उन कथाकार का इंटरव्यू जिनकी कहानी पर विशाल भारद्वाज ने 'पटाख़ा' बनाई है
चरण सिंह पथिक से बातचीत जिनका एक कथा-पाठ दर्शकों में बैठकर गुलज़ार ने सुना और उनका ऑटोग्राफ लेकर गए.
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कहानीकार चरण सिंह पथिक के साथ उनके गांव में घूमते विशाल भारद्वाज. उनकी नई फिल्म "पटाख़ा/छुर्रियां" बहुत हद तक यहीं पैदा हुई. (फोटोः दी लल्लनटॉप)
स्टारडम उन्मुख हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के संदर्भ में वो दृश्य दुर्लभ रहा कि मुंबई का एक ए-लिस्ट डायरेक्टर राजस्थान के करौली ज़िले के छोटे से गांव रौंसी में, एक कहानीकार के गोबर लीपे, मांडने मंडे चौक में खड़ा है. गांव का आतिथ्य ले रहा है. वहां की चाय पी रहा है. बैठकर भोजन कर रहा है. वो वहां गया है क्योंकि इसी ग्रामीण की लिखी कहानी पर अपनी अगली फिल्म बनाने जा रहा है.कहानी दो बहनों की जिनकी ज़बान छुर्रियों जितनी तेज़ है और जो कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ती हैं. विचलित करने की हद तक.
दुर्लभ इसलिए क्योंकि कहानियों को सिनेमा की दुनिया में उनका श्रेय नहीं मिला. वो भी तब जब कहानी/स्क्रिप्ट ही फिल्म में सबसे महत्वपूर्ण विभाग होती है. विशाल का वहां जाना यह कहता है कि मैं उस कहानी और कहानीकार का संपूर्णता में सम्मान करता हूं जिसकी नींव पर फिल्म नाम का वृक्ष खड़ा होगा. मैं इसमें उसका साथ मांगता हूं. वे चरण सिंह पथिक के आंगन गए. गांव में जाकर वहीं अपनी फिल्म और कलाकारों को तैयार करवाकर आगे बढ़े. ताकि कथ्य में से वो प्लास्टिक हटे जो हिंदी फिल्मों की व्यावसायिक स्टोरीटेलिंग में व्याप्त है.
चरण सिंह 15 मार्च 1964 को जन्मे. पूर्वी राजस्थान के ग्रामीण-कस्बाई अंचल में ही रहे. उसी अंचल और इलाके को अपनी कहानियों में चित्रित करते गए. उनकी कहानियां उतनी ही शॉकिंग, पैनी और कठोर होती हैं जितनी “पटाख़ा” अपने ट्रेलर से लग रही है. 1998 में अपनी कहानी 'बक्खड़' से वे चर्चा में आए थे जिसे नवज्योति कथा सम्मान मिला था. उसके बाद से उनकी कहानियों की प्रतीक्षा होने लगी. उसके बाद दस-दस कहानियों वाले उनके तीन कथा संग्रह आए. “बात ये नहीं है” (2005), “पीपल के फूल” (2010) और “गोरू का लैपटॉप और गोर्की की भैंस” (2014).
उनकी एक कहानी “कसाई” पर भी हिंदी फिल्म बन रही है. “दो बहनें” पर बनकर तैयार “पटाख़ा” 28 सितंबर को रिलीज होने जा रही है, जिसका नाम पहले “छुर्रियां” था. इसमें सान्या मल्होत्रा (दंगल) और राधिका मदान (मेरी आशिकी तुम से है, झलक दिखला जा रीलोडेड) उन दो बहनों के रोल में हैं. फिल्म में सुनील ग्रोवर (गजनी, बाग़ी, हीरोपंती), विजय राज (रघु रोमियो, मॉनसून वेडिंग), नमित दास (आंखों देखी, वेकअप सिड) और अभिषेक दुहान (सुल्तान) भी हैं.

फिल्म के तीन अनोखे पात्र - छोटी बहन गेंदा कुमारी, बड़ी बहन चंपा कुमारी और इनके बीच आग लगाने वाला डिप्पर जिसे सब नारदमुनि कहते हैं. ये भूमिकाएं सान्या, राधिका और सुनील ने की हैं.
हमने चरण सिंह जी से विस्तार में बात कीः
अपने बारे में कुछ बताएं. जन्म, परिवार, पढ़ाई. हमारा गांव तो करौली में है. करौली जिले की नादौती तहसील है, उसमें रौंसी ग्राम पंचायत है. गांव में ही पढ़े लिखे. मिडिल क्लास यहीं से किया. प्राइमरी एजुकेशन यहीं की. हिंडौन गए आगे पढ़ने के लिए. भवानी मंडी पढ़े. भरतपुर पढ़े. करौली पढ़े. टीचर ट्रेनिंग करके अध्यापक बन गए. ये तो हो गई जिंदगी. बाकी हम चार भाई हैं. हमारा बहुत बड़ा कुटुंब है. कम से कम घर में ही 150-200 आदमी (लोग) हैं. एक ही जगह रहते हैं, एक ही क्षेत्र में. ये है घर के बारे में.बचपन की कैसी यादें हैं? उसके बाद के जीवन में रुचियां क्या क्या रहीं जहां से शायद कहानियों का चाव आया होगा? नहीं, बचपन में तो ऐसा कुछ खास था नहीं. जैसा आम बचपन होता है गांव के लड़के का उसी तरह का था. लेकिन जैसे-जैसे समझ आगे बढ़ती है तो लगता है कि जिंदगी में क्या? जैसे मुझे लगता था कि कुछ अलग करना चाहिए. कोई ऐसा काम जो अलहदा हो. मैं हमेशा सपने बहुत देखता था. कल्पनाएं बहुत करता रहता था. मेरी इच्छा थी मैं क्रिकेटर बनूं. बन नहीं पाया लेकिन. ख़्वाब देखे थे कि रणजी ट्रॉफी खेलूं. जवान उम्र थी. लेकिन वो चीज हाथ से फिसली तो कुछ और लगा. पढ़ने का बहुत शौक था मुझे. सारिका, कादंबिनी, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, फिल्मी कलियां और माधुरी ये सब आती थीं. मैं इनको पढ़ता था तो सोचता था कि यार जब बीए कर लूंगा तो फिल्म इंस्टिट्यूट जाऊंगा. ये नसीरुद्दीन (शाह) चले गए, ओमपुरी चले गए ऐसे चेहरे लेकर जो एक आम चेहरा था, तो मेरी इच्छा थी कि मैं भी जाकर पढ़ूं. इसलिए पूना इंस्टिट्यूट एफटीआईआई और एनएसडी - नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा इन दोनों में अप्लाई किया. लेकिन मेरे फॉर्म दोनों इसलिए कैंसल हो गए क्योंकि मेरे बीए में एक साल कम था, स्नातक नहीं हुआ था.
फॉर्म कैंसल होने के बाद. घरवालों ने दबाव बनाया कि ये चीजें हमारे यहां अच्छी नहीं हैं, तो टीचर ट्रेनिंग में डाल दिया. बोले, रोज़ी-रोटी का प्रबंध तो हो जाएगा, ये फिल्म वगैरह, खेल इनमें कुछ नहीं होता. क्योंकि हम खेलते रहते थे, पढ़ते रहते थे. लिखने का जुनून ये था कि एक बार बीमार पड़ा तो मैंने एक कहानी लिखी – “गौरी बाबू के सपने.” मैंने उसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में भेजा लेकिन छपी ही नहीं वो. मनोहर श्याम जोशी जी संपादक थे तब. लेकिन इसके बाद मुझे लगा कि लिख सकता हूं. तो जब हम टीचर ट्रेनिंग कर रहे थे तो जो स्थानीय अख़बार हैं वहां से शुरू किया जो अब छपने बंद हो गए. पहले बहुत छपते थे. हमारे हिंडौन से छपते थे, गंगापुर से छपते थे, करौली से छपते थे. सवाई माधोपुर से. मैं उनमें लिखता था कविताएं, कहानियां. लिखता था, छपता था, अच्छा लगता था. अद्भुत बात थी कि जब मैं प्रतापगढ़ - जिला है जो फिलहाल चितौड़ का - दो साल टीचर रहा जहां पहली पोस्टिंग वहीं हुई थी तो वहां ये कोशिश करता था कि कभी राजस्थान पत्रिका में छपूं. एक रजिस्टर बना रखा था. रात भर लिखता था. लिफाफे टेप करता था. रजिस्टर में लिखता था कि ये कविता राजस्थान पत्रिका में भेजूंगा, ये नवज्योति में, मध्य प्रदेश के अखबार हैं दो-तीन उनमें, सरिता में, कादंबिनी में भेजूंगा. ये करता रहता था और वो लिफाफे 20 दिन बाद वापस आ जाते थे - कि आपकी ये रचना हम उपयोग में नहीं ले पाएंगे इसे अन्यथा न लें और कृपया कहीं दूसरी जगह उपयोग कर लें - तो बड़ा गुस्सा आता था कि 20 दिन बाद आपके पांच-छह लिफाफे लौटकर आ रहे हैं. बड़ी मेहनत कर रहे हैं लेकिन छप नहीं रहे. एक जो कुंठा और निराशा होती है वो जबरदस्त रहती थी दिमाग में.
पढ़ना बहुत होता था मेरा. हंस पढ़ता था. सारिका भी पढ़ता था. उसके संपादक कमलेश्वर थे, बाद में अवधनारायण मुद्गल हुए. फिर मेरी कविता राजस्थान पत्रिका में छपी पहली बार. वहां से बड़े पेपरों में छपने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो हर 15-20 दिन में, महीने में दो-तीन कविताएं राजस्थान पत्रिका, नवज्योति इनमें छपती रहती थी. यशवंत व्यास उस वक्त नवज्योति के संपादक थे जयपुर, तो उन्होंने कहा यार मिलो आप कभी जयपुर आओ तो. मैं उनके वहां नवज्योति के दफ्तर गया. उन्होंने कहा कि ये सब छोड़ो यार आप कहानी लिखनी शुरू करो. तो फिर मैंने कहानी लिखना शुरू किया. मेरी पहली ही कहानी थी – “बक्खड़.” वो लिखी मैंने लेकिन जानता नहीं था कि इस कहानी का हश्र क्या होगा. किसको सुनाऊं कि अच्छी कहानी है या खराब कहानी है? हमारे जयपुर में बहुत सारे दोस्त मित्र बन गए थे राजस्थान पत्रिका, नवज्योति में छपने से. पहचान बनती चली गई. जयपुर में जाकर मैंने उस कहानी का पाठ किया मित्रों के बीच में, एक मित्र के कमरे पर. सबने कहा कहानी बहुत अच्छी है. इसे “पहल” में भेजा जाए ज्ञानरंजन जी के पास, राजेंद्र यादव जी के लिए “हंस” में भेजा जाए सबके अपने-अपने विचार थे, सुझाव थे. बस इसी दौरान नवज्योति ने एक कथा प्रतियोगिता की घोषणा की थी राजस्थान के कहानीकारों के लिए. मैंने वो कहानी “बक्खड़” वहां भेजी. उसके निर्णायक थे ज्ञानरंजन जी जो पहल के संपादक थे और अभी भी हैं, हंस के संपादक राजेंद्र यादव जो मशहूर कहानीकार थे लेखक थे, और अरुण प्रकाश जी जो बड़े पत्रकार थे उस समय के. और 450 कहानियों में बक्खड़ को पहला पुरस्कार मिला. वो 1998 की बात है. बस तब से कहानियों के क्षेत्र में पीछे मुड़कर देखा नहीं. राष्ट्रीय परिदृश्य पर हिंदी की जो बड़ी मैगजीन थीं - जहां से पहचान मिलती है कि आप कहानीकार हो जैसे हंस है, कथादेश है, पहल है, समकालीन भारतीय साहित्य है और हिंदी की जितनी भी मैगजीन थीं - उनमें कहानियां छपीं और लोगों ने सराही. चर्चित भी काफी हुईं. इस तरह से कहानियों का सिलसिला जारी है. शुरू हुआ तो लगा कि काम यही करना है बस.

