखनऊ शहर में वीरेंद्र शाही को गोलियों से भून दिया. हल्ला हो गया. पुराने माफियाओं की भी चोक ले गई.
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वीरेंद्र शाही

श्रीप्रकाश ने अपनी हिट लिस्ट में दूसरा नाम रखा था कल्याण सरकार में कैबिनेट मंत्री हरिशंकर तिवारी का. कहा जाता है कि श्रीप्रकाश ने अचानक तय किया कि चिल्लूपार की सीट उसे चाहिए. यूपी कैबिनेट में हरिशंकर तिवारी को छोड़कर वह पूरी ब्राह्मण लॉबी के करीब था. कल्याण सिंह को श्रीप्रकाश निजी दुश्मन मानता था. 6 करोड़ में उसने कल्याण सिंह की सुपारी ले भी ली थी. यूपी में पहली बार STF बनाई गई श्रीप्रकाश को मारने के लिए ही. मार भी दिया गया.
Shri-Prakash-SHukla-the-Lallantop श्रीप्रकाश शुक्ला

हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही की दुश्मनी से ही निकले बृजेश सिंह और मुख्तार अंसारी

हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही की दुश्मनी में ही बृजेश सिंह और मुख्तार अंसारी
का उदय हुआ था. आजमगढ़ बाजार में पिता की हत्या होने के बाद बृजेश अपराधी बना था. दबंग ठाकुरों ने बृजेश के पिता को गोली मारी और फिर चाकुओं से गोद दिया था.
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बृजेश सिंह

कहते हैं कि हरिशंकर तिवारी से जुड़े दो लोग थे. इनको शार्प शूटर माना जाता था. ये थे साहेब सिंह और मटनू सिंह. नेताओं की छत्र-छाया में जीते-जीते मटनू का मन ऊब चुका था. इसी बीच मुड़ियार गांव में साहेब सिंह के नजदीकी त्रिभुवन सिंह के बड़े पापा की जमीन को लेकर विवाद शुरू हो गया. उनकी एक बेटी ही थी. पर जमीन काफी थी. मटनू ने ये जमीन हथिया ली. त्रिभुवन सिंह ने इस बात का प्रतिवाद किया. जवाब में मटनू के गिरोह ने त्रिभुवन के तीन भाइयों और पिता की हत्या कर दी. इसी मटनू गिरोह से जुड़े थे मुख्तार. बृजेश साहेब सिंह से जुड़े थे. मटनू का नाम ऊंचा होता गया. पर गाजीपुर जेल के पास एक दिन उसे मार दिया गया. शक की सूई कई लोगों पर थी. इसके बाद मटनू के भाई साधु सिंह ने कमान संभाल ली. पर 1999 यूपी विधानसभा चुनाव के ठीक पहले साधु सिंह को पुलिस कस्टडी में ही अस्पताल में गोलियों से भून दिया गया.कहा जाता है कि इसके बाद इस ग्रुप की कमान संभाल ली मुख्तार ने.
उधर पिता की हत्या के बाद बृजेश साहेब सिंह के साथ ही रहने लगा था. ग्रुप में उसका प्रभाव भी था. एक दिन बनारस में जेल से पेशी पर गये थे साहेब. पुलिस के ट्रक से अभी उतर ही रहे थे कि टेलीस्कोपिक राइफल से चली गोली उनकी कनपटी पे लगी. इस हत्या में मुख्तार का नाम आया. फिर ग्रुप की कमान बृजेश सिंह के हाथ में आ गई. अब मुख्तार और बृजेश के बीच मुकाबला सीधा हो गया.
मुख़्तार अंसारी क्रेडिट: PTI
मुख़्तार अंसारी

