मुलायम सिंह यादव नहीं रहे. सोमवार, 10 अक्टूबर की सुबह 8 बजकर 16 मिनट पर गुड़गांव स्थित मेदांता अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली. और मुलायम सिंह यादव के आसपास खबरें लिखी जा रही हैं. किस्से याद किए जा रहे हैं. और हम याद कर रहे हैं वो समय, जब मुलायम सिंह यादव यूपी की राजनीति में आए थे. साल था 1967. उसी साल मुलायम सिंह यादव ने इटावा की जसवंत नगर विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर मुख्यधारा की राजनीति में कदम रखा था. उसके बाद अगले 54 सालों तक वे उत्तर भारत, खासतौर पर उत्तर प्रदेश की राजनीति का बड़ा चेहरा रहे.
नेतागिरी के पहले क्या करते थे मुलायम सिंह यादव? ये है असली कहानी!
किसने मिलवाया था लोहिया से?

इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार राहुल श्रीवास्तव बताते हैं कि स्कूल के दिनों में एक दलित लड़के को अगड़ी जाति के लड़कों की मारपीट से बचाने के लिए मुलायम अकेले ही उनसे भिड़ गए थे. तब से उनके सहपाठी और जूनियर छात्र उन्हें 'दादा भईया' कहकर बुलाते थे.

22 नवंबर, 1939 को यूपी के इटावा जिला स्थित गांव सैफई में पैदा हुए मुलायम सिंह को विरासत में पक्का घर भी नहीं मिला था. उनका किसान परिवार काफी गरीब था. घर में गिनती के मवेशी थे. गांव की हालत भी घर जैसी ही थी. मुलायम से हुई एक पुरानी मुलाकात के हवाले से राहुल श्रीवास्तव बताते हैं कि उस समय सैफई में सिर्फ एक कुआं पानी का अकेला सोर्स हुआ करता था. कोई भी पक्का रोड नहीं बना था. स्कूल तो था ही नहीं. घर के अंदर और बाहर की तंगहाली के बावजूद मुलायम पढ़ना चाहते थे. लेकिन पिता सुघर सिंह यादव चाहते थे कि बेटा पहलवानी भी करे. सो दोनों काम साथ-साथ चले और मुलायम ने दोनों में ही परफॉर्म करके दिखाया.
उस समय गांव के तत्कालीन प्रधान महेंद्र सिंह गांव के बच्चों को पढ़ाने के लिए रात में क्लास लिया करते थे. मुलायम सिंह और उनके दोस्तों ने महेंद्र सिंह से पढ़ना शुरू किया. बाद में एक और टीचर हुए. उदय प्रताप सिंह. मुलायम को अंग्रेजी पढ़ाते थे. वो उनके पढ़ाई और पहलवानी, यानी दो नावों में एक साथ सवारी करने से आशंकित थे. कहते थे कि कुछ बनना है तो पढ़ाई पर ध्यान दो. लेकिन मुलायम नहीं माने. पहलवानी और पढ़ाई दोनों के चप्पू एकसाथ चलाते रहे.
राहुल श्रीवास्तव लिखते हैं कि गांव के बाहर कॉलेज जाने के लिए मुलायम को एक नाला पार करना होता था जो मानसून में पूरी तरह भर जाता था. ऐसे में उन्हें सारे कपड़े, यहां तक की अंडरवियर भी उतार कर नाला पार करना होता था. वो कपड़ों को एक पॉलीथीन में भर लेते थे. नाला पार जाकर एक हैंडपंप पर नहाते थे और दोबारा कपड़े पहनकर आगे बढ़ते थे. ऐसी कई मुश्किलों से जूझते हुए मुलायम सिंह ना सिर्फ स्टेट लेवल के पहलवान बने, बल्कि उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज की दहलीज तक भी पहुंच गए.

मुलायम सिंह ने पॉलिटिकल साइंस में तीन डिग्रिया ली थीं- इटावा के केके कॉलेज से BA किया था, शिकोहाबाद के एके कॉलेज में BT की पढ़ाई की थी और आगरा यूनिवर्सिटी के बीआर कॉलेज से MA की डिग्री ली थी. बाद में मैनपुरी के करहल स्थित जैन इंटर कॉलेज में . लेकिन वे छात्रों को पढ़ाते क्या थे, इसे लेकर अलग-अलग जानकारी मिलती है. कुछ मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक मुलायम सिंह हिंदी और सामाजिक शास्त्र पढ़ाते थे. ये भी बताया जाता है कि वे छात्रों को अंग्रेजी पढ़ाते थे. हालांकि राजनीति में आने की वजह ना तो कॉलेजी की पढ़ाई बनी और ना ही अध्यापन. यहां काम आई उनकी पहलवानी.
1962 की बात है. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (PSP) के एक स्थानीय नेता नाथू सिंह ने पहलवान मुलायम को एक कुश्ती मुकाबले में देख लिया. नाथू सिंह उस समय विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे. उन्हें अखाड़े में दांव-पेच खेलते मुलायम सिंह इतने पसंद आए कि उन्हें राजनीति में आने का न्योता दे डाला. राहुल श्रीवास्तव के मुताबिक नाथू सिंह ने ही मुलायम को पहली बार समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया से मिलवाया था. 1966 के आसपास जब लोहिया एक रैली के सिलसिले में इटावा पहुंचे तो मुलायम किसी तरह उनसे मुलाकात करने में कामयाब हो गए. इस मौके को मुलायम ने ऐसे पकड़ा जैसे कोई पहलवान अपने विरोधी की गर्दन पकड़ता है और फिर उसे निकलने नहीं देता. लोहिया के नेतृत्व में मुलायम ने समाजवाद का रास्ता पकड़ा और अपना सियासी सफर शुरू किया. फिर लोहिया ने ही दिलवाया जसवंतनगर विधानसभा से टिकट और मुलायम की साइकिल चल निकली.
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