अंक 1 जसवंत सिंह वापस आ रहे हैं

जसवंत सिंह केंद्र से निकलकर रााज्य में वापसी करने वाले थे.
साल 2003 का दिसंबर. वसुंधरा राजस्थान की मुख्यमंत्री बनीं. और यहां उन्होंने पहला राजनीतिक सबक सीखा. विरोधियों को समायोजित करने का. आलाकमान के संकेत पर वसुंधरा को ऐसे कई नेताओं को अपनी कैबिनेट में रखना पड़ा, जो उनके खिलाफ थे. मसलन, गुलाब चंद कटारिया गृह मंत्री बने और घनश्याम तिवाड़ी शिक्षा मंत्री. संगठन दिया गया ललित किशोर चतुर्वेदी को, सूबे का अध्यक्ष बनाकर. अब अहम जगहों पर प्यादे बैठ चुके थे. चाल शुरू होने का इंतजार था.
ढाई साल बाद हलचल तेज हुई. बीजेपी को केंद्र की सत्ता गंवाए ढाई साल बीत चुके थे. अटल रिटायरमेंट मोड में थे. आडवाणी जिन्ना प्रकरण के बाद पार्टी पर नियंत्रण खो चुके थे. महाजन मर चुके थे. राजनाथ सिंह दिल्ली कोटरी से अपने ढंग से निपट रहे थे. इन सबके बीच अटल के करीबी जसवंत सिंह नए सिरे से अपने सूबे में दिलचस्पी लेना शुरू करते हैं. और ये वसुंधरा को खलने लगता है. जसवंत सिंह की अटल सरकार के दौरान छवि पूंजीवाद और अमरीका समर्थक की थी. दत्तोपंत ठेंगड़ी और सुदर्शन वाला संघ उन्हें पसंद नहीं करता था. मगर राजस्थान में एक्टिव जसवंत संघ के नेताओं को ही साध रहे थे. राजे धड़ा नए सिरे से ताकतवर महसूस करने लगा.

2006 का दिसंबर. वसुंधरा राजे सरकार के तीन साल पूरा होने का जश्न मना रही थीं. विरोधी धड़े ने इसी मौके पर बगावत की शुरुआत कर दी. पहला मोर्चा खुला घनश्याम तिवाड़ी की तरफ से. वो राजे की सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. राज्य सरकार से अलग उन्होंने अपना कार्यक्रम किया. इसमें किताबनुमा दस्तावेज रख अपने काम गिनवाए. गांवों का इतिहास लिखने की महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की. राजे ने इसे खुली चुनौती के तौर पर लिया.
दूसरा मौक़ा आया अक्टूबर 2007 में. बाड़मेर का जसोल गांव नेशनल मीडिया की सुर्ख़ियों में था. वजह थी जसवंत सिंह के घर होने वाला रियाण कार्यक्रम. यह जसवंत सिंह का निजी कार्यक्रम था. इसमें राजे के कई मंत्री मसलन, नरपत सिंह राजवी, गुलाब चंद कटारिया और घनश्याम तिवाड़ी मौजूद थे. इसके अलावा ललित किशोर चतुर्वेदी, रघुवीर सिंह कौशल, जोगेश्वर गर्ग, कैलाश मेघवाल और महावीर जैन जैसे वरिष्ठ नेता भी. आपको लगेगा कि यहां राजे विरोध की कोई रणनीति बनने के चलते सुर्खी हासिल हुई होगी. नहीं, खबर बनी अफीम खाने को लेकर.

पश्चिमी राजस्थान में ख़ुशी-गमी के मौके पर अफीम मिली गुड़ की डली मेहमानों को परोसने का रिवाज है. स्थानीय भाषा में इसे 'केसर' कहा जाता है. यह परंपरा सालों पुरानी है. तब चाय नहीं हुआ करती थी. दूर-दराज से आ रहे मेहमान थकावट उतारने के लिए एक डली केसर मुंह में दबा लिया करते थे. जसवंत सिंह के यहां भी कुछ ऐसा था. परम्परा निभाने के नाम पर विद्रोही खेमे के कुछ नेताओं ने केसर की डली मुंह में रख ली थी. लेकिन मामला मीडिया में उठ गया. या उठवा दिया गया. जोधपुर के एक वकील ने अदालत में मामला दायर कर दिया. वसुंधरा विरोधी खेमे के नेताओं पर मुकदमे कायम हो गए. केसर की परम्परा कानूनी रूप से गलत होने के बावजूद पश्चिमी राजस्थान में बहुत आम है. यही वजह थी कि इस मुकदमे को वसुंधरा राजे के पलटवार के तौर पर लिया गया.
अंक-2 राजनाथ बनाम वसुंधरा

2006 में पार्टी अध्यक्ष बने, महेश शर्मा. संघ पृष्ठभूमि से थे तो वसुंधरा या तिवाड़ी खेमे में से किसी ने विरोध नहीं किया. लेकिन जल्द शर्मा सीएम के खास हो गए. एक आदमी और था. जिसका जिक्र अभी तक नहीं आया. मगर जो इन सब पर और खासतौर पर शर्मा की कुर्सी पर नजर गड़ाए था. ओम प्रकाश माथुर.
माथुर कभी शेखावत के विरोधी खेमे में गिने जाते थे. शेखावत की सरकार थी और माथुर प्रदेश में संगठन मंत्री. उन्होंने संघ के जरिए दबाव डलवाकर यह सुनिश्चित किया था कि मुख्यमंत्री लगातार उनके साथ समन्वय बैठक करें. वही ओपी माथुर अब गुजरात में बीजेपी प्रभारी थे. जब दिसंबर2007 में गुजरात चुनाव में बीजेपी ने लगातार तीसरी बार जीत हासिल की, तो माथुर का सीवी मजबूत हो गया.
और फिर राजनाथ सिंह ने उन्हें उनका मुंहमांगा असाइनमेंट दे दिया. राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष. वसुंधरा आलाकमान के इस फैसले से खुश नहीं थी. आलम ये कि राष्ट्रीय अध्यक्ष ने फैसले के बारे में चर्चा के लिए मुख्यमंत्री को फोन किया. मगर उन्होंने बात करन से इनकार कर दिया. तब खीझकर मिर्जापुर के बाबू साहब ने माथुर के नाम का दिल्ली से ही ऐलान कर दिया.

और इसके साथ ही ऐलान हो गया आलाकमान बनाम वसुंधरा की जंग का. माथुर का साथ दिया सूबे में तैनात संघ के पलिटिकल एजेंट यानी पार्टी संगठन मंत्री प्रकाश चंद ने. उनके पीछे हो लिए कटारिया और तिवाड़ी जैसे लोग. जल्द ही भैरो सिंह ने भी इनको दम दे दिया.
फिर आया दिसंबर 2008. राजस्थान में विधानसभा चुनाव. संगठन की तरफ से 50 टिकट मांगे गए. वसुंधरा राजे अड़ गईं. आखिरकार आलाकमान के हस्तक्षेप से मामला सुलझा. संगठन को दिए गए30 टिकट. चुनाव के नतीजे आए. कांग्रेस को मिली 96 सीटें. बीजेपी के खाते में आई 78. हार के बाद वसुंधरा निशाने पर आ गईं. उन्हें कहा गया कि हार की जिम्मेदारी लेकर इस्तीफ़ा दो. वसुंधरा ने जवाब में आंकड़े पसार दिए. कहा कि संगठन ने जो 30 टिकट बांटे थे, उसमें से 28 पर पार्टी हारी थी. इसलिए हार की जिम्मेदारी संगठन की है, उनकी नहीं. इस्तीफ़ा कुछ दिन के लिए टल गया.
अंक-3 राजनाथ का दफ्तर, शक्ति प्रदर्शन राजे का