मुख्तार और बृजेश के गिरोह के बीच कई बार आमने-सामने भी गोलियां चलती थीं. मुख्तार ज्यादातर समय जेल में होता था. ये उसके लिए सबसे मुफीद जगह थी. जबकि बृजेश अंडरग्राउंड रहता था. एक बार तो बृजेश सिंह ने गाजीपुर जेल में बंद मुख्तार अंसारी पर गोलियां चलाईं. लेकिन, धीरे-धीरे मुख्तार अंसारी मजबूत पड़ता गया. बनारस में अवधेश राय की हत्या के बाद बृजेश सिंह इस क्षेत्र में कमजोर हो गया. इनके अलावा गोरखपुर में शिव प्रकाश शुक्ला, आनंद पांडेय, राजन तिवारी और श्रीप्रकाश शुक्ला जैसे लोग भी मैदान में आ गये थे. माना जाता है कि हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही के तैयार किये गये लड़के उनके ही गढ़ में उनको चुनौती देने लगे. 1995 तक ये लोग अपने आकाओं के हाथ से बाहर हो चुके थे. ये लड़के इतने उद्दंड थे कि किसी को भी अपने सामने किसी चीज में खड़े नहीं होना देने चाहते थे. इनके टारगेट पर हर वो छुटभैया था जिसके आगे चलकर बदमाश बनने की संभावना थी. इन मनबढ़ू लड़कों ने छोटे-छोटे गुंडों को ठिकाने लगाना शुरू किया. फिर इनके टारगेट में राजनीतिक आका आ गये. श्रीप्रकाश शुक्ला तो हरिशंकर तिवारी को मारकर उन्हीं की विधानसभा चिल्लूपार से चुनाव लड़ने की तैयारी में था. पर ऐसा हो नहीं पाया. पर कई बार कोशिश करने के बाद शुक्ला ने वीरेंद्र शाही को तो मार दिया. बाद में बृजेश सिंह और मुख्तार अंसारी दोनों ही विधान परिषद और विधान सभा में आ गये. इससे पहले दो कट्टर दुश्मन हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र प्रताप शाही ही ऐसे नेता थे जो सदन में एक साथ आये थे.

हरिशंकर तिवारी की कहानी भारत की राजनीति में स्थान रखती है

हरिशंकर तिवारी उस वक्त उठे थे जब देश में नेता इंदिरा के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे. उस वक्त नेता समाजवाद की लड़ाई लड़ रहे थे. जेल जा रहे थे. नई सरकार बनाना चाहते थे. कांग्रेस हटाना चाहते थे. इकॉनमिक सुधार करना चाहते थे. पर गोरखपुर के कुछ लोगों ने अपने लिए अलग जगह बना ली. क्राइम को राजनीति में तब्दील कर दिया. ये वो चीज थी जो आने वाले सालों में राजनीति में छा जाने वाली थी. ये वो ब्रीड थी जो बाद में हर राजनेता का पहला और आखिरी हथियार बन गया. ये वो बैलट था जो चुनाव में जीत पक्की करवा रहा था. ये वो वादा था जिसे जनता पूरा ही समझती थी. हरिशंकर तिवारी ने जाने-अनजाने में राजनीति ही बदल दी. जहां जनता बिजली, पानी, सड़क खोजने लगी थी, अचानक लोग बंदूकें गिनने लगे. गाड़ियों के काफिले गिनने लगे. ये देखने लगे कि किसकी गाड़ी के सामने कौन रास्ता बदल लेता है.
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हरिशंकर तिवारी टोपी पहने हुए