जवानी का वो दौर जब ख़ुद को नसीर से कम नहीं समझते थे. चरण सिंह बड़े बेटे चंद्रप्रकाश के साथ.
अभी आपका जो रूटीन है जैसे स्कूल जाते हैं, फिर घर के काम भी कुछ होते हैं. इस व्यस्तता के बीच वो कौन सा टाइम है और कब मिलता है कि नई कहानियों के लिए आइडिया आते रहें या उत्प्रेरक का काम भी करे? लेखन तो निरंतर प्रक्रिया है जो आपके दिमाग में चलती रहती है. वो अलग बात है कि चाहे महीने में काग़ज पे उतरे या छह महीने में. स्कूल में होता हूं तो दिमाग में चीजें चल रही होती हैं, संवाद आते रहते हैं. कहानी का शुरुआती हिस्सा आता है या एक बिंदु आता है कि इस पर ये कहानी हो सकती है. तो कहानी धीरे-धीरे चलती रहती है दिमाग में, सारी चीजें, संवाद. वो प्रोसेस पूरा तब होता है जब कहानी पक जाती है आपके दिमाग में. जैसे कुम्हार की मटकी पकती है आंवा में, तो कहानी आपके अंदर पक जाती है. तब आपके अंदर ये होता है कि यार अब ज्यादा लंबा चल नहीं सकता और ये लिखनी पड़ेगी. जब लंबे समय तक दबाए रखते हैं तो दिमाग खराब हो जाता है. इस बीच रात को वक्त मिलता है, या नहीं होता तो छुट्टियां आती हैं तब लिखते हैं. अव्वल तो मैं रात में लिखता हूं, छुट्टियों के दिन में लिखता हूं. गांव में लिखने के लिए एकांत की तलाश होती है कि कब लिखें. कब घरवाले सोएं. कब बच्चे उधम मचाना बंद करें. और भी बहुत सारी चीजें होती हैं. गांव में आप बच नहीं सकते न, वहां के समाज, घर और सारी चीजों में आप न चाहते हुए भी शामिल रहते हैं. उनके बीच चीजें चलती रहती हैं. काम भी चलता रहता है. तमाम व्यस्तता के बाद भी. घर में कलेश हो जाए तो दिमाग में चलता है कि कुछ नया आया है, इस कलेश पर ही लिख लो चलो. घर में दो औरतें लड़ रही हैं तो क्या संवाद बोल रही हैं. क्योंकि वो असली होते हैं, प्रामाणिक होते हैं, मौलिक होते हैं. चीजें वहीं से आती हैं. आप ऐसे लिखें कि बिलकुल कमरे में बंद हो जाएं, किसी से मिले नहीं तो चलता नहीं है. हर आदमी से बात करनी पड़ती है. चाहे वो कोई भी है. बदमाश है तो भी मिलना होता है. ये बहुत जरूरी है. लोगों से घुलना-मिलना, बातें करना. मुहावरे वहां से आते हैं पकड़ में. बस इस तरह से कहानी हो जाती है. मान लो किसी ने नाम ही ऐसा बोला कि हमने सुना ही नहीं आज तक, न किताबों में पढ़ा तो वो ही काम आ जाता है.
जैसे आप कहीं बैठे हैं और किसी ने संवाद बोला तो उसे क्या उसी समय नोट करते हैं या उसे याद कैसे रखते हैं? चूकि मैं खुद गांव में रहने वाला हूं न, तो अवचेतन में बस जाता है. अवचेतन में याद रहती है. क्योंकि उन लोगों की भाषा को समझते हैं, बोली को समझते हैं. मालूम होता है कि कौन से मौके पर ऐसी बातें कही जाती हैं. गांव में जैसे बहुत से छोटे मसले होते हैं तो पंचायत जुटती है. आपके और मेरे बीच में झगड़ा हो गया तो गांव के पटेल-पंच बैठते हैं. तब मैं इस हिसाब से देखता हूं कि कैसे-कैसे बोलेंगे. कौन कौन क्या कर रहा है. क्या क्या पक्षपात होता है. दबंग कैसे अपने पक्ष में सारी चीजें करवा लेते हैं. ये चूंकि मैं खुद शामिल रहा हूं इसलिए. और अगर शामिल नहीं रहूंगा तो अंदर से वो चीजें निकल के भी नहीं आ पाएंगी. पॉलिटिक्स से जुड़े हुए हैं, अभी जो गांव के वर्तमान सरपंच हैं तो वो हमीं हैं मतलब. चुनाव हम लड़ते रहते हैं तो पता है कि इलेक्शन में क्या क्या होता है. क्या हेरा फेरी होती है. क्या क्या करना पड़ता है. पैसा. शराब. क्या क्या चीज क्यों होती है. तो वो कहानियां निकल आती हैं. वो खजाना वहीं से निकलकर आता है गांव में. बस निकालने वाला चाहिए. तलाशने वाला चाहिए. हर कहीं बिखरे पड़े रहते हैं किस्से गांव में.
चुनाव आप लड़े थे? पिछले चुनाव में चाचा लड़े थे. लेकिन वो तो सिंबल हैं. बाकी सारा काम तो हम ही करते थे. सब भाई मिलकर. प्रचार और योजनाएं बनाना. चूंकि मेरी शादी बचपन में हो गई थी जैसे बाल विवाह होते हैं, तो इस साल मेरे बड़े बेटे की जो बहू है वो अब सरपंच है. वर्तमान में महिला सीट है. तो चुनाव में अंदर तक शामिल रहे. रहना ही होता है. वो सारी चर्चा, राजनीति, राजनीतिक दांव, प्रचार.. ये सब गांवों में पहले होते हैं, केंद्र में बाद में पहुंचते हैं. राजनीति की शुरुआत गांव में ही होती है. गांव से लेकर दिल्ली तक राजनीति का एक ही फॉर्मेट है.
आप एक प्रेमी आदमी हैं, कलाकार आदमी हैं जिसका दिल मानवीय ज्यादा होता है. उसमें रहम और समानता की भावना होती है कि ऐसा क्यों है? उसके दिल को बहुत ठेस पहुंचती है अगर असमानता देखता है या किसी व्यक्ति पर अत्याचार देखता है. फिर ऐसे अन्याय करने वाले आदमियों के साथ आप कैसे बैठ पाते हैं? आपको गुस्सा नहीं आता कि एक व्यक्ति है जो ‘नीची’ जाति वाले को गाली देता है, किसी दूसरे पर बहुत ज़ुल्म करता है या बहुत पीटता है अपनी पत्नी को. ऐसे आदमी के साथ संबंध रखते हुए आप कैसे मेंटेन करते हैं आपके अंदर के उन दो इंसानों को – पहला जो इस सबसे नफरत करता है, दूसरा जो अपनी कथा के लिए ये मटीरियल चाहता है? कथाकार चोर होता है असल में. मुझे ये कहना पड़ रहा है लेकिन आपके दो रूप होते हैं. एक वो जो आप सामाजिक जिंदगी जीते हैं. सबके साथ रहना जरूरी होता है. ऐसा नहीं है कि गरीब पर अत्याचार हो और मैं खड़ा तमाशा देखता रहूंगा. ऐसा हो ही नहीं सकता. हमारा घर जाना इसीलिए जाता है कि हम कभी भी किसी के साथ अत्याचार नहीं करते. उल्टे कोई गाली दे रहा है तो गाली खाकर आ जाते हैं. आपके अंदर का जो कथाकार है, लेखक है उसे दोहरी प्रक्रिया से गुजरना होता है. कोई लड़ रहा है तो आपको चुपचाप सुनना होता है कि वो बोलते क्या हैं. मुद्दा अलग होता है और जो छुपा हुआ मुद्दा होता है वो बहुत अलग होता है. वो जानने के लिए हो सकता है आपको उनके साथ बैठना पड़े, पूरी रात उनके साथ बैठकर गुजारनी पड़े. आप जब तक उन जैसे नहीं हो जाओगे तब तक उनकी बात लिख नहीं सकते. उनका दर्द नहीं लिख सकते, उनका शोषण नहीं लिख सकते. तो ये दो बातें हैं. और ये कोई बुरी बात भी नहीं है. कोई लेखक कमरे में बैठकर कल्पना करे. मान लो मैं ही रौंसी गांव में बैठकर मुंबई के परिदृश्य पर कहानी लिखूं तो ये घटिया बात होगी. और नकली रचना होगी. मेरा पाठक पकड़ लेगा कि खराब कहानी है और नकली भाषा है, मरी हुई कहानी है. तो भाषा में वो जीवंतता लाओगे कहां से? अगर आपकी भाषा ही मरी हुई है तो कोई पढ़ेगा क्यों, कौन पढ़ेगा? लेखन की अपनी परतें होती हैं. पर वो कोई लिखित परतें नहीं होतीं. आपको पता चले कि यार वहां देखो ये हो रहा है. तो ठीक है, कोई नहीं चलो, पड़े रहो वहां क्या दिक्कत है. निकालकर लाओ चार चीजें. हालांकि एक पत्रकार और कहानीकार का काम बहुत अलग तरह का होता है. दोनों ही हर घटना और हर चीज को बहुत अलग-अलग नजर से लिखते हैं. कहानीकार को कोई खबर तो लिखनी नहीं है, न कोई सत्यकथा लिखनी है मनोहर कहानियों के लिए. उसे कहानी बुननी है जो लगे कि सच है और एक बड़ी गप्प भी हो साथ में. दोनों चीजें हैं. लेखन भी एक आर्ट है और लगातार काम करते हैं तो अभ्यास आ जाता है.