वसुंधरा राजे आडवाणी खेमे की आखिरी मुख्यमंत्री मानी जाती हैं.
मई 2009. लोकसभा चुनाव के नतीजे आए. बीजेपी की गिनती 116 पर सिमट गई. राजस्थान में बीजेपी की बुरी गत हुई. 25 में सिर्फ चार सीटें. इस बार हार का ठीकरा राजे पर फूटा. क्यों. क्योंकि प्रचार के आखिरी तीन सप्ताह वह झालावाड़ में ही रहीं. जहां से उनके बेटे दुष्यंत लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे. बेटा जीता, मगर सूबा हारा.
अब संगठन ने उन्हें घेर लिया. खुद बलिदान दिखाकर. 20 मई 2009 को प्रदेश अध्यक्ष ओपी माथुर और संगठन मंत्री प्रकाश चंद ने राष्ट्रीय अध्यक्ष को इस्तीफा सौंप दिया. मगर इसकी खबर सार्वजनिक नहीं की गई.
फिर इस्तीफा हुआ उत्तराखंड के सीएम बीसी खंडूरी का. उनके राज्य की पांचों सीटें भाजपा हार गई थी. राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह इसे नजीर की तरह इस्तेमाल करने लगे. कि जहां जो कमजोर रहा, वो पद छोड़े. वसुंधरा पर इसका कोई असर नहीं हुआ. फिर एक महीने बाद माथुर और प्रकाश के इस्तीफे की बात सार्वजनिक कर दी गई. वसुंधरा तब भी नहीं मानीं. और जब वसुंधरा को लगा कि राजनाथ नहीं मान रहे हैं, तो उन्होंने अपना ब्रह्मास्त्र फेंका. बरसों बाद एक और अध्यक्ष अमित शाह को भी इसका प्रदर्शन देखना था.
अगस्त 15 2009. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लाल किले से देश को संबोधित कर रहे थे. अशोक रोड स्थित बीजेपी कार्यालय पर भी झंडा फहराया जा रहा था. इस दौरान केंद्रीय पदाधिकारियों और दिल्ली के कार्यकर्ताओँ के अलावा 58 लोग और थे, और इन पर सबकी नजर थी. ये थे वसुंधरा और उनके साथ आए राजस्थान बीजेपी के 57 विधायक.

वसुंधरा राजे ने राजनाथ के सामने शक्ति प्रदर्शन किया और प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी हासिल कर ली.
ये शक्ति प्रदर्शन था. केंद्रीय संगठन के सामने. वसुंधरा का. कि अगर ज्यादा दबाव डाला तो इन सबके साथ पार्टी छोड़ दूंगी. बात संघ तक पहुंची. वाघेला, केशुभाई, कल्याण और उमा भारती वाले अध्याय याद किए गए. मगर उनके सबक किसी काम के नहीं थे. क्योंकि उनमें वाघेला छोड़ किसी के पास विधायक नहीं थे. यहां थे. इसलिए राजनाथ ने कदम वापस खींच लिए.
फिर दो रोज बाद राजनाथ ने पलटवार किया. राजे के दो खास सिपहसालार राजेंद्र राठौड़ और ज्ञानदेव आहूजा पार्टी से निलंबित कर दिए गए. निलंबन के आदेश पर दस्तखत थे अरुण चतुर्वेदी के. जो ओम प्रकाश माथुर के इस्तीफे के बाद एक बार फिर राज्य में पार्टी के अध्यक्ष थे. और थे राजनाथ के करीबी.
15 अक्टूबर 2009. बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक चल रही थी. वसुंधरा राजे का मामला आया. राजनाथ उन्हें हटाने को लेकर अड़े थे. वह आडवाणी की तरफ मुंह करके बोले, "अब बात बहुत आगे निकल चुकी है. इस्तीफ़ा न होने पर पार्टी को शर्मिदगी उठानी पड़ेगी." आडवाणी ने ज्यादा विरोध नहीं किया. जबकि वसुंधरा को अब उनके खेमे में गिना जाता था.
23 अक्टूबर को वसुंधरा ने इस्तीफा भेज दिया. इसकी खबर सबको हुई. मगर इस्तीफा किसी को नहीं मिला. कांग्रेस विधायक और स्पीकर दीपेंद्र सिंह शेखावत को तो कतई नहीं.
राजनाथ कसमसा गए. लेकिन अब उन्हें अपनी कुर्सी की चिंता थी. जिन्ना प्रकरण के बाद 2005 में वह अंतरिम अध्यक्ष बने थे. फिर 2006 में तीन साल के लिए. 2009 के चुनावों में हार पर उन्होंने दूसरों की बलि ली थी. अब उनकी बारी थी. नागपुर से अध्यादेश आ चुका था. यानी बहस की कोई गुंजाइश नहीं.

