पीएम मोदी ने समारोह में कहा कि इतिहासकारों ने भारत के कई बड़े वीरों को भुला दिया. सुभाषचंद्र बोस, वल्लभभाई पटेल और भीमराव आंबेडकर को भी वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे. इस सरकार ने हर भुला दिए गए देशभक्त को फिर से स्थापित किया है. पीएम मोदी ने कहा,
भारत का इतिहास वह नहीं है, जो गुलाम बनाने वालों ने लिखा. भारत का इतिहास वो भी है, जो भारत के सामान्यजन में और लोक गाथाओं में रचा बसा है. आज जब भारत अपनी आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. ऐसे में शहीदों को नमन करने से बड़ा कोई अवसर नहीं हो सकता. ये दुर्भाग्य है जिन्होंने भारतीयता के लिए जीवन समर्पित कर दिया, उन्हें वह स्थान नहीं दिया गया जिसके वो हकदार थे. उनके साथ इतिहास लिखने वालों ने जो अन्याय किया, उसे अब आज का भारत सुधार रहा है. गलतियों से देश को मुक्त कर रहा है.

सुहेलदेव को मुगलों के खिलाफ युद्ध लड़ने वाले एक हिंदू राजा के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है.
सालार मसूद के साथ शुरू होती है सुहेलदेव की कहानी राजा सुहेलदेव के बारे में सबसे पुख्ता जानकारी अब्दुर रहमान चिश्ती के मिरात-इ-मसूदी में मिलती है. 17वीं सदी में मुगल राजा जहांगीर के दौर में अब्दुर रहमान चिश्ती नाम के एक लेखक हुए थे. 1620 के दशक में चिश्ती ने फारसी भाषा में एक दस्तावेज लिखा ‘मिरात-इ-मसूदी’. हिंदी में इसका मतलब ‘मसूद का आइना’ होता है. इस दस्तावेज को गाज़ी सैयद सालार मसूद की बायोग्राफी बताया जाता है. मिरात-इ-मसूदी के मुताबिक, मसूद महमूद गजनवी का भांजा था, जो 16 की उम्र में अपने पिता गाज़ी सैयद सालार साहू के साथ भारत पर हमला करने आया था. पिता के साथ उसने इंडस नदी पार करके मुल्तान, दिल्ली, मेरठ और सतरिख (बाराबंकी) तक जीत दर्ज की.
सतरिख में मसूद को न जाने क्या भाया कि उसने यहां टिकने का फैसला कर लिया. टिकने के लिए उसे आसपास के हिंदू राजाओं से सुरक्षा चाहिए थी. इसके लिए उसने अपने साथियों को आसपास के राजाओं को ठिकाने लगाने भेजा. इनमें से एक खेमे का नेतृत्व खुद मसूद का पिता सालार साहू कर रहा था. बहराइच और उसके आसपास के इलाकों के राजाओं ने मसूद के साथियों से युद्ध किया, लेकिन हार गए. हार के बावजूद वो झुकने को तैयार नहीं थे. ऐसे में छिटपुट लड़ाइयां चलती रहीं.
फिर 1033 ई. में खुद सालार मसूद अपनी ताकत परखने बहराइच आया. उसका विजय रथ तब तक बढ़ता रहा, जब तक उसके रास्ते में राजा सुहेलदेव नहीं आए. सुहेलदेव के साथ युद्ध में मसूद बुरी तरह ज़ख्मी हो गया. फिर इन्हीं ज़ख्मों की वजह से उसकी मौत हो गई. उसने मरने से पहले ही अपने साथियों को बहराइच की वो जगह बता दी थी, जहां उसकी दफन होने की ख्वाहिश थी. उसके साथियों ने उससे किया वादा निभाया, और उसे बहराइच में दफना दिया गया. कुछ सालों में वो कब्र मज़ार में और फिर दरगाह में तब्दील हो गई.
ये ‘मिरात-इ-मसूदी’ ही राजा सुहेलदेव का पहला पुख्ता लिखित ज़िक्र है. इस दस्तावेज में उन्हें श्रावस्ती के राजा मोरध्वज का बड़ा बेटा बताया गया है. लेकिन पूरे लिखे में अलग-अलग जगहों पर उनका अलग-अलग नाम बताया गया है. मसलन सकरदेव, सुहीरध्वज, सुह्रददेव, सहरदेव या सुहिलदेव. सुहेलदेव का यूपी की राजनीति से कनेक्शन यूपी की राजनीति में सुहेलदेव का जातीय समीकरण भी देखने को मिलता है. एक मान्यता है कि सुहेलदेव राजभरों के पूर्वज हैं. राजभर जाति इन्हें अपना आदर्श मानती है. राजभर यूपी के पूर्वांचल की एक पिछड़ी जाती है. सिर्फ राजभर ही नहीं बल्कि पासी जाति भी सुहेलदेव को अपना आदर्श मानती है. इन दोनों की जातियों का पूर्वांचल में बड़ा वोट बैंक है. एक अनुमान के अनुसार पूर्वाचल की दो दर्जन लोकसभा सीटों पर राजभर वोट 50 हजार से ढाई लाख तक हैं. घोसी, बलिया, चंदौली, सलेमपुर, गाजीपुर, देवरिया, आजमगढ़, लालगंज, अंबेडकरनगर, मछलीशहर, जौनपुर, वाराणसी, मिर्जापुर, भदोही जैसे जिलों में राजभर काफी प्रभावी हैं. ये वोट बैंक कई सीटों पर जीत-हार तय करता है. बीजेपी इन्हें अपनी तरफ लाने के प्रयास में लगातार लगी हुई है.

बीजेपी के लखनऊ वाले दफ्तर में राजा सुहेलदेव की तस्वीर लगी है.
इस वोटबैंक पर बीजेपी सरकार में 2017 से 2019 तक मंत्री रहे ओमप्रकाश राजभर की पार्टी अकेले दावेदारी करती थी. ओमप्रकाश राजभर की पार्टी का नाम ही सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी है. सुहेलदेव का नाम लेकर उन्होंने राजभरों को एकजुट करने के लिए काफी कोशिशें कीं. 2022 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए बीजेपी ने भी जातियों की गोलबंदी शुरू कर दी है. ऐसी चर्चा है कि राजभर जाति पर ओमप्रकाश राजभर के प्रभाव को कम करने के लिए बीजेपी ने महाराजा सुहेलदेव को अपना आईकॉन बनाया है.