2016 की बात. कवि कैलाश मनहर के गांव मनोहरपुर में अपना कहानी पाठ करते पथिक.
जिस जगह आप रहते हैं, जो लिखना चाहते हैं, जैसी दुनिया देख रहे हैं, जिस समाज की कल्पना करते हैं 100 साल बाद, ये सब परेशान करने वाला होता है. जैसे देश में जो सिनेरियो है पिछले तीन-चार साल से. उसे देखकर पता है कि अगले 20-30 साल तक हम कहां पहुंचने वाले हैं. और प्रोसेस ऐसा हो गया जिसे पल्टा नहीं जा सकता. हमें मन में पता है कि क्या होने वाला है लेकिन हम फिर उसी समाज में रहते हैं और उन्हीं लोगों से रोज मिलते हैं, उनकी बातें सुनते हैं.. कभी आपको नहीं लगा कि मैं तीन दिन से ऐसे लोगों के बीच बैठ रहा हूं जिनसे मैं बिलकुल अग्री नहीं करता हूं और कहीं ऐसा तो न हो कि मैं भी वैसा बन जाऊं? आपको इसके साथ ये सोचना पड़ेगा न, कि कोई भी लेखक समाधान नहीं सुझाता. वो डॉक्टर नहीं है कि समाज का या आपका इलाज कर दे. वो समस्या जानता है कि कहां है. वो इशारा भी कर देगा कि प्रॉब्लम है तो यहां है. बस यहीं तक उसकी भूमिका है. अब बतौर राइटर आपको पसंद नहीं जिस आदमी के साथ बैठ रहे हो लेकिन क्या करें? आप कैरेक्टर लाओगे कहां से? गांव में भी परिवर्तन आ रहे हैं. देखिए संबंधों में कैसे परिवर्तन आ रहे हैं? बड़े कुटुंब और घर बिखराव की ओर जा रहे हैं. हर किसी की महत्वाकांक्षा है गांव की राजनीति में कि सरपंच बने. अगर हिंदुस्तान की बात करें तो हर आदमी की इच्छा है कि वो मुख्यमंत्री बने या एमएलए बने. हिंदुस्तान का प्राइम मिनिस्टर बने. यहां गांव में हर युवा की यही इच्छा है अगर वो पढ़ा-लिखा है और रोजगार नहीं मिल रहा है तो कि गांव का मालिक बन जाऊं. लेकिन उसके लिए जो वो करता है सारी चीजें. दोस्तों या दूसरों से कैसा व्यवहार करता है, जो उसको नहीं करना चाहिए. वो चीजें, खराबी वहां से आती है मतलब. लेकिन चूंकि आपको लिखना भी वही है जो परिवर्तन हो रहे हैं. गांव में जो परिवर्तन हो रहे हैं. सारे अच्छे-अच्छे घर बिखर गए राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं के चलते. भाई से भाई नहीं बोलता. एक भाई उस पार्टी में बैठा है, एक भाई इस पार्टी में बैठा है. आना-जाना नहीं होता एक दूसरे के घर शादी ब्याह में. ये जो बिखराव है संबंधों का, ये बीमारी क्या है? अब आप लेखक हो तो आप लिखेंगे इनको. खराब आदमी है, अच्छा आदमी है - लेकिन वो खराबी और अच्छाई तभी पकड़ में आएगी जब आप उनकी संगत करोगे. नहीं तो पता नहीं चलेगा कि दरअसल समस्या है क्या? ये बहुत जटिल यथार्थ होते हैं जीवन के, हम बहुत न्यून पकड़ पाते हैं, कण पकड़ पाते हैं महीन सा कुछ. हम पूरा सच पकड़ भी नहीं पाते, बहुत छोटा तिनके जितना पकड़ में आता है. मैं किसी औरत की कहानी लिखूंगा तो ये होगा कि वो हर औरत की कहानी हो. सिर्फ एक कमला की कहानी न हो. सिर्फ रौंसी की कहानी न हो, हर गांव की कहानी हो.
“फिरनेवालियां” कहानी आपने लिखी थी. वो इस बारे में है कि गांवों में जो शोक होता है उसमें कृत्रिमता आ गई है. रोने में या अफसोस करने में. ये उपजी कहां से? आपने इसे लेकर अपने गांव या कहीं और कोई वाकया देखा था? दूसरा ये कि शहर में लोग रहते हैं उन्हें गांव बहुत मासूम लगता है. गांव ही वो जगह है शायद जहां से सब टूटना शुरू होता है. जैसे “रुदाली” फिल्म थी. उसमें आप देखते हैं कि रोने के लिए बुलाते हैं क्योंकि घरवाले तो रोते नहीं या रो नहीं पाते हैं. हर कहानी की जड़ होती है. दो चीजें होती हैं - शब्दों की बाजीगरी और शिल्प की बाजीगरी से कहानी लिखना. हैं न, तो वो तो मैं करता नहीं. हवा में जैसे कोई जादू से महल खड़ा कर देता है, वो शब्दों की जादूगरी मेरे पास है नहीं. कहानी के बीज छुपे होते हैं कहीं आस पास, अपने पड़ोस में, घर में. मान लो मेरे ही घर में किसी ही मौत हो गई और कोई कहे कि भई कल वहां चलना है फूफा खत्म हो गया, तो आपकी बहू कहेगी कि भैय्या हमारे यहां तो तेरी बहू गई नहीं तो हम क्यों जाएं. इतनी सी बात में कहानी हो जाती है. कि ये क्या हो गया यार? ऐसे कैसे संबंध हो गए? रोने में भी अदला और बदला? और हम रोज देखते हैं चूंकि गांव में पैदा हुए और गांव में ही घर है कि कहीं न कहीं रिश्तेदारों में औरतें जाती हैं तो वो कैसे साज सिंगार करती हैं. जा रोने के लिए रही हैं लेकिन वो काजल लगाएंगी, टीकी लगाएंगी, नए कपड़े पहनेंगी. वो चाहती नहीं कि हम खराब दिखें. मैं ये हमेशा देखता था और बड़ा खराब लगता था कि क्या तमाशा है.
तो मैंने ये कहानी जेएलएफ (जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल) में पढ़ी गुलजार जी के सामने 2012 में. वहां हम चार लोग थे पढ़ने वाले. उसमें तब के इजराइल के राजदूत थे नवतेज सरना, एक डॉ. लक्ष्मी शर्मा थीं जयपुर की, एक्ट्रेस दीप्ति नवल थीं और एक मैं था. तीनों जब पढ़ चुके अपनी-अपनी कहानियां तो लास्ट में मेरा ही नंबर था. मेरे सामने दस-बारह फुट की दूरी पर ही गुलजार बैठे हुए थे. आपने जैसे “रुदाली” का जिक्र किया तो मैंने भी जिक्र किया था कि गुलजार सामने बैठे हैं जिन्होंने “रुदाली” बनाई (लिखी) है लेकिन मैं “रुदाली” को फिल्म नहीं कहूंगा, वो किराए पर रोने वालियां होती हैं. बड़े सामंतों के यहां कोई मर जाता है तो उनकी एक जमात होती है जिनको बुलाया जाता है. वो फिल्म मैंने भी देखी थी डिंपल, राज बब्बर थे उसमें. लेकिन मैं “फिरनेवालियां” पढ़ रहा हूं. बात वही है, पर मेरा अंदाज अलग है. मैंने वो कहानी पढ़ी तो लोगों के खूब ठहाके लगे. जब कहानी खत्म हुई तो गुलजार जी लपके और मुझे गले से लगा लिया. कि यार क्या कहानी पढ़ी है आपने! वो कहानी मेरे “पीपल के फूल” संग्रह में थी. संग्रह मेरे हाथ में था. उन्होंने कहा कि ये संग्रह तो मेरे को देना ही पड़ेगा. मैंने संग्रह दिया तो उन्होंने कहा कि यार ऐसे नहीं देते, अपने ऑटोग्राफ करके दो और आज की डेट डालो. वो अद्भुत क्षण था कि गुलजार जी जैसे हिंदुस्तान के प्रबुद्ध और बड़े आदमी जो कहानियों को समझते हैं, गीतों को समझते हैं और सिनेमा के तो मास्टर हैं ही, उन्होंने ये मान दिया.

जयपुर लिट फेस्ट-2012 के अपने सेशन में चरण सिंह. उनकी एक अन्य झलक भी.
एक आपकी कहानी थी “दंगल” जो गांवों में हो रहे नए किस्म के विभाजन के ऊपर थी. कीर्तन की मंडलियां होती हैं जो सांप्रदायिक और जातिवादी काव्य एक दूसरे पर फेंकती हैं. इसे अपने आस-पास आपने किस रूप में देखा? ऐसे कीर्तनों में कथा कही जाती है और उसमें एक अपनी शैली होती है गायन की. उसमें 15-20 आदमी होते हैं. बाकी बैठे रहते हैं. दो-चार खड़े रहते हैं. भीड़ होती है. सुनती है. कथाएं-उपकथाएं पौराणिक होती हैं लेकिन कुछ समकालीन भी होती हैं. हमारे यहां ये बहुत होता है. अब भी होता है. 15-20 लोगों के दल होते हैं, उन्हें पाल्टी कहते हैं. हमारे पड़ोस में एक गांव है, वहां एक पीरू तेली था. कहानी “दंगल” में वो होता है. वो मुसलमान है, और एक ही घर है उसका पूरे गांव में. पड़ोस के गांव के दल का मेडिया होता है. मेडिया मतलब मुख्य गायक, पूरी जोठ उसी से चलती है. तो लोगों में ईर्ष्या होती थी कि देखो एक मुसलमान को हमारे ऊपर नायक बना रखा है. टीम का हीरो होता है वो. अब टीम कह लो, जोठ कह लो, पाल्टी कह लो. वही होता है. तो बहुत सारे पंडित और दूसरी जात वालों को वो अखरता था. क्योंकि आप जीतते हैं तो साफा आपके बंधता है क्योंकि आप नायक होते हैं. बस इतनी सी बात थी. वो परिचित था हमारा. उसने एक घटना सुनाई कि नाराजी हो गई. मेरे फेंटा बांध दिया लोगों ने तो दूसरे भड़क गए. हमें ताने दें, मुल्ला कहें, कटुआ कहें. पीरू ने फिर बंद कर दिया गाना. हालांकि कहानी में अलग ही जोश बनाकर गाता है. कहानी तो कहानी के हिसाब से चलती है, यथार्थ के हिसाब से नहीं चलती न. कहानी कह रहे हो आप कोई रपट तो लिख नहीं रहे हो कि क्या-क्या हुआ. उसमें भी जो सांप्रदायिकता लेकर आए उनकी वजह से गांव में मनोरंजन विधाएं इस तरह नष्ट हुईं. जातिवाद, संप्रदाय इनसे. अब गांव में कुछ नहीं बचा. बहुत कम बचा है. दंगल का मतबल युद्ध ही है. कि दुनिया दंगल है और इसमें क्या क्या होता है.
