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अरुंधति की किताब, जिसका हीरो एक हिजड़ा है

बुक रिव्यूः द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनस

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जहांआरा बेगम सरमद की दरगाह पर पहुंचती हैं और अपने बेटे आफताब को प्यार करने की दुआ मांगती हैं. बेटे को प्यार की दुआ. दरअसल आफताब हिजड़ा है. और जहांआरा इस सच से खौफजदा हैं. मगर वो उससे पार पाती हैं. आफताब का सफर शुरू होता है. वो बड़ा होता है, अपनी हकीकत जानता है और पहुंच जाता है खाबगाह. जहां और भी हिजड़े रहते हैं. और भी ऐसे लोग रहते हैं जो दुनिया की तयशुदा यौनिकता के दायरे में खुद को फिट नहीं मानते. आफताब का यहां के रस्मो रिवाज से भी जी उकता जाता है. और आखिर में वो जिंदगी संवारने पहुंचता है एक कोने में बने बिना किसी नाम के कब्रिस्तान. यहां वो कब्रों को बीच अपना आशियाना बनाता है. और मौत के मातम के बीच जिंदगी के रेशे उगते देखता है. द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस नाम यहीं से उपजा.   16298988_1210594379030852_3887991849742695293_n   किताब में एक पैरलल प्लॉट भी है. चार दोस्तों का. जो नाटक साथ करते थे. फिर उनकी जिंदगियां नाटकीय हो गईं. एक लड़की, तिलोत्तमा. तीन लड़के. नागा, मूसा और बिप्लब. तिलो से तीनों प्यार करते हैं. तिलो तीनों पर भरोसा करती है. मगर प्यार. प्यार वो मूसा से करती है. फिर उसी प्यार के चलते वो नागा से शादी करती है. और आखिर में उसी प्यार के चलते बिप्लब के पास रहने आ जाती है. आखिर में उसे भी मिनिस्ट्री में हाजिरी देनी है. इन दो सेंट्रल प्लॉट के बीच हैं कई साइड के मगर याद रह जाने वाले किरदार. कुछ की मियाद ज्यादा, मसलन सद्दाम, डॉ. आजाद भारतीय या मेजर अमरीक सिंह. कुछ की कम, मसलन, कमांडर गुलरेज. किरदारों के बीच खूब पॉलिटिक्स है. इसकी उम्मीद भी होनी ही चाहिए. आखिर ये अरुंधति रॉय का नॉवेल है. इसमें इमरजेंसी है. सिख विरोधी दंगे हैं. गुजरात दंगे हैं. अन्ना हजारे का आंदोलन है. उना के दलितों पर हुआ अत्याचार है. वाकये हैं तो उनके केंद्र में रहे राजनीतिक किरदार भी. मगर सबका सीधा नाम नहीं लिया गया. नाम की डिक्शनरी कुछ यूं है
संजय गांधी- संजय गांधी (पहला उदाहरण, मगर अपवाद) अटल बिहारी वाजपेयी- द लिस्पिंग पोएट पीएम (अटक कर बोलने वाला कवि प्रधानमंत्री) मनमोहन सिंह- केज्ड रैबिट (पिंजरे में बंद खरगोश) नरेंद्र मोदी - गुजरात का लल्ला अरविंद केजरीवाल- मिस्टर अग्रवाल

खूबी और खामी

अरुंधति सुंदर गद्य लिखती हैं. तब तफसील से होती हैं तो आपके सामने पूरा मंजर खींच देती हैं. इतना कामयाब कि आप हवा लें तो वहां की खुशबू आए. टटोलें तो हाथ में रंग लग जाए. कई जगह डार्क ह्यूमर है. ट्रैजिक हालात को बयां करने का एक सटीक तरीका. कई जगह दर्शन है. कहीं लंबा आत्मालाप है. पैंफलेट की शक्ल में, किताब की शक्ल में. मसलन, कश्मीर में रहने के दौरान लिखी तिलोत्तमा की डायरी, जो असल में एक टेक्स्ट बुक है, जिसके आखिर में सवाल भी हैं. मगर ये सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब आसानी से नहीं मिल सकते. न किताब में और न ही उसके बाहर.
खामी ये है कि अपनी राजनीतिक सोच को कई बार उपन्यासकार अरुंधति प्लॉट पर हावी हो जाने देती हैं. तब लगता है कि एक खास प्रिडिक्टिबल ढंग से किरदारों को जबरन ठेला जा रहा है. कश्मीर के मसले पर वो वहां के मुस्लिमों के हालात बयां करती हैं. तफसील में. मगर पहलू और भी हैं. आतंकवाद क्यों पनपा. कश्मीर पंडितों के साथ क्या हुआ. वहां कश्मीरियों के नाम पर ठेकेदारी करने वाले हुर्रियत ने क्या किया. इन सब पर अरुंधति उतना गौर नहीं करतीं. उसी तरह नक्सल के भी वह एक ही पहलू को पेश करती हैं. ये उनका वैचारिक आग्रह है. आप जब नॉवेल पढ़ें तो जाहिर है कि इसका ख्याल रखें.
इसे पढ़ना चाहिए. चाहे आलोचना के लिए, चाहे सराहना के लिए. सिर्फ इसलिए नहीं कि अरुंधति के पहले, पिछले, अब तक इकलौते नॉवेल द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स को बुकर मिला था. इसलिए क्योंकि अरुंधति की सोच में एक सम्मोहित कर देने वाला बेखौफपन है. वो सही हों या गलत, अपनी बात आंख में आंख डालकर कहने की हिम्मत रखती हैं. गालीबाजों के गिरोह से नहीं डरतीं. और किसी भी किस्म की सत्ता की खिल्ली उड़ाने का दम दिखाती हैं. उनके कई विचार आपको असंगत लगेंगे. प्रैक्टिल रुख से दूर लगेंगे. मगर विचार ही तो हैं, उनसे संवाद में क्या गुरेज है.
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