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बिहार का वो सीएम जिसे तीन बार सत्ता मिली, लेकिन कुल मिलाकर एक साल भी कुर्सी पर बैठ न सका

बिहार के पहले दलित सीएम की कहानी.

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भोला पासवान शास्त्री बिहार के पहले दलित सीएम थे. फोटो- आजतक
गांधी जी ने नौजवानों से कहा, अंग्रेजी कॉलेजों का बहिष्कार करो. फिर राष्ट्रवादी कॉलेज स्थापित किए ताकि नई पीढ़ी पढ़ सके. ऐसा ही एक कॉलेज था, काशी विद्यापीठ. यहां बिहार के पूर्णिया जिले के बैरगाछी गांव का एक लड़का संस्कृत पढ़ने पहुंचा. उसका पढ़ना खास था. क्योंकि वो दलित समाज से आता था. संस्कृत और कर्मकांडों पर कमोबेश उच्च वर्ण का कब्जा था. 1939 के साल में लड़के की ग्रेजुएशन पूरी हुई. संस्कृति की व्यवस्था में बीए की इस डिग्री को शास्त्री कहा जाता है. ये डिग्री उसके नाम के साथ हमेशा जुड़ गई. उसका नाम था, भोला पासवान शास्त्री. ये नाम बिहार के मुख्यमंत्रियों की सूची में तीन दफा दिखेगा आपको. और हर दफा जबरदस्त पॉलिटिक्स.

अंक 1

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सत्ता का विनोदानंद फॉर्मूला

पाटलिपुत्र में सीएम की कुर्सी जैसे म्यूजिकल चेयर का गेम हो गया था. ये 1967 का समय था. जनक्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा सीएम बने तो संसोपा का एक गुट बागी हो गया, बीपी मंडल की अगुवाई में. फिर बीपी मंडल सीएम बने तो बाहर से सपोर्ट दे रही कांग्रेस का एक गुट बागी हो गया, पूर्व सीएम विनोदानंद झा के नेतृत्व में. फिर नई सरकार की तैयारी. विपक्ष सरकार बनाता तो कांग्रेस तिकड़म करती और कांग्रेस सरकार बनवाती तो विपक्ष के दल सक्रिय हो जाते. ऐसे में विनोदानंद ने खुद के बजाय अपने एक साथी विधायक को बतौर सीएम आगे किया. दलित समाज से आने वाले और कई मंत्रालयों का अनुभव रखने वाले भोला पासवान का नाम.
कैसे जुटा ये अनुभव. काशी विद्यापीठ से पढ़कर लौटे भोला पूर्णिया में पत्रकार हो गए. राष्ट्र संदेश अखबार के लिए. कांग्रेस की नेतागीरी भी साइड में चलती रही. पहले डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्य बने, फिर प्रोविजन असेंबली के. 1952 से चुनाव शुरू हुए तो उन्होंने पूर्णिया जिले की बनमनखी सीट चुनी. लगातार तीन चुनाव जीते और तीनों ही दफा अलग-अलग कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की परिषद का हिस्सा बने. 1967 में उन्होंने सीट बदली. पूर्णिया की ही कोढा सीट पर गए. भोला पासवान फिर जीत गए, लेकिन कांग्रेस इस दफा हार गई तो वह मंत्री के बजाय विपक्ष के विधायक रह गए. पर कहानी यहीं तक नहीं रह जानी थी. एक सिलसिला शुरू होना था, उनके मुख्यमंत्री बनने का.
इस सिलसिले की बुनियाद बगावत थी. कांग्रेस की बिहार में पहली बड़ी बगावत. 128 विधायक थे कांग्रेस के. इसमें से 17 विधायकों ने तय किया, नहीं चलने देनी बीपी मंडल सरकार. अलग हो गए. लोकतांत्रिक कांग्रेस बना ली. पहले बनाना इतना ही आसान था. दल बदल कानून नहीं था. इन 17 विधायकों में बिहार के कई कद्दावर नेता थे, मसलन दीपनारायण सिंह, एलपी शाही और भोला पासवान शास्त्री. इनकी अगुवाई कर रहे थे पूर्व मुख्यमंत्री विनोदानंद झा.
विनोदानंद झा (फाइल फोटो) विनोदानंद झा (फाइल फोटो)

झा ने संसोपा, जनसंघ, सीपीआई और जन क्रांति दल से बैठकें शुरू कीं. शुरुआती बातचीत में ही समझ आ गया कि उनके नाम पर तो सहमित बनने से रही. और तब विनोदानंद ने शास्त्री का नाम आगे कर दिया. इसकी तीन वजहें थीं. पहली, एक दलित को सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठाना संकेतों की राजनीति के लिए अच्छा था. दूसरी, एक पिछड़े समाज के नेता बीपी मंडल की सरकार गिराई थी, ऐसे में अगला चुनाव दलित शोषित वर्ग से नहीं होता तो गलत संदेश जाता. तीसरी वजह, भोला पासवान सियासी संदर्भ में बहुत मजबूत नहीं थे. तो बाकी कद्दावरों को लगा कि उन्हें संचालित करना भी आसान होगा. सबके अपने-अपने तर्क और उसका नतीजा ये कि 22 मार्च 1968 को भोला पासवान ने शपथ ले ली.
ये बहुत सारे पायों पर टिकी सरकार थी. एक पाया था राजा रामगढ़ कामाख्या नारायण सिंह की पार्टी जनक्रांति दल का. कामाख्या भोला पासवान सरकार में मंत्री थे, मगर उनकी चाह कुछ ज्यादा थी. वो चाहते थे कि बिहार सरकार उनके खिलाफ जमींदारी के मसले पर लड़ रहे मुकदमों से पीछे हटे. समाजवादी दल इसके लिए राजी नहीं थे. नतीजतन, 100 दिन पूरा करने से ही पहले सरकार गिर गई. 29 जून 1969 को बिहार में पहली दफा राष्ट्रपति शासन लगा. जल्द ही नए चुनाव का ऐलान भी हो गया.

अंक 2

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13 दिन का सीएम और जनसंघ का समरसॉल्ट

फरवरी 1969 के चुनाव में फिर किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. कांग्रेस के सरदार हरिहर सिंह ने राजा रामगढ़ कामाख्या नारायण की पार्टी जिसका नाम अब जनता पार्टी था, जगदेव प्रसाद के शोषित दल और निर्दलियों के सहारे सरकार बनाई. लेकिन कामाख्या के मंत्री बनती ही मामला जो बिगड़ा तो फिर संभला ही नहीं. शोषित दल और निर्दलीय सरकार को सामंत समर्थक कहने लगे थे. इस दौरान पशुपालन विभाग के पूरक अनुदान पर वोटिंग में सरकार हारी तो हरिहर ने कुर्सी छोड़ दी. इसके बाद विपक्षी दल 1967 की तर्ज पर फिर एक हुए. लोकतांत्रिक कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री जून 1969 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. लेकिन उनके विश्वास मत हासिल करने से पहले ही जनसंघ ने खेल कर दिया. इसके 34 विधायक थे, इनके बिना सरकार नहीं चल सकती थी. और जनसंघ पूर्व कांग्रेसी भोला पासवान के नाम पर सहमत नहीं थी. उधर शास्त्री का कहना था कि जनसंघ हमें अपने हिंदूवादी एजेंडे पर चलाना चाहती थी, इससे इनकार किया तो वे बिदक गए. जो भी हो, शास्त्री की सरकार महज 13 दिन में गिर गई. अब किसी का दावा नहीं था, इसलिए राज्य में चुनाव के पांच महीने के अंदर और दो मुख्यमंत्रियों के बाद फिर से राष्ट्रपति शासन था. कुछ महीनों के बाद राष्ट्रपति के ही सवाल पर कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई. बिहार के 118 विधायकों में भी दो फाड़. इंदिरा गांधी की कांग्रेस आर में 60 विधायक आए और इनके नेता बने दरोगा प्रसाद राय. राय ने विपक्षी दलों को साथ लेकर बहुमत का नंबर जुगाड़ा, और सीएम बन गए. ये सरकार साल भर भी नहीं चली और नंबर आ गया कर्पूरी ठाकुर का. कर्पूरी सरकार आधा साल भी नहीं चली. और फिर तीसरी दफा, आखिरी दफा, भोला पासवान के नाम की चर्चा होने लगी. लेकिन एक जिच थी.
कर्पूरी ठाकुर पर जारी डाक टिकट. कर्पूरी ठाकुर पर जारी डाक टिकट.

भोला पासवान पहली दो दफा जिस लोकतांत्रिक कांग्रेस के नेता की हैसियत से सीएम बने थे, उस दल के सर्वेसर्वा थे विनोदानंद झा. झा ने बदले राजनीतिक माहौल में इंदिरा गांधी का दामन थामा था. इंदिरा की साथ आने पर इकलौती शर्त थी, पार्टी का कांग्रेस आर में विलय करो. इसके लिए झा समेत सब नेता तैयार थे. बस भोला पासवान को इनकार था. तो ज्यादातर विधायक कांग्रेस में चले गए. भोला पासवान एकला चलते रहे. और यही फैक्टर उन्हें तीसरी बार शपथ दिला गया.

अंक 3

डिप्टी सीएम की रेस और भोला का दिल्ली कूच

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राज्य की सत्ता में संघर्ष सीएम के लिए सबसे ज्यादा होता है. लेकिन कर्पूरी सरकार गिरने के बाद कांग्रेस आर के नेताओं में डिप्टी सीएम के लिए होड़ लगी. कांग्रेस आर के तीन बड़े नेता थे, रामजयपाल सिंह यादव, बुद्धदेव सिंह और रामलखन सिंह यादव, तीनों ने आलाकमान के सामने भोला पासवान को आगे कर सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा. कांग्रेस के नाम पर प्रसोपा और झारखंड पार्टी जैसे दल राजी नहीं होते. ऐसे में भोला पासवान के नाम पर समाजवादी, कांग्रेसी और कम्युनिस्ट, सबको एक छतरी तले लाया गया. केंद्र में तब तक इंदिरा गांधी अपने दम सरकार बना चुकी थीं. उन्हें लगा, जब राजनीतिक माहौल उपयुक्त होगा, सरकार गिरा चुनाव करा लेंगे.
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इस गुणा गणित के तहत 2 जून 1971 को भोला पासवान शास्त्री के नेतृत्व में लोकतांत्रिक दल, कांग्रेस (आर), शोषित दल और एन ई होरो की झारखंड पार्टी की मिली-जुली सरकार ने शपथ ली. इसे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सीपीआई ने बाहर से समर्थन दिया. इस सरकार में रामजयपाल सिंह यादव उप-मुख्यमंत्री बनाए गए. रामलखन सिंह यादव और बुद्धदेव सिंह के हिस्से मंत्री पद आया. इन कांग्रेसी मंत्रियों ने कुछ ही महीनों में आलाकमान के इशारे पर पुराना कोरस अलापना शुरू कर दिया. कि लोकतांत्रिक कांग्रेस, अपना विलय कांग्रेस आर में करे. भोला पासवान जानते थे, ऐसा करते ही प्रसोपा और शोषित दल छिटक जाएंगे. रस्साकशी चलती रही, कांग्रेस आर ने दबाव बनाने के लिए 27 दिसंबर 1971 को अपने मंत्रियों के कैबिनेट से सामूहिक इस्तीफे करवा दिए. कुछ रोज बाद भोला पासवान राजभवन पहुंचे, इस्तीफा सौंपा और विधानसभा भंग की सिफारिश कर दी. फरवरी 1972 में नए चुनाव का ऐलान हुआ. और इन दो महीनों में इंदिरा ने असंभव को संभव कर दिया. भोला पासवान पार्टी के कांग्रेस आर में विलय को राजी हो गए और इस विधानसभा चुनाव में इंदिरा की पार्टी के टिकट पर पुरानी कोढा सीट से जीत विधायक बने. मगर कुछ ही महीनों में उनका इस्तीफा हो गया क्योंकि इंदिरा ने भोला को दिल्ली दरबार में बैठाने का फैसला किया.

अंक 4

कमीशन, नो कमीशन और श्राद्ध कर्म के भी पैसे नहीं

राज्यसभा सांसद भोला पासवान को इंदिरा सरकार ने शहरी विकास और आवास महकमे का कैबिनेट मंत्री बनाया. इमरजेंसी के दौर में और उसके बाद भी भोला इंदिरा के वफादार बने रहे. राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने से पहले वो कुछ दिनों के लिए सदन में नेता प्रतिपक्ष भी बने. कुछ दिनों ही क्यों, क्योंकि ये पद कमलापति त्रिपाठी के पास था, लेकिन उनका कार्यकाल खत्म हो गया था, तब इंदिरा ने भोला पर भरोसा जताया. लोगों ने कहा, जनता पार्टी सरकार में उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम के मुकाबले इंदिरा नया दलित नेता तैयार कर रही हैं.
इंदिरा के इस राजनीतिक पैंतरे का काउंटर जल्द ही जनता पार्टी की तरफ से आया. मोरार जी सरकार ने 1978 में संविधान के अनुच्छेद 338 के तहत पहली बार अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग (SC-ST commission) गठित किया. आयोग के पहले अध्यक्ष भोला पासवान बनाए गए. विपक्ष के नेता को सत्ता पक्ष ऐसी जिम्मेदारी सौंपे, इसके क्या निहितार्थ हो सकते हैं. सबने कयास लगाए. और शास्त्री, उन्होंने कमीशन की अध्यक्षी के बाद सियासत से हाथ जोड़ लिए.
9 सितंबर 1984 को भोला पासवान शास्त्री का देहांत हो गया. उनकी कोई संतान नहीं थी. भतीजे विरंची पासवान ने मुखाग्नि दी. और चाचा की सियासी विरासत. सब कहानियां एक सी नहीं होतीं. विरंची मनरेगा की मजदूरी करते हैं. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, जब चाचा मरे तो हमारे पास इतना पैसा भी नहीं था कि श्राद्ध कर्म ठीक से कर सकें. भोला पासवान का जीवन ऐसा ही था, कभी भी उन पर निजी बेईमानी का आरोप नहीं लगा. अपने गांव में सड़क तक नहीं बनवाई कि कोई ये न कहे कि वीआईपी ट्रीटमेंट दे रहे हैं. गांव जाते तो गाड़ी के बजाय बैलगाड़ी प्रेफर करते. और दरी पर ही पसर जाते.

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