गांवों में जो कीर्तन होता है उसकी फिलॉसफी क्या रही है? वो कहीं कबीर की भी हो सकती है या दूसरे संतों-सूफियों की. जैसे - ‘जीव क्यों भटके.’ हालांकि रात के कीर्तन में वे सुलझे हुए दर्शन को गाते हैं और सुबह उठने के बाद उसके उलट करते हैं. जब गांवों में बिजली नहीं थी, तब मजदूर या किसान लोग थके हारे शाम को आते थे. अब वो थकान कैसे उतारें. अपने अंदर की पीड़ा, अपने को अभिव्यक्त कैसे करें मतलब. वहां फिलॉसफी नहीं थी. उनको उससे लेना देना नहीं था. उनका तो था कि हम जो अपना काम कर रहे हैं हमारे पास मनोरंजन के कोई साधन नहीं है तो उन्होंने अपने तरीके इजाद किए. भजन गाने लगे. पहले डोम आते थे, किस्से सुनाते थे. वो लुप्त हो गए. ये चीजें ऐसे बनी धीरे-धीरे कि लोग रिलेक्स होने के लिए साथ बैठते थे. बोलते थे पेटी उठा ला रे, मंजीरे ले आ, कुछ गाएंगे भजन करेंगे. इससे एकजुटता बनी रहती थी. सुख दुख भी वो वहीं सांझा कर लिया करते थे. छोटे-मोटे झगड़े का वहीं निदान कर लेते थे. उनका यही दर्शन था कि गांव का भाईचारा बना रहे, एक दूसरे का हाल चाल पूछ लें कि भाई सब ठीक तो है. उनका मंतव्य और गंतव्य यही था.
गावों में हम बहुत सी खूबियां देखते हैं. एक कन्नड़ फिल्म आई थी “तिथि” 2016 में. वो ऐसी कहानी थी कि गांव के 101 साल के बुजुर्ग मर जाते हैं, उनके अगले 11 दिनों की तिथियों में क्या क्या घटनाएं होती हैं. कर्नाटक के गांव मंड्या में बसी कहानी थी. अगर हम उस स्पेस में जा सकें जैसे कहते हैं न कि गांव में बहुत सी मौलिक और निर्मल चीजें होती थीं और सब चीजों का समाधान वहां था. जैसे गांव में क्राइम न के बराबर थे. ताले घरों में कभी लगाते नहीं थे. शहरों में वो चीजें एक्स्ट्रीम में हैं. तो गांव और शहर वर्सेज़ में ये है कि वहां ये अच्छा और वहां ये बुरा. गांव में सबसे खराब अगर बताया जा सकता है तो वो ये कि वो आपको वैयक्तिक नहीं होने देता है. और वो महिलाओं के प्रति क्रूर होते हैं. महिलाओं के अधिकार वहां नहीं होते हैं. या नए जमाने में LGBTQ के अधिकारों को लेकर स्वीकार्यता है वो नहीं होती. या औरतों की सेक्सुअल फ्रीडम या ओरिएंटेशन हो गई. आपने इन दो फर्कों के बारे में कभी सोचा तो होगा. गांव में दस अच्छी चीजें हैं लेकिन कुछ बद्तर चीजें भी हैं जिनकी वजह से उलझन होती है. एक चीज पहले भी थी, अब भी है. अब जैसे जैसे शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो रहा है तो औरतों वाला जो आप अच्छा बता रहे हैं, वो ठीक हो रहा है. आपको मैं कहूं कि गांव में उस आदमी को सबसे कमजोर समझा जाता था जिसके घर में उसकी औरत की चलती थी. ये फैक्ट है, चाहे हिंदुस्तान के किसी गांव में जाकर देख लीजिए. अरे यार ये क्या ले आया, अब ये तो किसी काम का नहीं, अब इसके घर में तो जो औरत करती है वही होता है. उस आदमी को कोई काम का नहीं मानते थे बेचारे को. और ये जो मानसिकता सदियों से चली आ रही थी कि अरे ये क्या काम करेगा, ये बेकार आदमी है. उस मानसिकता से निजात दिलाने के लिए वो औरत को बाहर अपने साथ नहीं ले जाता था. ऊपर से कहता था मैं करूंगा यार, कौन होती है औरत. अब बेचारी औरत कुछ बोले, हैं न, अच्छा बोल रही है वो, आपको अच्छी सलाह दे रही है लेकिन माननी नहीं है न वो बात तो. क्योंकि फिर बाहर ढिंढोरा हो जाएगा कि यार इसकी तो जो औरत करती है वो ही होता है. इसके घर में तो उसकी चलती ही नहीं है. लोगों की इस मानसिकता से बचने के लिए और अपने आप को बड़ा साबित करने के लिए वो औरत को बोलने ही नहीं देता था. किसी मसले में औरत को बाहर तो आने ही नहीं देते थे, घर में भी उसकी नहीं मानी जाती थी. औरत ज्यादा बताने की कोशिश करती तो उसकी पिटाई हो जाती थी. अब बहुत ज्यादा चेंज आया है. अब चाहे वो अनपढ़ हो. अब चाहे वो पढ़ी लिखी हो. अब कोई पति, ससुर या जेठ अत्याचार करता है तो वो बोलती भी है और धमकी भी दे देती है पुलिस में जाने की, शिकायत करने की. वो सामने आ जाती है. ये परिवर्तन तो है. बाकी अब गांव वैसे गांव रहे नहीं. अपराध भी उतने (कम) नहीं हैं क्योंकि चीजें जैसे फैल रही हैं, बहुत सारी चीजें खराब भी हुई हैं, बहुत सारी चीजें. सबसे बड़ी बात तो ये है कि अब वो अपनापन टूट गया है. आदमी सेल्फिश होता जा रहा है. जो गांव हमको सेल्फिश होने से बचाता था न, हम उसकी पकड़ से बाहर निकल गए अब. सेल्फिश हो गए. मुझे मेरा ही चाहिए, मेरा ही भला हो, चाहे भाई हो या ये हो, भाड़ में जाए कुटुंब. ये प्रभाव बहुत हो गया. बाकी सारी चीजें भी हैं. सारी चीजें हैं लेकिन फर्क है. औरत अनपढ़ है लेकिन समझती है कि उसे क्या करना चाहिए. वो बराबर आपके काम करेगी, हर चीज में दखल रखेगी.
एक आपकी कहानी है “यात्रा” जिसकी शुरुआत होती है कि भगवा झंडे और लाउडस्पीकर लगी जीप गांव में घूम रही है. हाल में far-right जो मजबूत हुआ है उसके बाद राजस्थान के गांवों-शहरों में भी देखते हैं कि हमारे घरों के सामने से नंगी तलवारें और भगवा झंडे लहराते हुए मोटरसाइकलें और जीपें बहुत निकलने लगी है - राम मंदिर बनाने के नारे लगाते हुए या पद्मावती के विरोध में, या धार्मिक रैलियों में. गांव में लोग अपनी जाति को नई मजबूती के साथ पकड़ने लगे हैं, फेसबुक पर ग्रुप्स बनाने लगे हैं, ये जो बद्तर होता जा रहा है हिसाब, गांव में जो पहले नहीं था. बड़े बूढ़े पहले संभाल लेते थे. आपको याद होगा कि मुसलमान हिंदू जैसा कुछ होता नहीं था. इन घटनाओं को अपनी कहानी के संदर्भ में आपने ऑब्जर्व किया? हां पहले (हिंदु-मुसलमान का) सवाल ही नहीं था. लोगों को ये भेद पता ही नहीं होता था. आप सही कह रहे हैं. जितने अपराध बढ़ रहे हैं गांव में उतनी ही लोगों में नकली धार्मिक प्रवृत्ति बढ़ रही है. सबने अपने अपने भगवान खोज लिए हैं. गुर्जरों के देवनारायण हो गए. मीणाओं के मीन भगवान हो गए. अग्रवालों के अग्रसेन हो गए. ब्राह्मणों के परशुराम हो गए. और सबको अपने देवताओं की जयंतियों से लेकर राजकीय अवकाश तक चाहिए. हो ये रहा था गांव में उसके लिए बैकग्राउंड में चीज क्या है ये समझ लें. मानो ठाकुरजी की यात्रा जाते थे, या गोवर्धन जी की यात्रा जाते थे, तो वो इसलिए नहीं जाते थे कि गांव का भला होगा, कुछ पॉजिटिव होगा या सबके हित की कोई चीज होगी. वो तो उसमें नहीं थी. जैसे रथयात्रा थी आडवाणी जी की तो वो एक पोलिटिकल यात्रा थी. मैं जितने अधिक लोगों को गोवर्धन की यात्रा पर ले जा सकता हूं, उतना ही गांव में मेरा प्रभाव होगा. अगर 500 आदमी भी ले गया तो इसका मतलब ये है कि मैं सरपंची का दावेदार हो गया. एक नया नेता पैदा हो गया. ये प्रवृत्ति अब आई है. आप (कुछ लोगों को) केलादेवी ले गए तो मैं सोचूंगा कि यार गजेंद्र तो ले गया अब मेरा क्या चलेगा गांव में. तो मैं जलन के मारे शिरडी ले जाऊंगा. अनाउंस कर दिया. परचे बंट रहे हैं. दिन रात मेहनत हो रही है. अपना प्रभुत्व जमाना गांव में, अपने आपको साबित करना, अपना राजनीतिक वजूद बनाए रखना और ये दिखाना भैय्या एक उम्मीदवार और आया है सरपंची का. मैंने ये सब बहुत नजदीक से देखा. मुझे बहुत गुस्सा आता था कि अमूमन एक यात्रा में 5 लाख रुपये खर्च होते है. उसे गांव के विकास में लगा दो तो गांव में दो कमरे खड़े होते हैं. कितना भला होता. लेकिन कोई इस यात्रा पर ले जाता है, कोई उस यात्रा पर. साल में चार यात्रा तो जाती ही है. साल के 20 लाख रुपये गांव से ऐसे खर्च होते हैं. और एक को देख के दूसरा ऐसे करता है, बस. गांव का तो विकास नहीं ही हो रहा है, वैमनस्य बढ़ रहा है वो अलग. एकजुटता टूट रही है. आप गांव के हिसाब से नहीं कर रहे ये सब, अपने लिए कर रहे हैं. वो जो रोष था, फ्रस्ट्रेशन था वो मुझे लिखना था. कि ये पोलिटिकल यात्रा है कोई धार्मिक यात्रा नहीं थी. लोग कितने परेशान होते हैं. क्या क्या खेल होते हैं. लोगों को ललचाने के लिए कहते हैं हमारी यात्रा में ये मिलेगा, वो मिलेगा - आओ. मतलब धर्म का व्यापार होता है जो कनवर्ट किया जाता है सिर्फ वोटों में.

