धारा 377: समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट ने क्रांतिकारी फैसला दिया है
फैसला हाशिए में रह रहे LGBTQ समुदाय के लिए उत्सव का सबब है

एलजीबीटीक्यू समुदाय को भी जीने का अधिकार है. इस अधिकार के बिना सारे अधिकार बेतुके हैं.
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई में संवैधानिक पीठ ने कहा कि दो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली धारा 377 मनमानी है.#Section377 in Supreme Court: CJI Dipak Misra observes, "No one can escape from their individualism. Society is now better for individualism. In the present case, our deliberations will be on various spectrums."
— ANI (@ANI) September 6, 2018

जो भी स्वेच्छा से किसी भी पुरुष, महिला या पशु के साथ ‘प्रकृति की व्यवस्था के खिलाफ’ (मने अप्राकृतिक तरीके से) शारीरिक संभोग करता है, उसे आजीवन कारावास या एक निश्चित अवधि (अधिकतम दस साल) का दंड दिया जाएगा, और दोषी अर्थदंड देने के लिए भी उत्तरदायी होगा.स्पष्टीकरण – इस खंड में वर्णित अपराध में ‘शारीरिक संभोग’ के लिए ‘प्रवेश’ पर्याप्त है.अब इसको आसान शब्दों में कहें तो ‘अप्राकृतिक सेक्स‘ अपराध है. अब बच जाती है अप्राकृतिक सेक्स की परिभाषा. तो आपको बताते हैं, सरकार के अनुसार प्राकृतिक क्या है, उसके अलावा सब कुछ अप्राकृतिक.

# 1) यह ‘एक’ पुरुष और ‘एक’ स्त्री के बीच ही हो सकता है साथ# 2) इस तरह के सेक्स में केवल जननागों के द्वारा ही सेक्स किया जा सकता है.यदि इससे थोड़ा भी इधर-उधर हुए तो ‘ग़ैरकानूनी’ होगा.
1994 में एबीवीए (एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन) ने दिल्ली उच्च न्यायालय में धारा 377 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली ‘पहली याचिका’ दायर की थी. फिर नाज़ फाउंडेशन, जो एड्स और अन्य सेक्स जनित रोगों के क्षेत्र में काम कर रही थी, ने धारा 377 के खिलाफ़ कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला लिया था. नाज़ फाउंडेशन (इंडिया) ट्रस्ट, एक गैर-सरकारी एनजीओ है जिसने 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी.Congratulations! Groundbreaking victory for gay rights in India! We stand with the LGBTQIA+ community!#Section377 pic.twitter.com/rZ7OJ8MDbR
— Youth Congress (@IYC) September 6, 2018


– सहमति से बने समलैंगिक यौन संबंधों के ख़िलाफ़ बना संविधान के अनुच्छेद 21 (स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार) का उल्लंघन करता है.– धारा 377 समलैंगिकों का अलग से वर्गीकरण करके अनुच्छेद 14 (समानता के मौलिक अधिकार) का भी उल्लंघन करती है.– संविधान के अनुच्छेद 15 का भी धारा 377 के द्वारा उल्लंघन होता है क्यूंकि संविधान का अनुच्छेद 15 लिंग के आधार पर भेदभाव को अस्वीकार करता है.– धारा 377 इसलिए भी गलत है क्यूंकि ये भारतीय नागरिकों के ‘स्वास्थ्य के अधिकार’ पर भी चोट करती है. (उदाहरण स्वरूप – धारा 377 के चलते गे, लेस्बियन आदि आपस में संबंध नहीं बना सकते इसलिए उन्हें ‘कंडोम’ नहीं दिए जा सकते, और इसलिए एसटीडी रोगों के होने का खतरा बना रहेगा.)
लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर, 2013 को कहा की किसी धारा को जोड़ने, हटाने और मॉडिफाई करने का अधिकार अधिकार संसद के पास है और जब तक यह संसद द्वारा हटाया नहीं जा सकता तब तक यह अवैध नहीं ठहराया जा सकता. मतलब सिंपल शब्दों में कहें तो – धारा 377 तब तक लीगल और इन-फ़ोर्स रहेगी जब तक संसद कोई परिवर्तन नहीं कर लेती.Historical judgment!!!! So proud today! Decriminalising homosexuality and abolishing #Section377 is a huge thumbs up for humanity and equal rights! The country gets its oxygen back! 👍👍👍💪💪💪🙏🙏🙏 pic.twitter.com/ZOXwKmKDp5
— Karan Johar (@karanjohar) September 6, 2018

इस दौरान शशि थरूर दो बार इस धारा को हटाने के प्राइवेट मेम्बर बिल लेकर आए. और दोनों ही बार वोटिंग में हार गए. एक बार पुनर्विचार करने की ‘नाज़ फाउंडेशन’ की रिक्वेस्ट को खारिज़ कर चुकने के बाद सुप्रीम कोर्ट 2 फ़रवरी, 2016 को पुनर्विचार कर के लिए राज़ी हो गया. तो सुप्रीम कोर्ट के सामने अब ‘क्यूरेटिव पिटिशन’ है. cure मतलब इलाज. ‘क्यूरेटिव पिटिशन’ मतलब एक फैसला जो किया जा चुका है उसे फिर से करना है. पुराने फैसले को भूल सुधार करते हुए.Celebrations in the lobby of the The LaLit Hotel in Delhi. #section377 verdict. Keshav Suri, son of late hotel magnate Lalit Suri and Executive Director of the Lalit Suri Hospitality Group that owns the LaLit chain of hotels is a #LGBTQ activist. pic.twitter.com/cECtp6D2Eu
— Smita Prakash (@smitaprakash) September 6, 2018

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