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सोशल मीडिया पर विक्टिम को जज को किया बदनाम तो दिल्ली हाईकोर्ट ने बेल रद्द किया

दिल्ली में एक लॉ स्टूडेंट ने महिला को ब्लैकमेल करने के बाद सोशल मीडिया पर उसके और जज के खिलाफ अपमानजनक पोस्ट किए. कोर्ट ने कहा कि ये रवैय्या बर्दाश्त नहीं किया जा सकता और आरोपी की बेल याचिका खारिज कर दी.

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न्यायपालिका

सोचिए, एक इंसान पहले किसी को ब्लैकमेल और हैरस करे, और फिर इतना बेखौफ हो जाए कि उसी केस के चलते सोशल मीडिया पर विक्टिम, उसकी फैमिली और यहां तक कि केस सुनने वाले जज तक के बारे में भी अभद्र बातें लिख दे.

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ऐसा ही हुआ दिल्ली में. आरोपी कोई आम आदमी नहीं बल्कि एक लॉ स्टूडेंट है. यानी वो शख्स जो खुद कानून पढ़ रहा था, वही कानून की मर्यादा तोड़ बैठा. पहले उसने एक महिला को ब्लैकमेल किया, उसके साथ बद्तमीज़ी की. और जैसे ही उसे पता चला कि उस महिला ने उसके खिलाफ केस दर्ज कराया है, उसने बदले की भावना में आकर विक्टिम और उसकी तीन साल की बच्ची की तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाल दीं. साथ ही उन पर बेहद घटिया और अपमानजनक टिप्पणियां कीं.

यहीं नहीं रुका आरोपी. इसके बाद वो सीधा पहुँच गया दिल्ली हाईकोर्ट, एंटीसिपेटरी बेल लेने. यानी गिरफ्तारी से पहले की बेल. उसे लगा कि जैसे पहले के मामलों में उसे बेल मिल गई थी, वैसे ही इस बार भी मिल जाएगी.

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सुनवाई के दौरान आरोपी ने कोर्ट से कहा कि पहले भी ऐसे मामलों में बेल दी गई है, तो इस बार क्यों नहीं. लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने साफ कहा- हर केस अलग होता है. सिर्फ इसलिए कि पहले बेल मिल गई थी, इसका मतलब ये नहीं कि कोई भी इंसान बार-बार अपराध करे और हर बार उसे बेल मिलती रहे. बेल केस की पूरी परिस्थितियों, अपराध की गंभीरता और आरोपी के व्यवहार पर निर्भर करती है.

कोर्ट ने यह भी कहा कि इस मामले में आरोपी का आचरण बेहद निंदनीय है. उसने न केवल अपराध किया बल्कि बाद में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके विक्टिम को और ज्यादा परेशान किया, उसकी तस्वीरें और पता तक सार्वजनिक किया, जिससे उसकी सुरक्षा को खतरा हो सकता था. इसलिए ऐसे व्यक्ति को बेल देना कानून और न्याय- दोनों के खिलाफ होगा.

इसलिए दिल्ली हाईकोर्ट ने आरोपी की एंटीसिपेटरी बेल याचिका खारिज कर दी.

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अब आरोपी पर भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 77 (वॉयरिज़्म), धारा 87 (महिला का अपहरण या जबरन शादी के लिए दबाव डालना), धारा 351 (आपराधिक धमकी) और धारा 308(2) (ब्लैकमेल) के तहत केस चलेगा.

कानून में साफ लिखा है कि जब कोई व्यक्ति अपराध करने के बाद सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके पीड़िता की छवि बिगाड़ने की कोशिश करता है, तो यह अपराध और भी गंभीर माना जाता है. और यही वजह है कि कोर्ट ने साफ कहा- ऐसे मामलों में किसी तरह की रियायत की कोई गुंजाइश नहीं है.

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