The Lallantop

एक कविता रोज: 'जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बांधे'

'तब मैंने अपने दिल में लाखों ख़याल बांधे'

Advertisement
post-main-image
फोटो - thelallantop
आज पढ़िए 18वीं सदी की दिल्ली के शायर मिर्ज़ा मोहम्मद रफ़ी सौदा की एक ग़ज़ल.
  जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे तब मैंने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधे दो दिन में हम तो रीझे ऐ वाए हाल उन का गुज़रे हैं जिन के दिल को याँ माह ओ साल बाँधे तार-ए-निगाह में उस के क्यूँकर फँसे न ये दिल आँखों ने जिस के लाखों वहशी ग़ज़ाल बाँधे जो कुछ रंग उस का सो है नज़र में अपनी गो जामा ज़र्द पहने या चेरा लाल बाँधे तेरे ही सामने कुछ बहके है मेरा नाला वरना निशाने हम ने मारे हैं बाल बाँधे बोसे की तो है ख़्वाहिश पर कहिए क्यूँके उस से जिस का मिज़ाज लब पर हर्फ़-ए-सवाल बाँधे मारोगे किस को जी से किस पर कमर कसी है फिरते हो क्यूँ प्यारे तलवार ढाल बाँधे दो-चार शेर आगे उस के पढ़े तो बोला मज़मूँ ये तू ने अपने क्या हस्ब-ए-हाल बाँधे ‘सौदा’ जो उन ने बाँधा ज़ुल्फों में दिल सज़ा है शेरों में उस के तू ने क्यूँ ख़त्त-ओ-ख़ाल बाँधे ***
आप भी कविताएं लिखते हैं? हमको भेज दीजिए lallantopmail@gmail.com पर. और हां, और कविताएं पढ़ने के लिए नीचे बने ‘एक कविता रोज़’ टैग पर क्लिक करिए.

Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement