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सूरज पर दिखा धब्बा कोई 'गड्ढा' नहीं था, धरती पर क्या मुसीबतें ला सकता है कोरोनल होल?

सूरज की सबसे निचली परत को क्रोमोस्फेयर कहते हैं और सबसे ऊपर की परत को कोरोना. इसी कोरोना पर कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं होती हैं. कोरोनल होल भी सूरज की ऊपरी परत यानी कोरोना में होने वाली घटनाओं का नतीजा है.

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सूरज की सतह पर हुआ गड्ढा. (फोटो-नासा/इंडिया टुडे)

हमारे सौर मंडल के 450 करोड़ साल पुराने तारे सूरज में बड़ा विस्फोट हुआ है. खबर चली कि 'सूरज में गड्ढा' हो गया है. हालांकि ये गड्ढा नहीं है. इसे ‘कोरोनल होल’ कहते हैं. अब ‘होल’ लिखा है तो इसका मतलब 'गड्ढा' ना निकालें.

हम पृथ्वीवासी सूरज के जिस हिस्से को देख पाते हैं उसे फोटोस्फेयर कहा जाता है. सूरज की कोई ठोस सतह नहीं है. इसकी सबसे निचली परत को क्रोमोस्फेयर कहते हैं और सबसे ऊपर की परत को कोरोना. सूरज की तेज रौशनी के चलते हमें कोरोना दिखता नहीं. सूर्यग्रहण के दौरान कुछ विशेष उपकरणों के जरिए ही इसे देखा जा सकता है. इसी कोरोना पर कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं होती हैं. कोरोनल होल भी सूरज की ऊपरी परत यानी कोरोना में होने वाली घटनाओं का नतीजा है.

क्यों बनता है कोरोनल होल?

जैसा पहले ही बताया, कोरोनल होल कोई गड्ढा नहीं है. ये सूरज की कोरोना लेयर से निकले गैस के बड़े-बड़े बबल या बुलबुले हैं जिन पर मैग्नेटिक फील्ड लाइंस लिपटी होती हैं. ये प्रक्रिया कई घंटे तक चलती है. इसे कोरोनल मास इजेक्शन (CME) कहते हैं. नासा के मुताबिक, CME रेडिएशन और सूरज के पार्टिकल्स के गोले हैं, जो मैग्नेटिक लाइंस फील्ड्स के एक साथ आने पर बहुत तेजी से फटते हैं.

सूरज की सतह पर कोरोनल मास इजेक्शन (फोटो-सोलर एंड हीलिओस्फेरिक ऑब्जर्वेटरी/नासा)

नासा के वैज्ञानिकों ने सूरज की सतह पर एक बहुत बड़े कोरोनल होल का पता लगाया है. इसकी चौड़ाई 8 लाख किलोमीटर है. बताया गया कि ये इतना बड़ा है की हमारी धरती जैसे 60 ग्रह इसमें समा सकते हैं. 2 दिसंबर को वैज्ञानिकों ने सूरज की सतह पर इसकी खोज की. 

कोरोनल होल से पृथ्वी की तरफ सोलर विंड आने का सिलसिला 4 दिसंबर से लगातार जारी है. इसके असर से लोगों को आसमान में चमकदार रौशनी देखने मिल सकती है. इसे कहते हैं सोलर एक्टिविटी. ये एक्टिविटी हमेशा एक जैसी नहीं रहती. कभी कम तो कभी ज्यादा होती है. ज्यादा सोलर एक्टिविटी के कारण ज्यादा सनस्पॉट बनते हैं. माने काले धब्बे. सूरज की सतह पर जहां-जहां मैग्नेटिक फील्ड बहुत ज्यादा होती है, वहां सूरज की अंदरूनी एनर्जी अंदर ही रुक जाती है. इसलिए काला धब्बा सा दिखता है.

धरती पर क्या असर पड़ेगा?

जब सूरज से एक CME रिलीज होता है तो उसके साथ-साथ स्पेस में सूरज के करोड़ों टन चार्ज्ड पार्टिकल भी रिलीज होते हैं. ये पार्टिकल 30 लाख किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से चलते हैं और अगर इनकी दिशा पृथ्वी की तरफ है तो पृथ्वी पर जियोमैग्नेटिक स्टॉर्म या दूसरे शब्दों में कहें तो आता है सोलर स्टॉर्म. 

सोलर स्टॉर्म पृथ्वी पर कई तरह के बुरे प्रभाव डाल सकते हैं. मसलन, सोलर तूफ़ान से वायरलेस कम्युनिकेशन, जीपीएस और मोबाइल फोन सर्विसेज बाधित हो सकती हैं. एयरलाइंस, रेडियो और ड्रोन कंट्रोल करने वाली डिवाइसेज के ऑपरेशन में दिक्कत आ सकती है. फ्लाइट्स लेट हो सकती हैं, पानी के जहाज़ों को अपना रास्ता बदलना पड़ सकता है, रेडियो के लो फ्रीक्वेंसी चैनल्स ठप पड़ सकते हैं.

स्टॉर्म से उपजे मैग्नेटिक डिस्टरबेंस की वजह से औरोरा बोरेलिस भी दिखता है. (फोटो-गेट्टी)

जब CME के चार्ज्ड पार्टिकल पृथ्वी से टकराते हैं तो इलेक्ट्रिक करेंट पैदा हो सकता है जिसके चलते पावर सप्लाई की लाइनें खराब हो सकती हैं, बिजली के उपकरण काम करना बंद सकते हैं. इस सोलर स्टॉर्म से उपजे मैग्नेटिक डिस्टरबेंस की वजह से कुछ जगहों पर आसमान में औरोरा बोरेलिस भी दिख सकता है. 

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