एक धार्मिक यात्रा शुरू होने को है. उससे पहले नाश्ते का वक्त. बीच में बैठे हैं चरण सिंह पथिक.
आपके फेवरेट कहानीकार कौन हैं. विश्व में, हिंदी में या राजस्थानी के. सभी को पढ़ता हूं. हमारे जितने भी क्लासिक्स हैं विश्व के या हिंदुस्तान के जो कहानीकार हैं, मैंने सबको थोड़ा थोड़ा पढ़ा है. आप पढ़ें, सीखें लेकिन मैं किसी से प्रभावित हुआ नहीं. मेरे साथ ये हुआ नहीं कि मुझे ये खराब लग रहा है या ये अच्छा लग रहा है. मैं चाहता हूं कि खराब से खराब किताब पढ़ूं ताकि पता चल सके कि उसमें क्या खराबी है. और अच्छे से अच्छा पढ़ूं ताकि ये पता चले कि क्या अच्छा है. हमारे गुरु जो हैं कहानी के ज्ञानरंजन जी या राजेंद्र यादव, उन्होंने कोई ज्यादा ज्ञान नहीं दिया लेकिन उन्होंने जो बात कही वो ये कि जड़ और जमीन से मत कटना बस. तभी लिख पाओगे. तो पसंद तो सभी हैं. जितने भी आप नाम लें वो सब पसंद हैं. हिंदुस्तान में भी बहुत अच्छा लिख रहे हैं. समकालीन जो लिख रहे हैं सभी दोस्त हैं. किसी एक का नाम नहीं ले सकते. अगली पीढ़ी के जो कहानीकार हैं वो भी अच्छा लिख रहे हैं.
अभी जो कहानी लिखी जा रही है उसमें मूल रूप से आप क्या बदलाव देखते हैं? जो क्लासिक्स का दौर था, दोस्तोयेवस्की का, प्रेमचंद का, उसके मुकाबले 2018 तक आते-आते वो कौन की बात है जो अलग से नजर आती हैं आज के एक्सप्रेशन में? इसे ऐसे कहूंगा कि उन्होंने अपना दौर लिखा. दोस्तोयेवस्की, गोर्की, प्रेमचंद, रेणू, रांगेय राघव कोई भी हो उन्होंने अपना जौहर लिखा. अपने समय को लिखा. ये मेरा समय है 2018. मैं इस समय को कैसे देख रहा हूं. चीजें वहीं हैं. औरतों से शोषण पहले नहीं होता था क्या? हर वक्त में होता था. गरीबों पर अत्याचार पहले भी होता था. कौन सी चीज पहले नहीं थी? वो कौन से नए विषय अब 2018 में आ गए, कौन सा खजाना हाथ लग गया 21वीं सदी में लेखकों के? मेरी ही नहीं, बहुत सारे लेखकों की बात कर रहा हूं कि आपने नया लिखा क्या? महाभारत या रामायण में कौन सी चीज नहीं है मतलब? ऐसा क्या क्या नहीं कहा गया जो आप कह रहे हैं? आपके लेखन में ऐसा क्या है जो लोग पढ़ें? सवाल यही सबसे बड़ा होता है. हर लेखक अपने दौर को जीता है और अपने दौर की बात रखता है. भाषा बदलती है, बाकी तो कुछ नहीं बदलता. कंटेंट तो वही रहता है. मान लो मैं औरतों पर अत्याचार पर लिखूं तो वो पहले भी लिखा गया लेकिन तब शैली अलग थी, शब्द अलग थे. अब मैं लिखूंगा तो मेरी अपनी शैली होगी. अब नए-नए शब्द आ गए. जो जीवंत शब्द थे गांव के वो तो खत्म कर दिए. लेकिन हम जैसे लेखकों का दायित्व है कि उन शब्दों और मुहावरों को खत्म नहीं होने दें जो लुप्त हो जाएंगे. भाषा मार दी गई आधुनिक बनने के चक्कर में. आज हिंग्लिश बोलते हैं. उसके चक्कर में भाषा की जो जीवंतता, माधुर्य और रस है वो खत्म कर दिया गया. हम वो लिखते हैं. इसीलिए लोग पढ़ते हैं और पसंद करते हैं.
आपकी कहानी “दो बहनें” पर विशाल भारद्वाज ने फिल्म बनाई है “पटाख़ा.” इसकी शुरुआत कहां से हुई थी? विशाल से मिलना कब हुआ और फिल्म की मेकिंग की जर्नी क्या रही? ये कहानी 'दो बहनें' 2006 में समकालीन भारतीय साहित्य के अंक में छपी थी. साहित्य अकादमी की मैगजीन है. अरुण प्रकाश इसके संपादक थे. 2011 में विशाल जी ने पढ़ी ये. छपने के पांच साल बाद. क्योंकि बहुत पढ़ाकू आदमी हैं विशाल जी. समकालीन हर मैगजीन पढ़ते हैं वो. इंडिया में जितनी मैगजीन निकलती है वो उनकी टेबल पर मिलेगी आपको. हर नया लेखक उनकी टेबल पर होगा. 31 जुलाई 2011 को फोन आया. उस वक्त हम प्रेमचंद जयंती मना रहे थे जयपुर में. उनके असिस्टेंट का फोन आया आदित्य का कि विशाल जी को जानते हैं क्या? मैंने कहा उनको कौन नहीं जानता. 2011 तक मेरे दो ही संग्रह थे – “बात ये नहीं है” और “पीपल के फूल”. मैंने दोनों उनको भेज दिए थे. बीच-बीच में उनके सचिव से बात होती रहती थी.
2012 में जेएलएफ में जब विशाल जी आए तो मैं कहानी (‘फिरनेवालियां’) पढ़ चुका था गुलजार जी के सामने. मेरे साथ ईश मधु तलवार जी थे, ईटीवी के हैड थे. उन्होंने कहा कि सुना है विशाल जी आए हैं और उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस डिग्गी हाउस के ऊपर चल रही है. तो मैंने कहा, चलो, मिलना है उनसे. और हम दोनों चले गए. वहां प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बहुत सारे पत्रकार उनका इंटरव्यू ले रहे थे. तलवार जी ने कहा, यार यहां तो कोई मौका है ही नहीं मिलने का. ये लोग इतने सारे सवाल पूछ रहे हैं टाइम मिलेगा नहीं, भीड़ बहुत है. मैंने कहा कि 2 सेकेंड का टाइम मिल जाए तो वो समझ जाएंगे. वो टाइम मिला तो मैंने वहां जाकर कहा - “सर, आई एम चरण सिंह पथिक.” तो उन्होंने कहा – “अरे यार मजा आ गया.” उन्होंने कॉन्फ्रेंस वहीं खत्म कर दी. मेरी अंगुलियों में अपनी अंगुलियां फंसाकर बोले - “मेरा भाई मिल गया बस.” वो मेरे को बहुत अद्भुत आदमी लगे. जैसे कोई दूसरा भाई मिलता है उतने अपनत्व से मिले. जैसे वो मेरे को बरसों से जानते हों. कि अरे मैं कब से ढूंढ़ रहा हूं यार. मेरे को लगा कितने प्यारे इंसान हैं.
खूब सारी बातें करते रहे. तलवार जी और हम साथ-साथ चलते रहे. उनकी फ्लाइट थी. बोले, “अभी मुझे जाना पड़ेगा मुंबई. और हम मिलकर कभी न कभी साथ काम करेंगे ये मेरा वादा है.” उसके बाद मैं भी अपने काम में लग गया. गजेंद्र क्षोत्रिय हैं हमारे दोस्त. उसी जेएलएफ में 2012 में वो बोले कि आपकी कहानी (कसाई) पर फिल्म बनाना चाहता हूं. मैंने कहा, बना लो. 15 मार्च 2017 के आसपास मुंबई से मेरे पास फोन आता है विशाल जी का. उन्होंने कहा – “मुंबई आ जाओ. आपका टिकट भेज रहे हैं हम.” मैंने कहा – “सर, टिकट तो भेज दो, पर 17 का भेज दो. अब गांव से चलूंगा तो जयपुर पहुंचकर सुबह की फ्लाइट पकड़ना बहुत मुश्किल है.” तो मैं 17 मार्च को पहुंचा वहां. उनके साथ तीन दिन काम किया “दो बहनें” पर. कहानी में रोडमैप बनाया. हमें कहां से चलना है, कहां पहुंचना है. कहानी थी छह पन्ने की और फिल्म बननी थी दो घंटे की, तो उसे कैसे बनाया जाए. कहानी की नींव और आत्मा बरकरार रहे, कहानी मरे नहीं और फिल्म भी बने. ये था उद्देश्य. नए पात्र भी बने. तो हमने दो पन्ने का रोडमैप बनाया. 15-16 बिंदु थे खाली. उन्होंने कहा कि अगर आप इन बिंदुओं के मद्देनज़र 100-125 पेज लिख दें तो हम बहुत शानदार काम कर सकते हैं. मैंने वैसा ही किया. 100-125 पन्ने लिखे मैंने. उन्हें भेजे. उन्हें जबरदस्त पसंद आया. जो कैरेक्टर मैंने खड़े किए, जो संवाद मैंने लिखे वो बहुत अद्भुत लगे उनको. 2 दिसंबर को उन्होंने अचानक कहा - “पथिक जी हम गांव आ रहे हैं आपके.” मुझे लगा कि क्या बोल रहे हो. बोले - “अरे, गांव आ रहे हैं आपके!” मैंने कहा आइए.
वो आए. दो दिन हमने गांव में लोकेशंस देखीं. गांव के बाहर भी देखीं. रेखा (भारद्वाज) जी भी थीं उनके साथ. विशाल जी की टीम थी. असिस्टेंट थे. प्रोडक्शन टीम थी. दो दिन गांव में रहे. ये तय किया उन्होंने कि रौंसी गांव में इसको शूट करूंगा. तय हो गया कि फरवरी 2018 में शूट करेंगे. लेकिन बीच में उनके कुछ प्रोजेक्ट आगे बढ़ गए. वो बिजी हो गए. उन्होंने दोबारा बुलाया. 27-28 मार्च को मैं मुंबई गया. तीन दिन उनके साथ में रहा. उन्होंने स्क्रिप्ट लिख ली थी तो बोले – “देख लो भाषा, डायलॉग वगैरह सही हैं कि नहीं.” तीन दिन में उसको पढ़कर सही किया. फिर सारे एक्टर्स और यूनिट के लोगों के साथ स्क्रिप्ट नरेट की गई. वहां सबको लगा कि ठीक है. फिर उनके लीड एक्टर्स हमारे गांव आए. कुछ दिन रहे. उनकी हमने वर्कशॉप ली.

