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'शून्य में अकेला खड़ा होना पहाड़ की महानता नहीं मजबूरी है'

एक कविता रोज़ में आज पढ़िए अटल बिहारी वाजपेयी की कविता 'ऊंचाई'.

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राजनीतिज्ञ अटल बिहारी वाजपेयी को हम सब जानते हैं. कवि अटल बिहारी वाजपेयी को भी बहुत से लोग जानते हैं. विविध मंचों से और यहां तक कि संसद में भी वो अपनी कविताओं को पढ़ चुके हैं. उनकी कविताओं का एक एल्बम भी आ चुका है जिन्हें जगजीत ने रिसाईट किया/गाया है और जिसके विडियो में हमें शाहरुख़ खान दिखते हैं.

तो आइए आज कवि अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता पढ़ी जाए:


ऊंचाई

ऊंचे पहाड़ पर पेड़ नहीं लगते पौधे नहीं उगते न घास ही जमती है

जमती है सिर्फ बर्फ जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और मौत की तरह ठंडी होती है

खेलती, खिलखिलाती नदी जिसका रूप धारण कर अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है

ऐसी ऊंचाई जिसका परस पानी को पत्थर कर दे

ऐसी ऊंचाई जिसका दरस हीन भाव भर दे अभिनंदन की अधिकारी है आरोहियों के लिये आमंत्रण है उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं

किन्तु कोई गौरैया वहां नीड़ नहीं बना सकती

ना कोई थका-मांदा बटोही उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है

सच्चाई यह है कि केवल ऊंचाई ही काफ़ी नहीं होती

सबसे अलग-थलग परिवेश से पृथक अपनों से कटा-बंटा शून्य में अकेला खड़ा होना पहाड़ की महानता नहीं मजबूरी है

ऊंचाई और गहराई में आकाश-पाताल की दूरी है

जो जितना ऊंचा उतना एकाकी होता है हर भार को स्वयं ढोता है चेहरे पर मुस्कानें चिपका मन ही मन रोता है

ज़रूरी यह है कि ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो

जिससे मनुष्य ठूंठ सा खड़ा न रहे औरों से घुले-मिले किसी को साथ ले किसी के संग चले

भीड़ में खो जाना यादों में डूब जाना स्वयं को भूल जाना अस्तित्व को अर्थ जीवन को सुगंध देता है

धरती को बौनों की नहीं ऊंचे कद के इंसानों की ज़रूरत है

इतने ऊंचे कि आसमान छू लें नये नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें

किन्तु इतने ऊंचे भी नहीं कि पांव तले दूब ही न जमे कोई कांटा न चुभे कोई कली न खिले

न वसंत हो, न पतझड़ हो सिर्फ ऊंचाई का अंधड़ मात्र अकेलेपन का सन्नाटा

मेरे प्रभु! मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना ग़ैरों को गले न लगा सकूं इतनी रुखाई कभी मत देना.