'एक मैदान है जहां हम तुम और ये लोग सब लाचार हैं'
एक कविता रोज़ में आज पढ़िए 'रघुवीर सहाय' की कविता 'दे दिया जाता हूं'
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फोटो - thelallantop
'नवभारत टाइम्स' के सहायक संपादक तथा 'दिनमान साप्ताहिक' के संपादक रहे रघुवीर सहाय का जन्म लखनऊ में हुआ था. वहीं से इन्होंने एम.ए. किया और उसके बाद गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं के माध्यम से साहित्य सेवा में लग गए. रघुवीर सहाय के मुख्य काव्य-संग्रहों में शामिल हैं: 'आत्महत्या के विरुद्ध’, 'हंसो हंसो जल्दी हंसो', ‘सीढ़ियों पर धूप में’, 'लोग भूल गए हैं, 'कुछ पते कुछ चिट्ठियां’ आदि. रघुवीर सहाय अपनी कविता संग्रह 'लोग भूल गए हैं' के लिए 1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं. आइए पढ़ते हैं उनकी एक बेहतरीन कविता - दे दिया जाता हूं.
दे दिया जाता हूं
मुझे नहीं मालूम था कि मेरी युवावस्था के दिनों में भी यानी आज भी दृश्यालेख इतना सुन्दर हो सकता है: शाम को सूरज डूबेगा दूर मकानों की कतार सुनहरी बुंदियों की झालर बन जाएगी और आकाश रंगारंग होकर हवाई अड्डे के विस्तार पर उतर आएगा एक खुले मैदान में हवा फिर से मुझे गढ़ देगी जिस तरह मौक़े की मांग हो: और मैं दे दिया जाऊंगा.इस विराट नगर को चारों ओर से घेरे हुए बड़े-बड़े खुलेपन हैं, अपने में पलटे खाते बदलते शाम के रंग और आसमान की असली शक़ल . रात में वह ज़्यादा गहरा नीला है और चांद कुछ ज़्यादा चांद के रंग का पत्तियां गाढ़ी और चौड़ी और बड़े वृक्षों में एक नई ख़ुशबू- वाले गुच्छों में सफ़ेद फूल.अंदर, लोग; जो एक बार जन्म लेकर भाई बहन मां बच्चे बन चुके हैं प्यार ने जिन्हें गला कर उनके अपने सांचों में हमेशा के लिए ढाल दिया है और जीवन के उस अनिवार्य अनुभव की याद उनकी जैसी धातु हो वैसी आवाज़ उनमें बजा जाती है.सुनो सुनो, बातों का शोर, शोर के बीच एक गूंज है जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं - कितनी नंगी और कितनी बेलौस- मगर आवाज़ जीवन का धर्म है इसलिए मढ़ी हुई करतालें बजाते हैं लेकिन मैं, जो कि सिर्फ़ देखता हूं, तरस नहीं खाता, न चुमकारता, न क्या हुआ क्या हुआ करता हूं.सुनता हूं, और दे दिया जाता हूं. देखो, देखो, अंधेरा है और अंधेरे में एक ख़ुशबू है किसी फूल की रोशनी में जो सूख जाती है.एक मैदान है जहां हम तुम और ये लोग सब लाचार हैं मैदान के मैदान होने के आगे.और खुला आसमान है जिसके नीचे हवा मुझे गढ़ देती है इस तरह कि एक आलोक की धारा है जो बाहों में लपेटकर छोड़ देती है और गंधाते, मुंह चुराते, टुच्ची-सी आकांक्षाएं बार-बार ज़बान पर लाते लोगों में कहां से मेरे लिए दरवाज़े खुल जाते हैं जहां ईश्वर और सादा भोजन है और मेरे पिता की स्पष्ट युवावस्था. सिर्फ़ उनसे मैं ज़्यादा दूर-दूर तक हूं कई देशों के अधभूखे बच्चे और बांझ औरतें, मेरे लिए संगीत की ऊंचाइयों, नीचाइयों में गमक जाते हैंऔर ज़िन्दगी के अंतिम दिनों में काम करते हुए बाप कांपती साइकिलों पर भीड़ में से रास्ता निकाल कर ले जाते हैं तब मेरी देखती हुई आंखें प्रार्थना करती हैं और जब वापस आती हैं अपने शरीर में, तब वह दिया जा चुका होता है. किसी शाप के वश बराबर बजते स्थानिक पसंद के परेशान संगीत में से एकाएक छन जाता है मेरा अकेलापन आवाज़ों को मूर्खों के साथ छोडता हुआ और एक गूंज रह जाती है शोर के बीच जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं नंगी और बेलौस, और उसे मैं दे दिया जाता हूं.
लल्लनटॉप में पढ़िए एक कविता रोज़:
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