रौंसी स्थित घर में चरण सिंह के साथ विशाल भारद्वाज, उनकी पत्नी रेखा. दूसरी ओर क्रू के अन्य सदस्यों के साथ भोजन करते विशाल-रेखा. (फोटोः दी लल्लनटॉप)
लोगों के लिए शायद ये विस्मय रहा हो कि मुंबई से इतना बड़ा डायरेक्टर रौंसी गांव में एक कहानीकार के घर आया है और उसके गोबर लीपे आंगन में खड़ा होकर गांव का खान-पान क ॉय पी रहा है. क्या आप इसे ऐसे ही देखते हैं? कैसे आदमी हैं विशाल? बहुत विनम्र, ज़मीन से जुड़े हुए आदमी हैं. मैं ये कहूं तो कोई बड़ी बात नहीं कि वो इंडस्ट्री के पहले ऐसे डायरेक्टर हैं जो जितना अच्छे से शहर / महानगर को समझते हैं, उतने ही बेहतरीन तरीके से गांव को समझते हैं, गांव की संस्कृति को समझते हैं, गांव की भाषा को. वो ऐसा लगते ही नहीं थे कि मुंबई के रहने वाले हैं. जैसे गांव में रहते हैं न अपन, वो वैसे ही बात करते थे. बोलने का अंदाज गांव वाला रहता था. वही सरलता. मेरी उनके साथ कोई पांच-छह मुलाकातें हो गईं, उन्होंने मेरे या किसी के भी सामने कभी ये जाहिर नहीं किया कि उनकी इतनी बड़ी इंटरनेशनल पहचान है. किसी को अहसास नहीं होने देते. उनकी अपनी एक मौलिकता है. उनमें ये बहुत पॉजिटिव चीज है. उनकी समझ बहुत शार्प है. जानते हैं कि उनको क्या करना है. मुझे लगा कि हमारा कोई बड़ा भाई है जो आया है. उनको कतई ऐसा नहीं लगा कि भई कहां आ गया. हां, लोगों ने अचंभा किया जो हमारे दोस्त थे. कि अरे यार विशाल जी तुम्हारे गांव आ गए यार. जब 2012 में जेएलएफ में विशाल जी ने बोला था कि यार मैं आपके गांव आऊंगा फिल्म बनाने के लिए, तब लोग मजाक बनाते थे मेरा.
“दो बहनें” कहानी का आइडिया कैसे आया और ये कैरेक्टर किन असल लोगों पर बेस्ड थे? ये दो सगी बहनों की कहानी है. असल में वो एक मेरे बड़े भाई की पत्नी हैं और दूसरी छोटे भाई की पत्नी जिन पर ये किरदार बेस्ड हैं. दोनों सगी बहनें हैं. गांव में जैसे होता है. उनके संवाद सुनता था. छोटी-छोटी बातों पर लड़ती थी, झगड़ती थी. मैं उनको ऑब्जर्व करता था कि कैसी भाषा बोलती हैं. क्या संवाद बोलती हैं. उनकी बातें बड़ी दिलचस्प होती थी. बस वो एक ऑब्जर्वेशन था. मैंने कहा इसे कहानी की तरह कैसे लिखा जाए. चटपटे अंदाज में इनकी टक्कर होती थी. सुनने में आनंद आता था. उसके बाद एक-आध साल तक मेरे दिमाग में ये कहानी घुमड़ती रही थी. क्योंकि ये (इनके झगड़े) आए दिन होता था. छोटी मोटी बात पर. कभी 100 रुपये मांगने के लिए भी. इनमें बड़ी इंट्रेस्टिंग झड़पें होती थीं और कहीं भी लड़ लेती थीं. इनका जो सिस्टम था लड़ना, सारी जो अभिव्यक्तियां थीं, प्यार की, ये सब होती थी और मैं देखता था. क्योंकि हमारी बाखळ एक ही थी. बाखळ समझ रहे होंगे आप, जिस परिसर में हम रहते हैं. बीच में नीम का पेड़ है. बीच में कच्ची जगह गोबर से लिपी रहती है, आंगन में मांडने बने होते हैं, चारों तरह रहने के लिए परिसर होता है और प्रोल (मुख्य दरवाजा) होती है बस. फिर लिखी. 2006 में ये छपकर आई समकालीन भारतीय साहित्य मैगजीन में.
आपकी ये कहानी जब उन दोनों बहनों को पता चली तो उनका क्या कहना था? मतलब मैंने बहुत दिन तो पढ़ाई नहीं. वो मैगजीन मैंने किसी को नहीं दी. जब कहानी संग्रह की किताब आई “पीपल के फूल”, तो ये बड़े भाई ने पढ़ी थी. फिर उनके बच्चों ने पढ़ी. फिर उन दोनों (बहनों) को पढ़ाई. पहले बताई तो इसलिए नहीं कि क्या पता क्या रिएक्शन हो जाए इनका. जब (‘पटाख़ा’ का) ट्रेलर आया तो दोनों ने देखा, उन्हें बिलकुल भी बुरा नहीं लगा, अच्छा लगा बल्कि. विशाल जी जब गांव आए थे तो इनसे मिलकर गए थे.
सान्या मल्होत्रा और राधिका मदान इन दोनों से मिली थीं जिनके रोल “पटाखा” में वे कर रही हैं? उस दौरान क्या क्या हुआ? दिसंबर 2017 में जब विशाल जी दो-तीन दिन यहां रहे थे तो उन्होंने कहा था कि हमारी दो हीरोइन हैं राधिका मदान और सान्या मल्होत्रा. दोनों आपके यहां वर्कशॉप करेंगी. फिर वो दोनों अप्रैल में आईं. इसी दौरान उनसे भी मिलीं. पांच दिन यहां उनकी वर्कशॉप हुई. गांव में किस तरह से काम करते हैं, झाड़ू किस तरह लगाते हैं, चूल्हा किस तरह जलाते हैं, छाछ कैसे बिलोते हैं, गोबर किस तरह से डालते हैं, कंडे कैसे थापते हैं, भैंस का दूध कैसे निकालते हैं, भैंसों को कैसे चारा डालते हैं, कैसे चारा काटते हैं, कुएं से पानी खींचकर कैसे लाते हैं ये सब इन्होंने रहकर किया. ये दोनों कुएं से पानी खींचकर लाती थीं. चार-पांच दिन हमारी पत्नी और हम सबने मदद की. और बहुत सी चीजें हैं जो औरतें बता सकती हैं वो औरतों ने बताई. मैंने उन दोनों को बीड़ी पीना सिखाया. उनके साथ कास्टिंग के लोग भी थे गौतम (किशनचंदानी) जी और देश दीपक जी. उनके दो असिस्टेंट भी थे. उनका एक्टिंग कोच भी था. मेरा काम था स्क्रिप्ट नरेट करना. उनके उच्चारण को शुद्ध करना. कि वो क्या बोल रही हैं और कहां तुम्हारा एक्सेंट गलत है. ये रोज का काम था. बहुत टाइट शेड्यूल रहता था. हम पांच बजे लगते थे रात 10-11 बजे तक ये सब चलता था. रात में नाच गाना सब होता था. रोज डीजे बजाते थे. नाचते थे. ये लड़कियां (सान्या, राधिका) भी हमारे गुर्जरों के कपड़े पहनकर डांस करती थी.

चरण सिंह के आंगन में राधिका और दूसरी ओर सान्या.
गांव में दोनों का स्टे कहां रहा? एक रात तो हमारे यहां ही रुकीं. अप्रैल का महीना था. तब गर्मी पड़ती है राजस्थान में खूब. हालांकि खुले में आराम से सोईं वो हमारी बाखळ में. रात में ठंडी हवा आती है खूब. पर चूंकि वो पहली बार आई थीं और पहले दिन हमने डांस भी खूब कर लिया था तो थक गईं. अगले दिन से वो गांव से 10 किलोमीटर दूर श्री महावीर जी कस्बे के एक होटल में रुकीं. ये कस्बा जैनियों का तीर्थस्थान है. वहां अच्छी होटलें और धर्मशालाएं हैं. वहां से पंद्रह मिनट का रास्ता था. वो सुबह 5 बजे पहुंच जाती थीं. उनका सेशन शुरू हो जाता था. रात 10-11 बजे तक चलता था. दिन में लंच ब्रेक होता था तो श्री महावीर जी चली जाती और एक-दो घंटे में लौट जाती थीं. दूध भी निकालती थी भैंसों का. झाड़ू लगाती थी घर में. रोटियां करती थीं.
गोबर उठाते समय उनको कितना सहज लगा शुरू में? आधा-एक घंटा उनको हिचक हुई. क्योंकि उनको लगा था न कि पहली बार गोबर के हाथ लगा रही हैं. ऐसी जिंदगी उन्होंने कहां देखी थी. उनकी कठोर वर्कशॉप थी. विशाल जी ने कहा था कि जो गांव की औरत करती है उसी तरह से इनसे काम लेना.
सान्या ने “दंगल” के समय ट्रेनिंग ली थी तो वो थोड़ी टफ भी थीं. हां, वो “दंगल” के टाइम आमिर खान के साथ ऐसे माहौल में रही थीं. उनको परवाह भी नहीं थी नए माहौल की कठिनाइयों की. लेकिन राधिका के लिए थोड़ी दिक्कत थी. मगर उन्होंने इस चीज को एंजॉय किया. ऐसे किया सबकुछ जैसे जिंदगी का सवाल है.
