एक कविता रोज़ में अष्टभुजा शुक्ल की कविता - नई कहावत
"देश का प्रधान मंत्री होना बहुत टफ है/लेकिन गांव का प्रधान होना टफेस्ट"
मुझे तो अभी भी नहीं लगता कि कवि हो गया हूं. क्योंकि एक अपूर्णता का बोध हमेशा रहता है और मुझे संकोच होता है, जब कोई अगला व्यक्ति मुझे कवि कहकर संबोधित करता है. (अष्टभुजा शुक्ल, एक साक्षात्कार में)
13 अप्रैल 2021 (अपडेटेड: 13 अप्रैल 2021, 12:34 IST)
देशभर में चुनाव का माहौल है. हर स्तर के नेता और उनके लगुआ-भगुआ अपने-अपने स्तर पर सरकार बनाने का दावा पेश कर चुके हैं. ऐसे में कैसा हो अगर कोई एक कविता सारी राजनीति का मर्म समझा दे? 'एक कविता रोज़' में बात एक ऐसी ही कविता 'नई कहावत' की. इसके कवि हैं अष्टभुजा शुक्ल, जिन्होंने अभी तक अपनी कविताओं में राजनीति और गांव को जीवित रखा है. अष्टभुजा शुक्ल उत्तर प्रदेश के बस्ती में पैदा हुए थे. गांव की राजनीति के बारे में वे कहते हैं -
गांव तक अब राजनीति बाहुबलियों और धनबलियों की राजनीति हो गई है. शक्ति प्रदर्शन की राजनीति हो गई है.
अपने कवि होने की बात पर अष्टभुजा शुक्ल ने हरिभूमि को दिए एक साक्षात्कार में कहा -
मुझे तो अभी भी नहीं लगता कि कवि हो गया हूं. क्योंकि एक अपूर्णता का बोध हमेशा रहता है और मुझे संकोच होता है, जब कोई अगला व्यक्ति मुझे कवि कहकर संबोधित करता है.
एक कविता रोज़ में आज पढ़ते हैं अष्टभुजा शुक्ल की कविता 'नई कहावत'
नई कहावत
अष्टभुजा शुक्ल
कहावतों में एक नई कहावत बनी है
देश का प्रधान मंत्री होना बहुत टफ है
लेकिन गांव का प्रधान होना टफेस्ट
दो चार लोगों को सरकार कहने के बदले
सौ दो सौ लोगों से सरकार सुनने की
लालसा का भूत है प्रधानी
रातों रात परसुआ से परसुराम बन जाने का जिन्न
जनता को जीतने
और उसे हराने का नाम है चुनाव
लोकतंत्र में
हमेशा एक आदमी से हार जाती है जनता
और एक आदमी से जीत जाता है विजेता
वैसे तो हर सूरत में अद्वैत रहना चाहता है
निर्विरोध होना चाहता है प्रधान
लेकिन जब खड़ा ही हो जाता है कोई विरोध में
तो प्रधान अपने समर्थकों को
भले ही पहचान पाता तो ठीक ठीक
लेकिन अपने विरोधियों की
शिनाख्त कर लेता है ठीक ठीक
कि किसने चुनाव की पूर्व संध्या पर
उसके दारू और मुर्गे का सेवन नहीं किया
और चुने जाने के बाद
कौन नहीं गया उसकी बस में
अयोध्या, कुशीनगर या बहराइच
पंचायती राज का सबसे कुशल खिलाड़ी
जिसका दूसरा नाम है बन्दरबांट
गब्बरसिंह की सुरती की पीक से
बनता है प्रधान का लार
रस्सी की ऐंठन से
बुना जाता है प्रधान का मन
साही के कांटे से
लड़ा जाता है प्रधान का चुनाव
शकुनि के दिमाग से
चलती है प्रधानी
और गधे के पंचम पद से
लिखा जा रहा है गांवों का भाग्य
अब सवाल यह है
कि इतने गांवों के
इतने प्रधानों की साज - सम्हाल करने वाले
देश का प्रधान होना टफेस्ट है
या जल्दी ही बनेगी कोई नई कहावत.