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कोई नहीं कह सकता कि वो ऋषिकेश मुखर्जी से महान फ़िल्म निर्देशक है

ऋषि दा और उनकी फिल्मों की ये 8 बातें सबको जाननी चाहिए. आज ही के दिन पैदा हुए थे.

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सत्यकाम (1969).
1. मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में फिलहाल सबसे ऊंचे डायरेक्टर हैं राजकुमार हीरानी. सब बड़े निर्देशक समान भाव से राजू की तारीफ करते नहीं थकते. उन्होंने कमर्शियल और सार्थक सिनेमा को साथ लेकर फिल्में बनाईं. सभी को आलोचकों ने सराहा और सभी ने पैसे भी कमाए. ये राजू हीरानी फिल्मों में न होते अगर ऋषिकेश मुखर्जी न होते. ऋषिदा की फिल्म 'आनंद' को देखकर राजू का जीवन और सोच बदल गई. उन्होंने फैसला किया कि वे फिल्में बनाएंगे. राजू की फिल्मों पर ऋषिदा का व्यापक असर है. पूरा असर है.
2. जिसे आज इंडिपेंडेंट सिनेमा कहा जाता है. जिसे आर्टहाउस सिनेमा कहा जाता है. जिन फिल्मों को ऑस्कर में जीत मिलती है. उनमें जो खास बातें हैं वो सब ऋषिदा की फिल्मों में थीं. जैसे उनकी स्क्रिप्ट को देख सकते हैं. वे कहां से शुरू होकर, किस रास्ते से होते हुए कहां खत्म होतीं इसमें तब प्रचलित स्क्रिप्टराइटिंग के ढर्रों को वे फॉलो नहीं करते थे. उनकी फिल्मों में गूढ़ कला नहीं रखी जाती थी. उनकी फिल्मों में हीरो-हीरोइन के पीछे सैकड़ों लोग नाचते नहीं थे, फिर भी उनके गाने हमें आज भी याद है. उनकी फिल्मों में वही होता था जो असल जीवन में हो सकता है लेकिन फिर भी वे सपनीली थीं.
3. ऋषिदा की फिल्में जीवन में आने वाली मुश्किलों के साथ उपाय भी बताती थीं. कोई उपाय बहुत महंगा नहीं होता था. और जिंदगी में वो तब्दीलियां लाने में छोटे-छोटे प्रयास लगते थे. 'बावर्ची' में हम ये देख सकते हैं.
4. उनकी फिल्में ऊंचे दर्जे की फिलॉसफी लिए होती थीं. जैसे 'आनंद' में मृत्यु को लेकर जो उनकी कविता होती है.
मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिए जब चांद उफक़ तक पहुंचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
न अंधेरा न उजाला हो, न अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब सांस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
ये फिलॉसफी आप दुनिया के सर्वोच्च विचारकों की किताबों में पाएंगे जो आला दर्जे के बुद्धिजीवी होने के बाद ही समझ आती है या वे ही लोग इसका पालन करते हैं. लेकिन ऋषिदा ने बेहद आम लोगों के सामने इस दर्शन को रखा और इस बेहद सरल फिल्म के जरिए लोग मृत्यु को लेकर ये बात समझ भी गए. इससे महान तब्दीली भला क्या हो सकती है. इस कविता को उनकी ब्रीफ पर गुलज़ार ने लिखा था. ऋषिदा की फिल्मों के गीतों में बहुत ऊंचे दर्जे का दर्शन आपको मिलेगा. दुख की घड़ी में उसे सुनें और आप संभल जाएंगे.
5. वे ऊंचे जीवन मूल्यों का पालन करते थे. उनकी हर फिल्म में ऐसा दिखता है. जैसे 'सत्यकाम' इसमें सबसे सही मिसाल है. 1969 में प्रदर्शित ये फिल्म एक इंजीनियर के बारे में थी जो आज़ाद भारत में अपने ईमानदार मूल्यों के साथ आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है लेकिन पग पग पर भ्रष्टाचार और नैतिक पतन पाता है. इस फिल्म को लेकर ऋषिदा ने कहा था:

ऋषिदा.
ऋषिदा.