आमतौर पर राजस्थान या मारवाड़ बेस्ड जितनी भी फिल्में होती हैं हिंदी/बॉलीवुड, उनमें भाषा की मौलिकता को बहुत ही विकृत तरीके से पेश कर पाते हैं. क्योंकि उन्हें व्यापक हिंदी दर्शक वर्ग को समझाना होता है कंटेंट. तो पूरी राजस्थानी या मारवाड़ी ठेठ बोल भी नहीं सकते. तो वो दो-तीन शब्द ले लेते हैं और हर लाइन में जोड़ते जाते हैं. और वही राजस्थान का representation हो जाता है भाषा और संवादों के मामले में. आपने भाषा को लेकर क्या ध्यान में रखा? क्या आपने प्योर बोली रखी या हिंदी का सही मेलजोल रखा ताकि लोगों को समझ आए. कहानी के बाद जब हमारे सेशन चल रहे थे कि इसे स्क्रिप्ट में डिवेलप करना है तो मेरा भी और विशाल जी का भी आग्रह था कि बैकग्राउंड राजस्थान का है तो राजस्थानी ही बोलनी है. ये जो पूर्वी राजस्थान की लोक-संस्कृति है और जो भाषा है - जैसे आपके यहां भरतपुर है, करौली है, सवाई माधोपुर है, धौलपुर है, अपना ये अलवर है, दौसा है ये जो इलाका है इसकी जो बोली है वो ऐसी है कि – “खां जा रो ए”, “का कर रो ए”, “कौण है भई तू” .. ये इस तरह की हमारी भाषा है. जैसे मैं बोलूंगा – “गजेंद्र जी का कर रो ए”. “क्या” या “कांई कर रहे हो” ऐसे नहीं बोलूंगा. अब मेरे सामने आप अपनी वाली राजस्थानी (मारवाड़ी) बोलोगे तो मुझे बिलकुल समझ नहीं आएगी. मेरे दोस्त हैं जोधपुर के उन्होंने मुझे राजस्थानी कहानी संग्रह दिया है. मैं एक पन्ना भी उसका बड़ी मुश्किल से पढ़ पाया. क्योंकि समझने के लिए कहानी तो पूरी तरह ग्रहण करनी पड़ती है न. तो फिल्म के दौरान सवाल था कि यहां की ओरिजिनल भाषा कैसे बोलें? हमने उसे ऐसे रखा है कि यहां की मूल बोली उसमें रहे, भाषा की खनक रहे लेकिन दर्शकों को समझ भी आए. क्योंकि बड़ी ऑडियंस के पास ये फिल्म जाएगी तो इतनी कठोर नहीं रख सकते भाषा कि उनको समझ न आए. हमने यहां ऐसे नहीं रखा कि लाइन में चार राजस्थानी के शब्द ठूंस दिए और काम चला लिया.
सबसे तेजी से भाषा किसने पिक की? ज्यादा तेजी से सान्या ने पकड़ की, क्योंकि वो हरियाणवी बोल चुकी हैं न “दंगल” में. हमारी और हरियाणवी बोली में एक भीना सा परदा है बस. कुछ शब्दों का हेर-फेर है, बाकी उसको आसान लगा बोलना. सुनील ग्रोवर और विजय राज तो थे ही. नरेशन लगातार होता था स्क्रिप्ट का.
“पटाख़ा” का ट्रेलर बड़ा रॉ है. टफ. पात्रों के चेहरे पर किसी तरह की कोमलता नहीं है. क्योंकि गांव की कहानी है. अगर चेहरे साफ सुथरे होंगे तो नकली लगते हैं एकदम. यहीं फर्क होता है. कभी कभी तो हम पहचान ही नहीं पाते थे कि राधिका है और सान्या है. क्योंकि ये इलाका भी ऐसा है. खनन का क्षेत्र है. जहां पत्थर निकलते हैं. उस तरीके के गांव की कहानी है तो ग्रामीणों के चेहरे पत्थर ही होंगे, काले ही होंगे धूप में काम करते-करते. यहां शादी करके कोई गोरी औरत आएगी तो तीन-चार साल बाद उसका कलर ही बदल जाएगा. इतना काम करना होता है. धूल, मिट्टी, धुआं तमाम चीजें हैं.
“दो बहनें” लिखी तब कितना टाइम लिया था? एक बार कहानी दिमाग में बैठ जाए तो चार, पांच, सात घंटों में लिख लेता हूं. मेरे दिमाग में कहानी भले ही छह महीने तक चलती रहे, पर मैं टुकड़ों टुकड़ों में लिखता नहीं. एक ही बार में लिख देता हूं. तो इसे एक सिटिंग में लिख दिया था.
आप जो भी कहानी लिखते हैं. जैसे आपने इस बातचीत में कहा कि कहानी प्रतिबिंब ही है समाज का. मेरा फिर भी ये जानना है कि “दो बहनें” को ले लें तो उसमें शुरू में आप एक वास्तविकता रच रहे हैं, कि ये दो बहनें ऐसे लड़ती हैं, इतना नटखटपना है, नमकीनपना होता है, और फिर वो जब शादी करके जाती है तो उनके पूरे इमोशन तब्दील होते हैं. क्योंकि एक समय में उनको लगता है कि पीछा छूटा अगर हम चली जाएं अलग-अलग रास्ते, मुंह ही न देखें एक दूसरे का. फिर एक ही घर में शादी हो जाती है तो सोचती हैं कि अब क्या करें फिर साथ रहना पड़ गया. शायद कहानी में अंत में ऐसा होगा कि आप बताएं कि रिश्तों के असली मायने क्या हैं. हम एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते चाहे कितने भी लड़ लें. ये जो मैसेजिंग है, इसे लेकर आपका क्या टारगेट रहता है? वो जो एक मैसेज छोड़ देना होता है लोगों को हेल्प करने, उनके जीवन के फैसले लेने में. “दो बहनें” में क्या था? मैं एंड को लेकर कभी सोचता नहीं कि क्या होगा. ये मेरे दिमाग में पहले से तय नहीं रहता. मैं तो ये करता हूं कि जो पात्र कर रहे हैं, वो करने दो. सोचता हूं कि जो संवाद वो बोल रहे हैं, उसका जो मनोविज्ञान है, साइकोलॉजी है वो क्या होगी? अगर मैं वो पात्र होता तो क्या बोलता? पात्र जहां जा रहे होते हैं, वहां आप जाने दीजिए. जब मैं “दो बहनें” लिख रहा था और ऑब्जर्व कर रहा था तो ये सोचा कि जब इनसे कोई आदमी लड़ता है तो ये दोनों एक हो जाती हैं, यानी उनमें प्रेम है बहुत जबरदस्त. और बिना एक-दूसरे के चैन नहीं पड़ता. “पटाखा” के उलट जो रियल (शॉर्ट) स्टोरी है, उसमें बचपन नहीं है इन दोनों का. उसमें कहानी शादी के बाद शुरू होती है. ये बचपन का हिस्सा तो बाद में क्रिएट किया है पूरा ही (फिल्म के लिए). इनका जो पीहर है वो पथरीला इलाका है पूरा ही. वहां खदान हैं पत्थर की. उनके पिताजी खदान के क्षेत्र में हैं. वहां लोगों में बहुत रूडपना (रुखापन) है. हमारे से 15-20 किलोमीटर दूर है लेकिन वहां बोलते भी ऐसे हैं जैसे लट्ठ चल रहा है. तो वहां आपस में वो जैसे बात कर रहे हैं, वो उनके लिए अचंभा नहीं है, वहां शॉक नहीं लगता कि क्या कह रही हैं. मेरा ये था कि देखते हैं कहानी जहां जा रही है, वहां जानी चाहिए और वो अपने आप चली जाती है. मेरी मर्जी से करूंगा तो नकली एंडिंग हो जाएगी. मेरा खयाल है, औरों का पता नहीं, कि between the lines होती हैं चीजें और विचारधारा, कहानी में. अंदर (internal) रहती हैं सारी चीजें. मैसेज तो आजकल कहानी में देता ही नहीं कोई. लेकिन आप समझ सकते हैं कि हां, यार ये कहना चाह रहे हैं इसमें. “दो बहनें” में भी यही है. जब बड़ी बहन सुनती है कि छोटी वाली आगरा से आ रही है तो बीमार होती है फिर भी अपनी सारी दवाइयां फेंक देती है.
..क्यों फेंक देती है? उसको है न कि वो आ रही है अब लड़ेंगे हम.
अब दवाई की जरूरत नहीं है. उसका आना ही दवाई है. दोनों का संवाद होता है फोन पर. एक आगरा में होती है. फोन पर उनकी तू-तड़ाक होती है. कि तू अकेली मौज करने जा रही है खसम संग. भुगतेगी. तो वो कहती है तू भी ऐसे ही भुगतेगी. दूसरी कहती है इतनी ही बड़ी क्षत्राणी है तो आजा न आगरा से. यहां आजा. यहां लड़ ले. तो वो कहती है ले आ रही हूं दो दिन पीछे (बाद). इतना सुनना होता है कि बड़की जो बीमार होती है, दवा ले रही होती है, स्पेशलिस्ट को दिखा दिया लेकिन ठीक नहीं हो रही होती, उसको जैसे ही छुटकी कहती है कि दो दिन बाद आ रही हूं जब तेरे को मजा चखाऊंगी तो उसी रात वो सब दवाइयां फेंक देती है. और इतने दिन से जहां कुछ भी खाना-पीना नहीं कर रही होती है वो दवाई फेंककर खूब खाना खाती है. ये एंड है.

"पटाख़ा" के एक दृश्य में छुटकी (सान्या) और बड़की (राधिका).
इस फिल्म के बाद लोगों के व्यवहार में क्या बदलाव आया है गांव में और बाहर? आपको खुद में क्या चेंज लगता है? “पटाखा” की शूटिंग माउंट आबू में शुरू हुई थी. पहले शेड्यूल में मैं नहीं गया था मेरा बेटा गया था. हमारे यहां “कसाई” की शूटिंग हुई पूरी. मेरे घर में ही हुई थी. पहले गांव वालों को अजीब लगा. लेकिन दो-तीन दिन में समझ आ गया. डायरेक्टर बोलते थे साइलेंस, तो समझ गए कि चुप रहना है. शॉट खत्म होता है तो ताली बजानी है. क्योंकि गर्मियों में हमारे राजस्थान में बहुत गर्मी पड़ती है और खासकर हमारे इलाके में, इसलिए विशाल जी को माउंट आबू में शूट करना पड़ा. मेरे में कोई बदलाव नहीं आया. मेरे में कैसे बदलाव आ सकता है. हां, बहुत पहले का एक सपना था एक्टर बनने का. इसके लिए एनएसडी में भी फॉर्म भरा था. लेकिन फॉर्म कैंसल हो गया था. इसलिए “पटाखा” के टाइम में कहीं न कहीं दिमाग में था कि एक सपना पूरा होने जा रहा है. बाकी तो ऐसा नहीं लगा कि मेरे में कोई चेंज आया है. मैं तो अब भी वैसा हूं. ऐसा है कि चलो बन रही फिल्म है अच्छा है. फिल्म अच्छी निकले तो आगे भी काम कर सकते हैं. बाकी कहानियां तो अपनी हैं ही.
जिंदगी का फलसफा क्या है? मेरा ये है कि कुछ ऐसा करें कि हमारा काम याद रखा जाए. फरहान अख्तर की भाषा में कहूं तो जिंदगी दोबारा मिलनी नहीं है. मेरा कोई पुनर्जन्म में विश्वास नहीं है. ऐसा कर जाऊं कि लोग याद करें कि ये कर गया एक आदमी गांव की मिट्टी में खेलते खेलते. उसको करना था, मेहनत थी, सनक थी, सपना था. अवतार सिंह पाश की कविता में है न कि “सबसे खतरनाक है अपने सपनों का मर जाना”. वो मरने मत दो.
