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जब अवध ओझा दिन में कोचिंग पढ़ाते थे, रात में बार में काम करते थे!

अवध ओझा ने बताया कि ज़िंदगी किस 'फ़ॉर्म' ने बदली!

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(फोटो - यूट्यूब)

गेस्ट इन द न्यूज़रूम में आए लल्लनटॉप शिक्षक अवध ओझा (Ojha Sir). ख़ूब क़िस्से सुनाए. कर्म से लेकर बड़े-बड़े कांड तक. किस पर गोली चलाई, कितने मुक़दमे खाए, कैसी रंगदारी की. और, सबसे ज़रूरी बदले कैसे. लाइफ़ में टर्निंग पॉइंट कब-कब आए और जीवन क्या से क्या हो गया.

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अवध ओझा पिता का अपनी बनावट में ख़ूब ज़िक्र करते हैं. कहते हैं, "मैं जो कुछ भी हूं, 98% अपने पिता जी की वजह से हूं." अपने पिता को 'पिताओं' की तरह सख़्त, बरगद और रूढ़ि नहीं बताते. कहते हैं कि उन्होंने कभी पढ़ने के लिए नहीं कहा. केवल विश्वास किया कि लड़के को जब समझ आ जाएगा, तो वो अपना रास्ता बना लेगा. और, ये रास्ता खुला एक फ़ॉर्म से. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का ऐडमिशन फ़ॉर्म.

"मेरे एक दोस्त हैं. उन्होंने ग़लती से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के एंट्रेंस का दो फ़ॉर्म ख़रीद लिया था. तो वो एक मुर्गा ढूंढ रहे थे, कि किसको को एक फ़ॉर्म बेचें. तो उन्हें मैं मिल गया. उन्होंने कहा, 'अवध, तुम्हारे लिए फ़ॉर्म लाए हैं.' हमने भी कह दिया, "लाए हो, तो दे दो फिर!' असल में हमें भी घर से बाहर निकलना था क्योंकि माताजी ने ताले में बंद कर दिया था. फ़ॉर्म ले लिया. मां से बात की. मां चौंक गईं, 'अच्छा! पढ़ोगे?' मैंने कहा, 'हमको समझ आ गया है जीवन का सार.' इलाहाबाद जाने की बात हो गई पक्की. और, 90 के दशक में इलाहाबाद में पढ़ने का मतलब IAS अफ़सर. वो एक अलग दौर था इलाहाबाद का. तो इलाहाबाद के फ़ॉर्म ने मुझे बाहर निकलने का मौक़ा दिला दिया.

इलाहाबाद पहुंचे. एग्ज़ाम देने गए, तो वहां एक लड़का मिल गया. भगवान के जैसा. उसने मेरी हेल्प की. बहुत हेल्प की. क्योंकि मेरी हालत बहुत ख़राब थी. लेकिन उस लड़के की वजह से मेरा एंट्रेंस निकला और मेरा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दाख़िला हो गया. वो जीवन का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट बन गया क्योंकि यूनिवर्सिटी में जो लोग मिले, जो टीचर्स मिले, जो सीनियर से मिले.. वो तो अलग ही जगह थी."

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फिर सौरभ ने एक दूसरे टर्निंग पॉइंट के बारे में पूछा - जब अवध ओझा सुबह क्लास पढ़ाते थे और शाम को बीयर सर्व करते थे. तब उन्होंने बताया

"ये 2006-07 की बात है. मैं 2005 में दिल्ली आ गया था. अपना संस्थान खोल दिया था - ऊष्मा कोचिंग सेंचर. घर से तो कोई पैसा मिला नहीं. थे भी नहीं पैसे घर में, कि वो हमें देते. तो हमें ख़ुद ही से कोचिंग सेंटर का रेंट देना होता, घर का किराया, दिल्ली में रहना.. तब मुखर्जीनगर का ख़र्चा होता था 20,000 महीना. तो वो सारे ख़र्चे वहन करने थे. इसलिए रात में काम करना पड़ता था और सुबह क्लास लेते थे.

वहां के तजुर्बे अच्छे थे. लोगों को तारीफ़ सुनने का बड़ा शौक़ होता है. तो अगर एक पढ़ा-लिखा वेटर, आदमी को कुछ अच्छी बात बोल दे, तो उसे अच्छा ही लगता है. और, वैसे भी शराब के नशे में ज़्यादा ही सुनता है आदमी. अगर आपने किसी से कह दिया कि 'सर! आपके चेहरे पर तो राजाओं वाला भाव है.' वो तो हजार रुपए देकर जाएगा आदमी.. कि यार ज़िंदगी में कोई तो पहचाना कि हम भी राजा हैं! तो वो चीज़ बड़ी काम है. वो अनुभव, वो समझ बहुत काम आई."

इन दोनों क़िस्सों के अलावा भी ख़ूब सारे क़िस्से सुनाए. एक गोली कांड के बारे में बताया, जिनके बाद उनपर धारा-307 लगी थी. आध्यात्म और अध्ययन ने जीवन कैसे बदला और आगे क्या करने का सोचा है, वो भी बताया. देखिए पूरा इंटरव्यू -

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