निदा फाजली एक शेर कह गए हैं, 'बच्चों के छोटे हाथों को चांद-सितारे छूने दो/ चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएंगे'. जिस देश की बच्चियां पढ़ती हैं न, वो सबसे सुंदर समाज होता है. गांधी बाबा भी यही कहा करते थे. त्रिलोचन की इस कविता में बच्ची की निश्छलता आपको ममता से भर देती है. लेकिन एक सवाल भी मन में छोड़ जाती है. इन बच्चियों को कौन समझाएगा कि पढ़ना कितना जरूरी है. जिनके लिए कागज़ पर लिखे काले-काले अक्षरों का स्वर बनना एक पहेली है.
चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
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चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूं वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं. चंपा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है: गाय भैंसें रखता है
चंपा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है चंपा अच्छी है
चंचल है
नटखट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूं
पाता हूं- अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूं चंपा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हंस देता हूं
फिर चंपा चुप हो जाती है उस दिन चंपा आई, मैंने कहा कि
चंपा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चंपा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढूंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ुंगी
मैने कहा चंपा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे संदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चंपा पढ़ लेना अच्छा है! चंपा बोली: तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता में कभी न जाने दूंगी
कलकत्ते पर बजर गिरे. ***