"जिस फिल्म ने मुझे सबसे ज्यादा संतोष दिया वो थी सत्यकाम. वो मेरे जीवन की कहानी है. देखें, मैं 1922 में पैदा हुआ था. हमने आज़ादी के लिए संघर्ष किया, लड़े. और हम क्या सपने देखा करते थे. देश आज़ाद होगा. कोई भाई-भतीजावाद नहीं होगा. कोई भ्रष्टाचार नहीं होगा. भूख़ नहीं होगी. हम क्या पाते है? और भी ज्यादा भ्रष्ट लोग, जितने ब्रिटिश काल में भी नहीं थे. राजनीति पेशा बन गई है, वे स्वदेशअनुरागी नहीं रहे हैं, ये उनके लिए एक कैरियर बन गया है. तो ये निराशा उस उपन्यास में थी जिस पर सत्यकाम बनी थी. इसे एक असली इंजीनियर ने लिखा था. इसने मुझे बहुत प्रेरित किया था. ये मेरे जीवन की भी कहानी थी. वो निराशा."
इस फिल्म के पात्र सत्यप्रिय की तरह ऋषिदा ने भी फिल्मों में खुद को कभी भ्रष्ट नहीं होने दिया.
6. समाज को लेकर जो समझ ऋषिदा की थी वो फिल्मकारों में बहुत कम होती है, जिनमें भी होती है वो अपने समय के टॉप बनते हैं. जैसे उनकी फिल्म 'आशीर्वाद' (1968) को देखें. केंद्रीय पात्र जोगी ठाकुर (अशोक कुमार) बड़े मानवतावादी इंसान हैं. कुछ पलों के क्रोध (एक लड़की के बचाव में) में उनसे हत्या हो जाती है. अपने बचाव में किए अपराध का तर्क होने के बाद भी वे जज को रोक देते हैं. कहते हैं, जीवन दिया नहीं तो लेने का हक नहीं. सजा काटते हैं. पूरी उम्र कट जाती है. बरसों बाद जेल में युवा डॉक्टर (संजीव कुमार) ने पदभार लिया है. जेलर (अभि भट्टाचार्य) के कमरे पहुंचता है देखता है कैदी सफाई कर रहे हैं, सजावट कर रहे हैं, प्रांगण में खुले घूम रहे हैं. कौतुहल में जेलर से पूछता है, ये यूं खुले घूम रहे हैं, इन्हें कैद में नहीं होना चाहिए. भारतीय सिनेमा का वो सबसे बुद्धिमान और गुणी जेलर जो कहता है उसका अर्थ यूं होता है कि हम एक समाज के तौर पर यही भूल करते हैं. जैसे शारीरिक बीमारी के इलाज के लिए अस्पताल है, वैसे ही अपराधियों के लिए जेल है जहां वे आते हैं और एक अवधि तक रहकर मानसिक रूप से स्वस्थ होकर फिर से समाज में लौटते हैं. आप पाएंगे कि आज साउथ के सिनेमा में, बॉलीवुड में और यहां भी अक्षय कुमार, अजय देवगन, सलमान जैसे शीर्ष सितारों द्वारा समाज में अपराधियों से बुरे बर्ताव की जो सोच फैलाई जा रही है वो खतरनाक है, ऋषिदा की सोच के उलट है. और इन फिल्मों के लोग कभी भी अच्छे कारणों के लिए फिल्म इतिहास में याद नहीं किए जाएंगे.
7. 'तनु वेड्स मनु' और 'रांझणा' जैसी फिल्में बनाने वाले आनंद राय भी फिल्मों में न होते अगर ऋषिदा न होते. दरअसल आनंद 1971 में पैदा हुए थे जिस साल ऋषिदा की फिल्म 'आनंद' रिलीज हुई थी. राय के पिता ने ये फिल्म देखी थी और इसी के नाम पर बेटे का नाम रखा. आज आनंद ऋषिदा के कायल हैं. वे अपने असिस्टेंट्स से भी कहते हैं कि तब के दौर के सब निर्देशकों को देखो लेकिन ऋषिकेश मुखर्जी को भी जरूर देखो. ये देखो कि वे जिंदगी को कैसे सेलिब्रेट करते हैं अपनी फिल्मों में, उससे मायूस नहीं हैं.
8. आज की फिल्मों में हम देखते हैं कि हर जॉनर में टेक्नीक, स्टाइल और स्मार्टनेस हावी है. मानव से मानव के संपर्क और आत्मानुभूति पूरी तरह गायब है. अगर ये नहीं है तो वो फिल्म बेकार है. ऋषिदा की फिल्मों में इंसान से इंसान का संपर्क और एक-दूसरे को लेकर care बहुत ज्यादा थी. वे सेट पर भी सब कलाकारों को अपने परिवार जैसा मानते थे. एक्टर को बेटा, एक्ट्रेस को बेटी मानते थे. उनकी फिल्मों में छोटे रोल करने वाले भी सदा याद किए गए. अगर ये गुण आज के फिल्मकार अपनी फिल्मों में ला पाएं तो वे अच्छे समाज के निर्माण में योगदान दे सकते हैं.
फिल्म बावर्ची.
फिल्म बावर्ची.



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