अनुज अग्रवाल ने बी. टेक. किया, गुजरात में जॉब की, कुछ साल फक्कड़ बन के दिल्ली ‘एक्सप्लोर’ किया और अब राजस्थान के एक छोटे से गांव में गणित पढ़ाते हैं. कुछ वर्षों पूर्व कुछ परालौकिक टाइप अनुभव हुए और उसके बाद वेद, गीता, ओशो के साथ साथ बांकेलाल आदि भी पढ़ डाले. पढ़ने के बाद लिखना एक चैन रिएक्शन सरीखा रहा.
प्रस्तुत कविता‘सुनो परम’ उनके परालौकिक के प्रति प्रेम और विज्ञान के प्रति कम्फ़र्ट को शब्द देती है. कविता संचय की आदत को नकारते हुए तटस्थ, मानवतावादी और सर्वथा उदासीन(निराश नहीं) रहने की पैरवी करती है.
सुनो परम !
पैदल चलना , हाथ से लिखना और सादा पानी पीना
आवश्यकता जितना ही सामान रखना और कक्ष में यथा संभव खाली जगह
थोड़ा पानी सुबह शाम कमरे में छिड़कते रहना
दिन में एक बार स्नान और रात को सोते वक्त पैर धोकर सोना
समझना इस बात को कि
विज्ञान किताबों में नहीं हृदय में है और हिसाब गुणा भाग में नहीं समय में हैसाहित्य में लॉजिक की उतनी ही आवश्यकता है
जितनी आध्यात्म में क्षेत्र और सीमाओं की और भौतिकी में एक उदासीन दृष्टि कीनीति में विशोक रहना और सामाजिकता में संकल्प साधु
सामान्यतः हंसी खुशी भी उतनी ही अश्लील हो सकती है
जितनी अप्रासंगिक रति क्रियाचंचलता भी उतनी ही घोर हो सकती है
जितनी अघोर गंभीरताबुरे वक्त से गुज़र रहे किसी सहृदय की सहायता करते रहना
और साधारण या गौण कार्य करते रहते भी जीवन के मूल पर चिंतन करते रहनाजीवन जितना सामान्य हो अंतःकरण उतना ही स्वच्छ रहता है
सामान जितना कम हो बुद्धि उतनी ही मुक्त
और जितनी देह की स्वच्छता उतनी ही मन की रुचिसुनो मित्र!
अपने वातावरण का ख्याल रखना
हमारे पहले भी यहां जीवन था
हमारे बाद भी यहां कोई रहता होगा.
एक कविता रोज़ के अन्य संस्करण पढ़ें:
बंधे हों हाथ और पांव तो ‘आकाश’ हो जाती है ‘उड़ने की ताक़त’
अगर बचा रहा तो कृतज्ञतर लौटूंगा
छलना थी, तब भी मेरा उसमें विश्वास घना था
‘तीन आलू सरककर गिर गए हैं किसी के’
‘मेरे लिए दिल्ली छोड़ने के टिकट का चन्दा इकट्ठा करें’
देखें वीडियो:लता मंगेशकर के किस जवाब से आज तक लोग खिलखिलाते हैं