80 के करीब पहुंच चुके हरिशंकर तिवारी स्टूडेंट लाइफ में गोरखपुर में किराए पर कमरा ले के रहते थे. पर आज जटाशंकर मुहल्ले में उनका किले जैसा घर है. इसे हाता के नाम से जाना जाता है. चिल्लूपार से तिवारी 3 बार निर्दलीय विधायक रहे. बाद में 2 बार कांग्रेस के टिकट पर जीते. इनका बेटा कुशल उर्फ भीष्म तिवारी खलीलाबाद से बसपा सांसद है. इनका भांजा गणेश शंकर विधान परिषद का अध्यक्ष है. दूसरा बेटा विनय तिवारी विधानसभा और लोकसभा दोनों के चुनाव हार चुका है. पर हरिशंकर तिवारी का तो फिक्स रहा है. सरकार किसी की भी हो, तिवारी का रसूख बराबर रहता है. 1998 में कल्याण सिंह की सरकार में वो साइंस और टेक्नॉलजी मंत्री रहे. 2000 में रामप्रकाश गुप्ता की सरकार में स्टांप रजिस्ट्रेशन मंत्री रहे हैं. 2001 में राजनाथ सिंह की सरकार में भी मंत्री रहे. फिर 2002 की मायावती सरकार में भी मंत्री रहे. 2003-07 की मुलायम सरकार में भी मंत्री रहे.
80 के दशक में गोरखपुर के चिल्लूपार से हरिशंकर तिवारी और महाराजगंज के लक्ष्मीपुर से वीरेंद्र शाही ने दोनों ने बाहुबल के भरोसे निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में राजनीति में कदम रखा था. अप्रत्यक्ष रूप से तिवारी को कांग्रेस और शाही को जनता पार्टी सपोर्ट कर रही थी. तिवारी के खिलाफ उसी दौरान दर्जनों मुकदमे दर्ज हुए. हत्या, हत्या की कोशिश, वसूली, सरकारी काम में बाधा जैसे मामले थे. हत्या तो हो ही गई लोगों की. हत्या की कोशिश का मकसद लोगों को डराना था. चाहते तो मार भी सकते थे. पर ये कोशिश से उपजा दृश्य बाकी लोगों के मन में खौफ भर देता है. क्योंकि विक्टिम कई दिन अस्पताल में खून चढ़वाने के बाद विकृत चेहरे के साथ बाहर निकलता है तो बाकी लोगों की रूहें कांप जाती हैं. वसूली तो सर्वाइवल टैक्स है. सरकारी काम में बाधा मतलब टेंडर छीन के भर लेना. नाके पर पुलिस को थप्पड़ जड़ देना. गाड़ी चेक ना करवाना. धुंआ फेंकती जीप लेकर घूमना. अवैध हथियारों से फायरिंग करना. इसका अलग केस बनता है. पुलिस रोके तो उसी के हथियार छीन के फायर कर देना. ये वाला सरकारी काम में बाधा है.
तिवारी ने रेलवे साइकिल स्टैंड, रेलवे स्क्रैप से लेकर बालू तक में हाथ जमा लिया. उस दौर के एकमात्र नेता थे जो जेल में रहने के बाद भी चुनाव जीत गए. चुनाव जीतने का तरीका पुराना ही था. रॉबिनहुड वाला. अपने इलाके में किसी गरीब को परेशान होने नहीं देना है. गाहे-बगाहे मदद कर देनी है. किसी के घर शादी-विवाह में पहुंच कर अनुग्रहीत कर देना है. गरीब आदमी को रेलवे ठेके से क्या मतलब.
फिर वो वक्त भी आया, जब अपराध का ग्लैमर कम हुआ. लोग जानने-समझने लगे थे. डर भी कम होने लगा था. 2007 में श्मशान बाबा के नाम से मशहूर राजेश त्रिपाठी ने हरिशंकर तिवारी को चिल्लूपार में हरा दिया. त्रिपाठी बसपा से थे. त्रिपाठी ने 2012 में भी हरिशंकर तिवारी को हरा दिया. मजे की बात ये है कि अब तिवारी के कुनबे के ज्यादातर नेता बसपा में आ गये हैं. 2017 के चुनाव में आखिरकार हरिशंकर तिवारी को सफलता मिल ही गई है. बेटे विनय को बसपा से टिकट दिलवा दिया है. राजेश त्रिपाठी को बसपा ने टिकट नहीं दिया है. वो भाजपा में आ गये हैं. राजेश त्रिपाठी ने सबसे पहले हरिशंकर तिवारी के परिवार पर जानलेवा हमले का आरोप लगाया है. अपनी हत्या की आशंका जताई है. पर अब हरिशंकर तिवारी पर कोई केस बचा नहीं है. राजनीति कमजोर जरूर है, रसूख कम नहीं हुआ है.
अगर ध्यान से देखें तो ये सारी बातें सरकारी ठेकों के इर्द-गिर्द घूमती हैं. अगर कोई पिता की हत्या का बदला लेने के लिए गैंगस्टर बनता है तो ये एक बार की घटना है. बदला ले लिया, बात खत्म. पर उनको गैंगस्टर बनाए रखने में सरकारी ठेके मदद करते हैं. वो उनको एक नये तरीके की खाद देते हैं. 



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