एक कविता रोज़ : मंगलेश डबराल की कविता ‘राग दुर्गा’
जब मंगलेश डबराल ने गाने की ख़्वाहिश जतायी तो क्या हुआ?

फोटो - thelallantop
साल 2007. दिल्ली की एक सर्द रात थी. दिल्ली के प्रेस क्लब से कुछ लोग निकले. इन लोगों में मंगलेश डबराल, विष्णु खरे के अलावा कुछेक और थे. ये गाड़ी में बैठे. गाड़ी पहले ठिकाने की ओर रवाना हुई. आगे की सीट पर बैठे मंगलेश डबराल ने विष्णु खरे से पीछे मुड़कर कहा, "पता है विष्णु जी, मैं गायन सीखना चाहता था, लेकिन सीख नहीं पाया." इस पर विष्णु खरे ने कहा, "जानते हो मंगलेश, गायन न सीख पाने से तुम्हारा जो हुआ हो, लेकिन संगीत पर बहुत बड़ा उपकार हो गया." कवि मंगलेश डबराल. 9 दिसंबर को दिल्ली के एम्स में उनका निधन हो गया. मंगलेश डबराल की कविताओं पर हमारा उतना ही हक़ है, जितना हक़ हम अपनी मिट्टी पर, अपने घर पर जताते हैं. मंगलेश डबराल का जाना एक कवि का जाना नहीं है. ये कविता के एक अध्याय का ओझल हो जाना है. मंगलेश डबराल को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से बहुत प्यार था. उन्होंने संगीत पर बहुत सी कविताएं लिखीं. रागों पर लिखीं. राग सुनने या राग को गाने-बजाने की स्मृतियों पर कविताएं लिखीं. लेकिन मंगलेश डबराल को एक मलाल था कि वह ख़ुद गा नहीं सकते थे. महफ़िलों में अक्सर गुनगुनाते ज़रूर थे. उनके प्रिय मित्र और कवि वीरेन डंगवाल गुनगुनाने के इस क्रम में अक्सर मंगलेश डबराल से ठिठोली करते थे, और उन्हें चुप करा देते थे. मंगलेश डबराल झेंपते-हंसते हुए अगला घूंट भर लेते थे. आइए, उनकी एक कविता राग दुर्गा को पढ़ते हैं. ये कविता भीमसेन जोशी के गाये इसी राग को सुनने की एक स्मृति है. एक रास्ता उस सभ्यता तक जाता था
जगह-जगह चमकते दिखते थे उसके पत्थर
जंगल में घास काटती स्त्रियों के गीत पानी की तरह
बहकर आ रहे थे
किसी चट्टान के नीचे बैठी चिड़िया
अचानक अपनी आवाज़ से चौंका जाती थी
दूर कोई लड़का बांसुरी पर बजाता था वैसे ही स्वर
एक पेड़ कोने में सिहरता खड़ा था
कमरे में थे मेरे पिता
अपनी युवावस्था में गाते सखि मोरी रूम-झूम
कहते इसे गाने से जल्दी बढ़ती है घास सरलता से व्यक्त होता रहा एक कठिन जीवन
वहाँ छोटे-छोटे आकार थे
बच्चों के बनाए हुए खेल-खिलौने घर-द्वार
आँखों जैसी खिड़कियाँ
मैंने उनके भीतर जाने की कोशिश की
देर तक उस संगीत में खोजता रहा कुछ
जैसे वह संगीत भी कुछ खोजता था अपने से बाहर
किसी को पुकारता किसी आलिंगन के लिए बढ़ता
बीच-बीच में घुमड़ता उठता था हारमोनियम
तबले के भीतर से आती थी पृथ्वी की आवाज़ वह राग दुर्गा थे यह मुझे बाद में पता चला
जब सब कुछ कठोर था और सरलता नहीं थी
जब आखिरी पेड़ भी ओझल होने को था
और मैं जगह-जगह भटकता था सोचता हुआ वह क्या था
जिसकी याद नहीं आयी
जिसके न होने की पीड़ा नहीं हुई
तभी सुनाई दिया मुझे राग दुर्गा
सभ्यता के अवशेष की तरह तैरता हुआ
मैं बढ़ा उसकी ओर
उसका आरोह घास की तरह उठता जाता था
अवरोह बहता आता था पानी की तरह