रेड लाइट एट वन वे
- अभिनव
ट्रेनों के हॉर्न, मसालों की खुशबू और आती-जाती गाड़ियों के शोर में उस बदनाम सड़क पर टहलते आदमियों और छज्जों में बनी खिड़कियों से झांकते जिस्मों के इशारों में दिन ढला जा रहा था. एक के बाद एक आदमी तंग सीढ़ियों से ऊपर-नीचे आ-जा रहे थे. उन गंदे कमरों में टहलते जिस्म एक-एक ग्राहक को निपटा कर वापस खिड़कियों पर आ जाते और लाली पोत के नए ग्राहक को रिझाने में जुट जाते. इस सड़क की यही रवायत है, मगर न जाने क्यों उस कोठे के अपने कमरे में शीशे के सामने खड़ी शन्नो, जिसे वहां के दूसरे सारे जिस्म सन्नो या सनवा बुलाते थे, कुछ उदास-सी थी. आज एक ग्राहक उसका कान मसल गया था जिससे उसमें दर्द होने लगा था. इसी दर्द में शन्नो ने दो ग्राहक निपटा दिए थे. मगर आखिरी ग्राहक भी उसी कान की बाली को खींच गया था जिसमें दर्द हो रहा था. अपने चेहरे पर पाउडर पोतते वक्त जब उसने बाली उतारनी चाही तो उसे याद आया कि आखिरी बार इस बाली को उसकी मां ने उतारा था. उस बार खेलते वक्त किसी ने उसका कान खींच दिया था. तब उसकी मां ने उसकी बाली उतारी थी और सारी रात उसकी पीठ पर थपकी दे कर सुलाती रही थी मगर आज न शन्नो की मां मौजूद थी और न ही वह थपकी वाली रात. था तो इंतजार करता एक और ग्राहक! ऐसे न जाने कितनी शन्नो थीं जो जिस्म बनकर रह गई थीं. न उनके अतीत थे न आने वाला कल. था तो बस उनका जिस्म. जिसके नए-नए ग्राहक कतार में अपनी हवस लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते रहते. मगर शन्नो अपनी उदासी छुपा नहीं सकी और कमरे को बंद करके औंधे मुंह बिस्तर पर लेट गई. उसने अभी तक बाली नहीं उतारी थी. उसकी तमन्ना हुई कि आज फिर कहीं से उसके मां आ जाए और थपकी देकर उसे अपनी गोद में सुला ले. मगर मां कहां से आती, होती तो आती. शायद मां होती तो शन्नो यहां आती ही क्यों? शन्नो की मां अपने चौथे प्रसव के दौरान गुजर गई थी. फिर उसके पिता पर अकेले अपनी तीनों बेटियों के पालन-पोषण का जिम्मा आ गया. मगर रिक्शाचालक पिता कर भी क्या सकता था? इसलिए आठ साल की शन्नो कुछ घरों में छोटे-मोटे काम करने लगी. ऐसा ही एक घर था डाकबाबू का. लोगों की नजर में डाकबाबू बड़े नेक आदमी थे. शन्नो उनके घर भी काम करने जाती थी. डाक बाबू या उनकी पत्नी कभी-कभी कुछ मिठाई या पुराने कपड़े शन्नो को दे देते. इन नेमतों के बदले शन्नो और उसके परिवार का डाकबाबू के प्रति विश्वास देवता के स्तर पर पहुंच गया. धीरे-धीरे शन्नो उनके घर के अन्य जरुरी काम भी निपटाने लगी और बाकी घरों की पगार के बराबर पैसे भी उसे एक ही घर से मिलने लगे. आठ साल की शन्नो धीरे-धीरे तेरह साल की हो गई थी. डाकबाबू एक बार अपनी पत्नी को छुट्टी में दिल्ली घुमाने ले जा रहे थे. डाकबाबू की पत्नी गर्भवती थीं इसलिए एक सहायक की भी जरूरत थी. डाकबाबू शन्नो के घर आए और उसके पिता से शन्नो को दिल्ली ले जाने की अनुमति मांगी. डाक बाबू