आप जो कहानियां लिखते हैं और जिस माहौल में रहते हैं, वहां क्या इतना आसान है कहानियां लिख लेना? क्या इतना smooth routine बन गया है आपका कि अब लिखने में प्रॉब्लम नहीं आती या वास्तव में अंदर के घिस रहे हो और स्ट्रगल कर करके लिख रहे हो? बहुत चीजें होती हैं. जब बहुत बड़ा घर होता है न, मान लो एक ही कुटुंब के 150-200 आदमी हैं, तो उनके अंदर बहुत सारी चीजें होती हैं, बहुत सारी महत्वाकांक्षाएं होती हैं उनकी. लड़ाई भी होती है छोटी मोटी. आप उलझन में रहते हैं कभी कभी कि शहर भाग जाऊं. दिमाग में रहता है कि गांव में फलाने ने ये कर दिया, उसने वो कर दिया, आपके बारे में वो ये कह रहा था. चीजें इतनी पज़ल्ड रहती हैं. पति पत्नी के बीच जो शिकायतें होती हैं वो रहती हैं. लेकिन उनके बीच में ही चीजें निकलकर आती हैं. मेरे साथ थोड़ी सी ये सुविधा मान लो आप कि मेरे घरवालों ने मुझे इस काम के लिए फ्री छोड़ रखा है कि आपको कोई काम नहीं करना, आप नौकरी करिए और अपना लिखिए-पढ़िए. मुझे खेती से बरी कर रखा है कि खेतों को देखना नहीं है. हां ये है कि घर संभालना है, गांव की जो पॉलिटिक्स है उसको. बाकी आप पढ़िए लिखिए. इस मामले में मेरी पत्नी जो है वो बहुत सहयोग करती है. उसी की बदौलत मैं दुनिया घूम रहा हूं. वो है तो मेरे दिक्कत नहीं रहती. फिर लड़ भी लेता हूं. झगड़े भी हो जाते हैं. कभी कभी बोलचाल भी बंद हो जाती है. पहले होती थी अब तो नहीं होती ख़ैर. वो दौर था जब हम 20-25 साल के थे तब छोटी छोटी बातों पर झगड़ते थे. तीन दिन वो नहीं बोले, तीन दिन तक मैं नहीं बोलूं. अब उसके भरोसे ही सब कर लेता हूं. सारी चीजें संभाल लेती है, घर संभाल लेती है, भैंसे भी संभाल लेती है, खेती भी संभाल लेती है. बाकी तो देखो गांव में लिखना बहुत कठिन है. एकांत तलाशना, आपके दिमाग को केंद्रित कर पाना बहुत मुश्किल है. कितना भी अलग बैठ जाओ, कोई भी घर परिवार की या दूसरी बातें पहुंच जाती है तो आप डिस्टर्ब हो जाते हो. लेकिन यही एक लेखक के लिए बहुत जरूरी है. ये उसकी सहायक सामग्री है. बिना इनके लेखन हो ही नहीं सकता. मैं तो कहता हूं जितना तनाव में अच्छा लिखा जा सकता है, उतना तो कभी नहीं लिखा जा सकता. मैंने तो लड़ाई झगड़ों में ही बहुत लिखा है.
लड़ाई झगड़े चल रहे थे और आप लिख रहे थे. हां. ऐसे होता है मतलब.
निराश होते हैं तो क्या करते हैं? मेरे को लगता है मेरे अंदर दो चीजें होती हैं. जैसे कभी-कभी सचिन ज़ीरो पर आउट हो जाता था न, तो मेरे को लगता है कि मेरे दिमाग में ये सब है ही नहीं, तो कहानी मैंने लिखी है क्या? तो आप ऐसे निराश हो जाते हो, अवसाद आ जाता है, कुछ खालीपन होता है न डिप्रेशन जैसा वो आ जाता है. ये 15-20 दिन आप डिप्रेस होते हैं बहुत बुरी तरह से. आपमें एक छटपटाहट होती है कि यार क्या हो रहा है मतलब. कुछ है ही नहीं मेरे अंदर तो. वो चीजें कहां गई जो मेरे अंदर थीं. बाद में आप रिकवर करते हैं धीरे धीरे है. मैं पढ़ता हूं और गाने सुन लेता हूं. या दोस्तों से मिल के “दुनिया क्या है” इस पर बातें कर लेता हूं. लेकिन बिना लिखे जिंदगी नहीं है.

गांव की पगडंडी पर. रोज़ का रास्ता. चरण सिंह.
आपने बताया कि महीने में 15-20 दिन छटपटाहट रहती थी कि मैं खाली हो गया. खाली एकदम. मेरे को अंदर से लगता था कि मैं क्या हो गया, क्या था? मैं इतना क्यों खालीपन महसूस कर रहा हूं? लेकिन मेरे अंदर ये सबसे बड़ी चीज थी कि मैं एक सिटिंग या दो सिटिंग में कहानी लिख देता हूं. अगर आप पांच घंटे कमरे में बंद कर दोगे तो मैं कहानी लिख के दे दूंगा. जितनी भी कहानियां हैं, जैसे “फिरनेवालियां” और “दंगल” हैं ये चार-चार घंटे की कहानियां हैं. “बक्खड़” थोड़ी सी लंबी थी. एक कहानी थी “पीपल के फूल”. बहुत अच्छी कहानी थी. आप पढ़ोगे तो मजा आएगा. वो भी एक टेंशन के दौर में, जब घर में बहुत झगड़ा चल रहा था, तो मैंने सारी चीजें छोड़कर अपने कमरे में बंद होकर उसे एक दिन ओर एक रात, दो सिटिंग में पूरी कर ली थी. मैं कहानी को एक महीने घसीटता रहूं ऐसा नहीं होता. लिखूंगा तो चार पांच घंटे बैठकर. कि बहुत जोर से कहानी बाहर निकलना चाह रही है, जैसे लगता है न कि उल्टी होने वाली है, अपने को रोका नहीं जा सकता. वैसे होता है.
आप लैपटॉप पर नहीं लिखते? खरीदा है लेकिन चलाना ही नहीं आ रहा. सीखूंगा धीरे धीरे. मोबाइल तो चला लेता हूं लेकिन अभी स्पीड नहीं बनी. सीख जाऊंगा. इसलिए पैन से लिखता हूं हाथ से रजिस्टर में.
फिल्में देखते हैं क्या? फेवरेट फिल्में कौन सी हैं? मैंने अपनी जिंदगी बर्बाद कर दी फिल्में देखकर. मतलब जब मैं भरतपुर में पढ़ता था तो फर्स्ट ईयर में दो साल लगातार फेल हुआ. भरतपुर में चार टॉकीज थी तो बस उनमें फिल्में ही देखते रहते थे. दो साल यही किया. पढ़ने का कोई मतलब नहीं था. फिल्म देखते थे. ख्वाब देखते थे. शूटिंग देखते थे. वहां घना पक्षी विहार में एक शूटिंग हो रही थी तो दीवार कूदकर शशि कपूर और रेखा को देखने पहुंचे. शौक तो बहुत जबरदस्त था. पर मेरा जो फेवरेट है वो गुरु दत्त. पुराने फिल्मकारों में. गुरु दत्त की “प्यासा”, “कागज के फूल”, “साहब बीवी गुलाम”, मतलब वो बहुत अद्भुत फिल्मकार था, बहुत अद्भुत आदमी था. 40 साल की उम्र में इतना काम कर गया.
आपकी वाइफ और आप बिलकुल अलग-अलग इंसान हैं. आप बुद्धिमत्ता / intellect के अलग ज़ोन में खड़े हैं और उनका जो रूटीन है रोज़मर्रा का वो अलग है. कभी-कभी वो आपसे आपके काम के बारे में पूछती होंगी, एक तय सम्मान वो आपके लिए रखती हैं कि भई ये लिखते हैं बहुत अच्छे आदमी हैं, समझदार आदमी हैं और एक स्पेस वो आपको देती हैं. आप लोगों का एक-दूसरे को लेकर क्या परसेप्शन रहता है? खाली समय में सोचते हैं और आपको रोचक लगता है कि यार हमारा रिश्ता ऐसा है. ऐसी हमारी लाइफ है. शुरुआत में तो लगता था घरवालों को और पत्नी को कि मैं इतनी किताबें पढ़ता हूं, मैगजीन पढ़ता हूं, इतनी मेहनत करता हूं और लिखने में इतना वक्त जो मैंने बर्बाद किया जिंदगी के बीस साल, वो अगर सही पढ़ता तो अफसर बन जाता. ये उनका एक ताना रहता है हमेशा कि अच्छी जगह रहते, हमारी कोठी होती, गाड़ी होती, बंगला होता. 2010 तक तो सबका यही था. उसके बाद थोड़ा परिदृश्य बदला. जब मुझे राजस्थान पत्रिका का पुरस्कार मिला. राजस्थान साहित्य अकादमी का रांगेय राघव पुरस्कार मिला. लोग पूछने लगे. बुलाने लगे. तो पत्नी को लगा कि ये आदमी ठीक काम कर रहा है. वो साक्षर मात्र है. पढ़ी लिखी नहीं है. लेकिन पढ़ लेती है, लिख लेती है, थोड़ा बहुत. लेकिन कहानियों में योगदान ये है कि बहुत सी कहानियां मुझे सुझाती है वो. जैसे मेरी एक कहानी थी “प्रधान की कुतिया”, वो उसने सुझाई मेरे को. वो एक कुतिया की कहानी थी कि मैं क्या थी और क्या हूं. कुतिया भाषा में बात करती है. कभी कभी लगता है, जैसे सबको लगता है, जैसी इंसान की प्रवृत्ति होती है कि पत्नी अगर ज्यादा पढ़ी लिखी होती तो वो हमारी मदद करती इसमें. बातें कर लेते कि तेने अपनी कहानी में क्या लिखा है, अंत कैसे किया है उसका. चर्चा कर सकते हैं बैठ के. वो रहता है न मन में जो सबके रहता है कि ये होता तो ऐसा होता, वो होता तो वैसा हो जाता. पर अब जिंदगी में तो जो है वो है. लेकिन वो कॉपरेट करती है. जितना कर सकती है, जितना समझती है. अब उसे और अच्छा लगता है कि चलो दो फिल्में बन रही हैं. अब कहती है कि अफसर बनते तो क्या ले लेते, अफसर बनते पांच साल, रिटायरमेंट के बाद तो कोई पूछता ही नहीं. अब चीजें दूसरे ढंग से हो रही हैं तो उनको लगता है कि अच्छी चीजें हो रही हैं. जो अफसरों के यहां नहीं हो रहीं, वो हमारे यहां हो रही हैं. तो उनको अच्छा लगता है.
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