2009 मे नितिन गडकरी बीजेपी के अध्यक्ष बन गए थे.
दिसंबर 2009 में नितिन गडकरी ने दिल्ली आकर ध्वज प्रणाम किया. और उनके आते ही एक नया दौर शुरू हुआ. राजनाथ वसुंधरा से निजी खुन्नस पाले थे. गडकरी ने भागवत के कहने पर युक्ति से काम लिया. भागवत उमा हों या वसुंधरा, पार्टी में उनके लिए जगह बनाए रखना चाहते थे.
गडकरी ने वैंकेया नायडू को मध्यस्थता के लिए कहा. नायडू भी वसुंधरा की तरह आडवाणी खेमे के व्यक्ति थे. समझौता हो गया. वसुंधरा नेता प्रतिपक्ष का पद छोंड़ेगी. संगठन की शर्त. वसुंधऱा को मंजूर. नेता प्रतिपक्ष कोई और बीजेपी विधायक नहीं बनेगा. वसुंधरा की शर्त. संगठन को मंजूर.
22 फरवरी 2010 को इस्तीफा हुआ. कुछ हफ्तों बाद शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी ने नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर दावा ठोका. आलाकमान ने खास ध्यान नहीं दिया. और दो साल ऐसा ही रहा.
अंक-4 रानी के नाम पर जौहर

मुख्यमंत्री की दौड़ में गुलाब चंद कटारिया भी शामिल थे.
इस्तीफे के बाद राजे जयपुर से बाहर ही रहीं. एक डेढ़ साल. और उनके विरोधी अपनी दावेदारी ठोंकने लगें. यात्रा करके. साल 2012. चुनाव से एक साल पहले. पहला दावा ठोंका गुलाब चंद कटारिया ने. दक्षिण राजस्थान में 'लोक जागरण यात्रा' का ऐलान कर. प्रेक्षक बोले, वसुंधरा कोई यात्रा करें, उससे पहले ही विरोधियों ने उनका दांव इस्तेमाल कर लिया. वसुंधरा शांत रहीं. फिर घनश्याम तिवाड़ी ने 'देव दर्शन' यात्रा का ऐलान किया. शेखावटी और मारवाड़ के इलाके में.
अब वसुंधरा शांत नहीं रहीं. उन्होंने बगावत का संकेत कर दिया. तिवाड़ी के खिलाफ नहीं. जाएं नेता जी और देवता निहारें. कटारिया के खिलाफ. बीजेपी के 78 में से 60 विधायकों ने अपने इस्तीफे पार्टी को सौंप दिए. प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी और प्रभारी कप्तान सिंह सोलंकी के पसीने छूट गए. कटारिया की यात्रा कैंसिल हो गई.
फिर आया चुनावी साल. दिल्ली फिर बदल चुकी थी. जिन नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल मिलने की बात चल रही थी, वह पूर्ति घोटाले के लपेटे में पद गंवा चुके थे. क्लीन चिट काम नहीं आई. और अब आए. राजनाथ सिंह. एक हिदायत के साथ. कि हमारे तय किए नामों पर आपको संगठन में माहौल तैयार करना है. अपने नाम तय नहीं करने.

गडकरी को दूसरा कार्यकाल नहीं मिला और राजनाथ फिर से राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए.
2 फरवरी, 2012. अरुण जेटली का अशोक रोड स्थित घर. यहां पहुंचे दो लोग. एक बगल के पार्टी दफ्तर से, दूसरा जयपुर से. राजनाथ और वसुंधरा की मीटिंग थी ये. दोनों बैठे, पुराने गिले शिकवे दूर हुए. फिर कुछ रोज बाद राजनाथ ने मुस्कुराती वसुंधरा के बगल में खड़े होकर ऐलान किया. उन्हें राज्य में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाने का. वसुंधरा जयपुर रवाना हुईं.
और तीन नेता, जयपुर से वाया दिल्ली रवाना हुए नागपुर. घनश्याम तिवाड़ी, रामदास अग्रवाल और गुलाब चंद कटारिया. संघ के दरबार में अपनी बात कहने. सब कही सुनी गई. मानी नहीं गई. क्योंकि संघ को विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव की चुनौती नजर आ रही थी. .
वसुंधरा ने चुनाव से कुछ महीने पहले सुराज संकल्प यात्रा निकाली. फिर आए नरेंद्र मोदी. बीजेपी की ताकत दोगुनी हो गई. उधर सूबे के लोग थे, जो गहलोत से कम, मनमोहन सरकार से ज्यादा नाराज थे. केंद्र सरकार पर एक किस्म का जनमत संग्रह सा हो गया ये.