की मांग को शन्नो के पिता उनके एहसानों के चलते ठुकरा न सके. शन्नो पहली बार रेलगाड़ी में चढ़ी. तेरह साल की शन्नो बचपन से दिल्ली के बारे में कहावतों और कहानियों में सुनती आ रही थी. दिल्ली पहुंचते-पहुंचते वह आत्मीय रूप से डाकबाबू को देवता समझने लगी. पहले दिन उसने डाकबाबू की पत्नी का बैग उठाए-उठाए कनॉट प्लेस, इंडिया गेट, कुतुब मीनार समेत बहुत कुछ घूमा. शन्नो को ऐसा लग रहा था कि जैसे वह किसी दूसरी दुनिया में आ गई है. रात को रुकने का प्रबंध डाकबाबू के एक दोस्त के घर में था. थकी हुई अपनी पत्नी को सुला कर डाकबाबू ने शन्नो को घर के किचन में सोने के लिए कह दिया. थकी-हारी शन्नो की भी आंख कब लग गई उसे पता भी नहीं लगा. आधी रात में शन्नो को अपने जिस्म पर कुछ महसूस हुआ तो हड़बड़ा कर उसने आंखें खोलीं तो देखा डाकबाबू का दोस्त उसकी छाती पर हाथ रखे कुछ टटोल रहा था. शन्नो को कुछ समझ तो नहीं आया मगर वह इतना जान गई कि जो कुछ भी हो रहा है, वो गलत हो रहा है. किसी मदद को तलाशती आंखों को घुप्प अंधेरा ही नजर आया. इसलिए उसने किचेन के बाहर जाकर मदद तलाशने की ठानी. फिर हाथ में आए किसी बर्तन को डाकबाबू के दोस्त के सिर पर मार कर किचेन से बाहर निकल आई तो देखा बाहर के कमरे में सोफे पर डाकबाबू बैठे थे. जिनके सामने पड़ी मेज पर खाली बोतल और दो कांच के गिलास रखे थे. शन्नो समझ गई कि डाकबाबू ने शराब पी रखी है. शन्नो का पिता भी शराब पीता था और उसकी मां के साथ मारपीट किया करता था. शन्नो मार के डर और डाकबाबू के दोस्त की हरकत से अंदर तक सिहर चुकी थी. शन्नो को याद आया कि जब उसका पिता शराब पी लेता था तो उसकी मां उसके पिता को कमरे में बंद करके बाहर सड़क पर भाग जाती थी इसलिए उसने घर के बाहर निकल कर सड़क पर भाग जाना उचित समझा. पीछे देखा तो डाकबाबू का दोस्त अपने लड़खड़ाते पैरों से उसकी तरफ बढ़ रहा था और डाकबाबू भी लड़खड़ाते हुए खड़े हो रहे थे. उसने दरवाजा खोला और भागती चली गई और भागते-भागते एक ऐसी सड़क पर पहुंच गई जहां से वह कभी वापस नहीं लौटी. वह सड़क वन वे थी और यहीं से शन्नो की जिंदगी एक जिस्म में तब्दील हो गई. बंद कमरे में पड़ी शन्नो वापस आज में लौट आई थी. उसके कमरे में कुछ नहीं बदला था. कमरे का शीशा जैसे का तैसा था. बिस्तर से शराब, पसीने और वीर्य की दुर्गंध वैसी की वैसी थी. तभी किसी ने दरवाजा पीटा. बाहर से आवाज आई, ‘‘शन्नो तेरा लौंडा आया है.’’ यह दुष्यंत था. शन्नो समझ गई. शन्नो ने कुंडी नीचे कर देखा तो दुष्यंत ही था. दुष्यंत तीन साल पहले नशे की हालत में अपने कुछ दोस्तों के साथ उसके कोठे पर आया था. मगर शन्नो के साथ कमरे में बंद होने के बाद दुष्यंत पहला पुरुष था जिसने नशे की हालत में शन्नो के साथ ‘वो’ नहीं किया जो हर शख्स करने आता था. कमरे में आते ही जब शन्नो ने उसकी पैंट पर हाथ रखा तो दुष्यंत ने उसे रोक दिया था. दुष्यंत ने कहा, ‘‘नहीं, मैं सिर्फ थोड़ी देर तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं. अकेले में और चैन से. शायद दोनों को कुछ सुकून मिल जाए.’’ उस दिन शन्नो ने पहली बार सुकून शब्द सुना था. इसके बाद जब भी दुष्यंत आया शन्नो को कुछ और सुकून मिलता गया. न तो दुष्यंत ने किसी और की ओर देखा, न शन्नो ने दुष्यंत को ग्राहक के रूप में. एक बार उसने दुष्यंत का फोन चुराकर उसका नंबर भी ले लिया था. जब दुष्यंत कुछ दिनों तक नहीं आया, तब उसने ही दुष्यंत को फोन करके बुलाया था. ऐसे मौकों पर वह अपनी कीमत खुद ही अदा कर देती. फिर ऐसा बार-बार होने लगा. दुष्यंत भी बेचारा क्या करता? पढ़ाई के लिए मिलने वाला पैसा पढ़ाई के बाद बंद हो गया था. नौकरियां रास नहीं आ रही थीं इसलिए पैसे नहीं बचे. इसलिए आना भी बंद हो गया. मगर अपने खर्चे के लिए शन्नो जो भी पैसे बचाया करती थी, वह उसे देने लगी. इस बार दुष्यंत कुछ उदास था. शन्नो ने उसकी ओर देखा तो अपनी उदासी भूल गई. उसने दुष्यंत से पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ दुष्यंत ने कहा, ‘‘कुछ नहीं. नौकरी मिलती नहीं. सोच रहा हूं घर चला जाऊं! वहां अब खुद का अखबार निकालूंगा.’’ शन्नो को लगा जैसे वह फिर डाकबाबू के दोस्त के घर का दरवाजा खोल कर सड़क की ओर दौड़ पड़ी हो. ‘‘फिर कभी दिल्ली नहीं आओगे?’’ शन्नो ने सवाल दागा. दुष्यंत ने सर्द सांस छोड़ते हुए उसी अंदाज में जवाब दिया,‘‘देखूंगा. तुमसे मिलने की कोशिश तो रहेगी ही. मगर किस्मत का क्या ऐतबार?’’ और दरवाजे की तरफ पलटते हुए बोला, ‘‘तो चलूं?’’ ‘‘पैसे हैं?’’ शन्नो ने हर बार की तरह पूछा. ‘‘घर जाने लायक हैं.’’ इतना कहते हुए वह दरवाजे तक आ गया. शन्नो ने उसे रुक जाने का इशारा किया और अपनी कान की बाली उतार कर उसकी जेब में डाल दी. शन्नो ने आखिरी सवाल पूछा, ‘‘मुझे भूल तो नहीं जाओगे?’’ दुष्यंत की उदास आंखों में एक भरोसे की चमक उभर आई और फिर उसने मुख्तसर-सा जवाब दिया, ‘‘सांस लेना भी कोई भूल सकता है क्या?’’ और कहते हुए ट्रेनों के हॉर्न, मसालों की खुशबू और आती-जाती गाड़ियों के शोर में गुम हो गया.अभिनव को जानेंः अभिनव कोंच (उत्तर प्रदेश) से हैं. ललितपुर में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की. नोएडा से टेलीविजन पत्रकारिता में स्नातक और फिर हिंदी में परास्नातक की शिक्षा को बीच में छोड़ा. साल 2012 में स्नातक के बाद कोंच से साप्ताहिक समाचार पत्र ‘द लास्ट होप’ निकाला जो बाद में आर्थिक तंगी की वजह से बंद करना पड़ा. कुछ समय गांवों को समर्पित समाचार पत्र गांव कनेक्शन और सिटीजन न्यूज सर्विस समेत तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं को भी सेवाएं प्रदान कीं, जिनके अनुभव भी अपने अखबार की तरह रहे. इप्टा के माध्यम से मंच पर नाटक भी किया है. इस बीच कविताएं और कहानियां भी लिखते रहे हैं.
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