इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा (Justice Yashwant Varma) की रिट याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है. जस्टिस वर्मा के दिल्ली स्थित सरकारी आवास के एक हिस्से से ढेर सारा कैश मिला था. इस मामले की आंतरिक जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने तीन जजों की एक कमिटी का गठन किया था. समिति ने जस्टिस वर्मा को दोषी बताया. इसी रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन CJI संजीव खन्ना ने उनके खिलाफ महाभियोग की सिफारिश की थी. जस्टिस वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में इस रिपोर्ट के साथ-साथ महाभियोग की सिफारिश को भी चुनौती दी.
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Justice Yashwant Varma के मामले की सुनवाई के दौरान Supreme Court ने कहा, 'CJI महज एक डाकघर नहीं हैं. न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में राष्ट्र के प्रति उनके कुछ कर्तव्य हैं. यदि कदाचार से संबंधित कोई मामला उनके पास आता है, तो मुख्य न्यायाधीश का कर्तव्य है कि वो उसे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजें.' कोर्ट ने कई सवाल उठाए और अपना फैसला सुरक्षित रख लिया.

30 जुलाई को जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने मामले की सुनवाई की. लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस वर्मा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने ये दलीलें दीं-
- न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, न्यायाधीश को हटाने से संबंधित मामलों को कवर करता है. इसलिए आंतरिक जांच से न्यायाधीश को नहीं हटाया जा सकता.
- अगर आंतरिक प्रक्रिया से न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया शुरू की जाती है, तो ये अनुच्छेद 124 का उल्लंघन है.
- जब मुख्य न्यायाधीश किसी न्यायाधीश को आंतरिक प्रक्रिया के आधार पर हटाने की सिफारिश करते हैं, तो इसका बहुत प्रभाव पड़ता है. क्योंकि ये संसद में प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है. ऐसी सिफारिश करके, मुख्य न्यायाधीश संसद के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहे हैं.
इस पर जस्टिस दत्ता ने कहा,
अगर हम कह रहे हैं कि हम उन फैसलों से सहमत हैं (आंतरिक जांच प्रक्रिया की रूपरेखा से), तो इस मामले का अंत हो जाता है.
जस्टिस दत्ता ने आगे कहा कि न्यायाधीश संरक्षण अधिनियम की धारा 3(2), आंतरिक जांच प्रक्रिया शुरू करने और न्यायाधीश से न्यायिक कार्य वापस लेने की अनुमति देता है. उन्होंने आगे कहा,
भारत के मुख्य न्यायाधीश महज एक डाकघर नहीं हैं. न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में राष्ट्र के प्रति उनके कुछ कर्तव्य हैं. यदि कदाचार से संबंधित कोई मामला उनके पास आता है, तो मुख्य न्यायाधीश का कर्तव्य है कि वो उसे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजें.
जस्टिस दत्ता ने ये भी कहा कि यदि जस्टिस वर्मा का मानना था कि ये प्रक्रिया असंवैधानिक है, तो उन्होंने इसे शुरू में ही चुनौती क्यों नहीं दी. हालांकि, पीठ ने सिब्बल की इस दलील से सहमति जताई कि प्रक्रिया के दौरान नकदी जलाने का वीडियो लीक नहीं होना चाहिए था. उन्होंने कहा,
हम इस मामले में आपके साथ हैं. इसे लीक नहीं किया जाना चाहिए था. लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है?
सिब्बल ने बताया कि वीडियो सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किए गए थे, ताकि वो ज्यादा विश्वसनीय लगे. उन्होंने कहा कि राजनेता और सांसद तस्वीरों और वीडियो के आधार पर बयान दे रहे हैं, जिससे जस्टिस वर्मा के खिलाफ मामला प्रभावित हो रहा है. जस्टिस दत्ता ने इस पर बताया कि जस्टिस वर्मा ने कभी भी वीडियो हटाने की मांग को लेकर न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाया.
'जस्टिस वर्मा का आचरण विश्वास पैदा नहीं करता'पीठ ने जस्टिस वर्मा द्वारा आंतरिक जांच प्रक्रिया में पूर्ण रूप से भाग लेने के बाद उसे चुनौती देने के निर्णय पर आपत्ति जताई. जस्टिस दत्ता ने कहा,
आपका आचरण विश्वास पैदा नहीं करता. आपका आचरण बहुत कुछ कहता है. आप अनुकूल निष्कर्षों की प्रतीक्षा कर रहे थे और जब आपको ये ठीक नहीं लगा, तो आप यहां आ गए.
सिब्बल ने इस बात पर ज़ोर दिया कि आंतरिक समिति अभी तक ये पता नहीं लगा पाई है कि ये पैसा किसका था. जस्टिस दत्ता ने कहा कि ये मुद्दा समिति के पास था ही नहीं.
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'निष्कासन केवल संसद की प्रक्रिया के अनुसार'पीठ ने सुनवाई के दौरान ये भी कहा कि आंतरिक रिपोर्ट केवल एक प्रारंभिक निष्कर्ष है, और CJI की सिफारिश केवल एक सलाह है. पीठ ने कहा कि निष्कासन केवल संसद की प्रक्रिया के अनुसार हो सकता है, आंतरिक रिपोर्ट के अनुसार नहीं.
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