राजस्थान में बीजेपी की जीत को मोदी मैजिक बताया गया. वसुंधरा ने कहा कि सिर्फ मोदी मैजिक नहीं है.
बीजेपी को 200 में से 164 सीटों पर जीत, यानि तीन चौथाई से ज्यादा का बहुमत मिला. अभूतपूर्व शब्द ऐसे ही मौकों पर इस्तेमाल होता है. फिर इस मौके की वजह बताया गया. मोदी मैजिक. वसुंधरा बोलीं, सिर्फ मोदी की वजह से नहीं जीते. मोदी चुप रहे. क्योंकि अभी एक चुनाव बाकी थे.
अंक-6 दिल्ली पर दूसरी चढ़ाई
बीजेपी ने, मोदी ने, क्षत्रपों ने दिल्ली जीती. राजस्थान की बात करें तो सारी की सारी 25 लोकसभा सीटें. वसुंधरा ने मोदी को पहली दिक की. मंत्रिमंडल में जगह को लेकर. मोदी ने साफ कर दिया. कोई नेता पुत्र नहीं चलेगा. दुष्यंत का पत्ता कटा तो वसुंधरा ने किसी का नाम आगे नहीं किया. आलम ये कि शपथ ग्रहण से कुछ घंटे पहले सुर्खियां संभावितों का नाम नहीं, ये बन रही थीं कि राजस्थान के सब सांसद राजस्थान हाउस में इकट्ठे हैं. मुख्यमंत्री के निर्देश का इंतजार करते. संघ ने फिर दखल दिया. एक राज्यमंत्री राज्य से बन गया. बात आगे के लिए टल गई.

ललित मोदी प्रकरण में नाम आने के बाद भी वसुंधरा बची रहीं.
फिर ललित मोदी प्रकरण में वसुंधरा घिरीं. लेकिन अमित शाह चाहकर भी कुछ न कर पाए. क्योंकि मोदी ने वसुंधरा के साथ सुषमा स्वराज का भी नाम लिया था. फिर शुरु हुआ 2018. अमित शाह अब आर या पार के लिए तैयार थे. एक बार फिर पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष पद वो अखाड़ा बना, जहां जोर आजमाइश होनी थी. अब तक इस पद पर वसुंधरा के खास अशोक परनामी तैनात थे. उनका इस्तीफा ले लिया गया. अमित शाह ने नाम बढ़ाया जोधपुर के सांसद और मोदी सरकार में मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत का. वसुंधऱा ने साफ इनकार कर दिया.
हफ्तों बीते. फिर महीनों. विपक्षी पार्टियां खिल्ली उड़ाने लगीं. संघ ने फिर मध्यस्थता की. संघ के नंबर 2 भैयाजी जोशी ने मोदी को साफ कर दिया. हम येदियुरप्पा जैसी स्थिति दोबारा नहीं चाहते. पार्टी अध्यक्ष को फिर झुकना पड़ा. क्योंकि विधायक फिर वसुंधरा के साथ थे. कितने, सरकार बनाने के लिए जितने चाहिए उससे कहीं ज्यादा. 163 में से 113 विधायक. इन्हें लेकर वसुंधरा फिर दिल्ली पहुंचीं.

वसुंधरा राजे ने अपने खास अशोक परनामी को बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनवा दिया.
अमित शाह को राजनाथ वाला सबक याद था. उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया. मगर खबर सबको हो गई. फिर एक दिन नाम आया, मदन लाल सैनी. सीकर के रहने वाले लो प्रोफाइल राज्यसभा सांसद. पार्टी के नए अध्यक्ष. वसुंधरा मुस्कुराईं. शाह शांत रहे. मोदी ने मुंह घुमा लिया. अगले मौके के लिए. यही सियासत है. और यही है मुख्यमंत्री सीरीज का अंत.
वसुंधरा राजे सिंधिया को धौलपुर क्यों लौटना पड़ा?| Part 1