गुलाबी चूड़ियां
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ, सात साल की बच्ची का पिता तो है! सामने गियर से उपर हुक से लटका रक्खी हैं कांच की चार चूड़ियां गुलाबी बस की रफ़्तार के मुताबिक हिलती रहती हैं… झुककर मैंने पूछ लिया खा गया मानो झटका अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा आहिस्ते से बोला: हां सा’ब लाख कहता हूं नहीं मानती मुनिया टांगे हुए है कई दिनों से अपनी अमानत यहां अब्बा की नज़रों के सामने मैं भी सोचता हूं क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियां किस ज़ुर्म पे हटा दूं से? और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा और मैंने एक नज़र उसे देखा छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आंखों से तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर और मैंने झुककर कहा - हां भाई, मैं भी पिता हूं वो तो बस यूं ही पूछ लिया आपसे वरना किसे नहीं भाएंगी? नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियां!कुछ और कविताएं यहां पढ़िए: