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UP: बांदा में दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या का आरोप, परिवार बोला- 'न्याय नहीं दिला पाए'

29 अक्टूबर की घटना, 21 नवंबर को पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आई, पुलिस ने पहले ही 'हादसे से हुई मौत' बता दिया. आरोपी को मुकदमे की धारा हल्की करके जमानत दे दी.

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मृतक महिला के पिता का सवाल है, 'सरकार और प्रशासन उनका है. हमारा कौन है?' (सांकेतिक तस्वीर- आजतक)

उत्तर-प्रदेश (uttar pradesh) के बांदा (banda) जिले में एक दलित महिला (dalit woman) की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई. उसके परिवार वालों ने आरोप लगाया कि महिला के साथ सामूहिक बलात्कार (gang rape) हुआ और फिर हत्या (murder) कर दी गई. महिला का पति, पुलिस की कार्रवाई से निराश है. परिवार का कहना है कि वो मृतका को न्याय नहीं दिला पाए. ग्रामीणों ने विरोध प्रदर्शन भी किए, लेकिन मामला, सबूत, गवाह और IPC की धाराओं में कथित तौर पर हुए खेल में अटक गया है. पूरा मामला क्या है, विस्तार से जानेंगे.

क्या है पूरा मामला?

अंग्रेजी अखबार द हिंदू ने इस मामले पर विस्तार से रिपोर्ट की है. मामला बांदा जिले के पतौरा गांव का है. जिला मुख्यालय से 18 किलोमीटर दूर इस गांव में करीब 200 दलित परिवार रहते हैं. एक समय इन दलित परिवारों को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया था. तब से ये यहीं बसे हैं. गांव की जमीनें ब्राह्मण समुदाय के लोगों की हैं. इनके खेतों में गांव के दलित समुदाय के लोग ही काम करते हैं. इसी गांव में रहने वाले दलित दंपति, 40 साल की आशा और 43 साल के सूरज (बदले हुए नाम) दोनों चमड़े का काम करने वाले समुदाय से थे. और राजकुमार शुक्ला नाम के व्यक्ति के खेतों में मजदूरी करते थे. राजकुमार और बउआ शुक्ला मिलकर एक आटा चक्की भी चलाते हैं. सूरज और आशा को दो दिनों से इनकी चक्की की दीवारों को गोबर से लीपने का काम मिला हुआ था. बीते नवंबर महीने में उनकी बेटी की शादी होने वाली थी. उसके लिए कुछ साड़ी और एक लहंगा खरीदने की खातिर दोनों कुछ पैसे कमाना चाहते थे.

29 अक्टूबर की सुबह पति-पत्नी चक्की में दीवार लीपने के काम पर गए. दोपहर करीब 12.30 बजे दोनों चक्की से घर खाना खाने आए. कथित रूप से दोपहर 2 बजे से 2:30 बजे के बीच चक्की के मालिक बउवा शुक्ला ने आशा को फ़ोन करके काम पूरा करने के लिए वापस आने को कहा. बेटी रश्मि बताती है कि ‘मां जल्दी में चली गईं, उन्होंने ठीक से खाना भी नहीं खाया.’ इसके बाद, उसी दिन दोपहर में आशा के रिश्तेदार को चक्की के अंदर उसका क्षत-विक्षत शरीर मिला. साड़ी और दूसरे कपड़े इधर-उधर बिखरे पड़े थे. घटनास्थल से 10 किलोमीटर दूर गिरवां थाना है. बांदा के पुलिस अधीक्षक अंकुर अग्रवाल के मुताबिक, पुलिस शाम 4 बजे मौके पर पहुंची. और शव को पोस्टमॉर्टम के लिए ले गई.

पोस्टमॉर्टम के नतीजे आने से पहले, 2 नवंबर को अंकुर अग्रवाल ने एक्स पर एक वीडियो मैसेज के जरिए कहा कि प्रारंभिक जांच से पता चलता है कि ये एक्सीडेंटल डेथ (हादसे से हुई मौत) है. महिला का शरीर, चक्की की मशीन और बेल्ट के बीच फंस जाने से उसकी मौत हुई है. उन्होंने दावा किया कि महिला के प्राइवेट पार्ट्स में कोई चोट नहीं आई है. इसके बाद 21 नवंबर को पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट सामने आई. गौरतलब है कि अगर मामला जहर या किसी अन्य चीज का सेवन करने से हुई मौत का न हो तो सामान्य रूप से पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आने में इतना वक़्त नहीं लगता.

मुक़दमे की धाराओं में खेल? 

आशा के साथ हुई घटना वाले दिन ही शाम को आशा के परिवार ने पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई. उन्होंने आशा के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या का आरोप लगाया. आशा का शव, उनके जिस रिश्तेदार को मिला, उसने दावा किया कि उन्होंने चीखें सुनी थीं. इतना ही नहीं उन्होंने तीन लोगों- राजकुमार, बउवा और राजकृष्ण शुक्ला को चक्की से बाहर निकलते हुए देखने का दावा भी किया था. उन्होंने तीन और लोगों को चक्की के पीछे की दीवार पर चढ़ते हुए भी देखा.

चक्की लगभग 2 एकड़ की जमीन पर बनी एक दीवार के अंदर है. इसमें अंदर दो ही कमरे हैं, जिनकी दीवारें मिट्टी की हैं और छत मिट्टी की खपरैल से बनी है. घटना के बाद इसके दरवाजे को सील कर दिया गया है. पुलिस का कहना है कि चक्की, चोरी की बिजली से चल रही थी. शिकायत दर्ज होने के बाद पुलिस ने अगले दिन उन तीनों लोगों के खिलाफ IPC की धारा 302 (हत्या) और 376 (बलात्कार) के तहत FIR दर्ज कर ली,  जिनके नाम आशा के रिश्तेदार ने लिए थे. गौरतलब है कि प्राथमिकी में सामूहिक बलात्कार की धाराएं नहीं शामिल की गईं.
पुलिस का कहना था कि FIR दर्ज करने में 24 घंटे की डेरी इसलिए हुई  क्योंकि जब आशा के परिजन थाने पहुंचे तो उनके सूरज मौजूद नहीं थे. जबकि अखबार से बात करते हुए सूरज ने कहा,

"मुझे घटना के बारे में बहुत बाद में पता चला, तब तक सब लोग थाने जा चुके थे. थाने में हमें अगले दिन आने के लिए कहा गया."

घटना के बाद 15 दिन से ज्यादा का वक़्त गुजर चुका था. पुलिस ने नामजद FIR दर्ज करने के बाद भी कोई गिरफ्तारी नहीं की थी. इससे निराश आशा के [परिजनों और गांव वालों ने16 नवंबर को विरोध प्रदर्शन किया. अगले ही दिन पुलिस ने राजकुमार शुक्ला को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन पुलिस ने उसके खिलाफ आरोप बदल दिए. राजकुमार के खिलाफ पुलिस ने धारा 304 ए (लापरवाही से मौत), 287 ( मशीनरी के संबंध में लापरवाही), और आईपीसी की धारा 201 (अपराध के सबूतों को गायब करना), और SC/ST एक्ट की धारा 3(2)(v) के तहत आरोप दर्ज किए.

दलित डिग्निटी एंड जस्टिस सेंटर नाम के एक NGO ने कई दूसरे NGO के साथ मिलकर इस मामले की जांच शुरू की थी. इस NGO से जुड़ी, वकील रश्मी वर्मा कहती हैं,

“FIR में आरोपों को बदलकर उन्हें गैरजमानती से जमानती बना दिया गया.”

रश्मि ये भी कहती हैं कि गिरफ्तारी में देरी से आरोपियों द्वारा सबूतों से छेड़छाड़ करने और उन्हें नष्ट करने की आशंका बढ़ जाती है. मामले की जांच करने वाली NGOs की टीम की रिपोर्ट में भी कहा गया,

"ऐसा लगता है कि न केवल आरोपों को कमजोर करने बल्कि अपराध को ही बदलने की कोशिश की जा रही है."

इसके बाद 29 नवंबर को राजकुमार को जमानत मिल गई. अब SC/ST एक्ट के तहत 60 दिन में चार्जशीट दाखिल की जाएगी. इस बीच राजकुमार के परिवार ने मीडिया से बात करने से इनकार कर दिया है.

पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में भी खेल: परिवार का आरोप

नरैनी के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के दो डॉक्टरों ने 1 नवंबर को पोस्टमॉर्टम किया था.
पुलिस अधीक्षक अंकुर अग्रवाल कहते हैं,

''मौत का कारण सदमा और मौत से पहले की चोटों के कारण खून का बहना है."

डॉक्टर्स ने किसी तरह के यौन उत्पीड़न से इनकार किया. अंकुर अग्रवाल ने ये भी बताया कि वेजाइनल स्वैब (योनि की जांच के लिए) के नमूने फोरेंसिक लैब भेजे गए हैं. और कहा कि मेडिको-लीगल एक्सपर्ट्स की 'निर्णायक रिपोर्ट' में कहा गया है कि यह एक 'एक्सीडेंटल डेथ' थी, क्योंकि इसमें किसी हथियार का इस्तेमाल नहीं हुआ था. आशा का शरीर मशीन में फंस गया था.

जबकि आशा के परिवार का आरोप है कि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट पर अस्पताल का स्टाम्प नहीं थी, जो नियम के विरुद्ध है. जबकि अंकुर अग्रवाल का कहना है कि “डॉक्टर का नाम स्पष्ट रूप से लिखा है, और आगे की जांच के लिए पोस्टमॉर्टम की वीडियोग्राफी की गई है. जरूरत पड़ने पर ये वीडियो, सबूत के तौर पर काम करेगा.''

अंकुर अग्रवाल का ये भी कहना है कि राजकुमार शुक्ल का दावा था कि

"जब आशा दीवार पर मिट्टी लगा रही थी तो वह बेल्ट में फंस गई. और जब उन्होंने (राजकमार ने) देखा कि उसके कपड़े फंस गए हैं तो वह घबरा गए और कुछ और लोगों को बुलाया.''

उन्होंने आगे कहा कि

"हमने लखनऊ और प्रयागराज के फोरेंसिक एक्सपर्ट्स की राय ली है. मशीन पुरानी थी इसलिए आशा के शरीर पर जिस तरह के कट लगे वो इन मशीनों से संभव है.”

एक और पेच ये है कि आशा के परिवार का कहना है कि मौके पर आशा के शरीर के आसपास खून के निशान नहीं थे. जबकि NGOs की टीम की रिपोर्ट में कहा गया है कि मौके पर बहुत थोड़ा खून था. वहीं अंकुर अग्रवाल भी कहते हैं कि मौके पर खून था.

सोशल मीडिया साइट पर अंकुर अग्रवाल की इस मामले से जुड़ी पोस्ट के बारे में रश्मि वर्मा कहती हैं,

"पहले 48 घंटे में घटना के तःथ्यों और ये कि जांच शुरू हो चुकी है, इसके अलावा कोई भी गैर जरूरी जानकारी शेयर नहीं करनी चाहिए. चल रही जांच के बारे में आधी-अधूरी, अटकलबाजी या अपुष्ट जानकारी के साथ प्रेस के पास नहीं जाना चाहिए. क्योंकि इससे न केवल निष्पक्षता के बारे में आशंका पैदा होती है, बल्कि ये गृह मंत्रालय की साल 2010 की सलाह के भी खिलाफ है, जिसमें कहा गया है कि पुलिस अधिकारियों को अपनी मीडिया ब्रीफिंग केवल जरूरी तथ्यों तक सीमित रखनी चाहिए."

घटना के बाद से कक्षा 8 पास आशा की बेटी डरी हुई है. वो कहती है,

“अगर वो लोग वापस आ गए तो क्या होगा?”

अपनी मां के बारे में बताते हुए वो कहती है कि मां को मेकअप करना, नाचना और गाना पसंद था, गांव के एक कार्यक्रम में उन्होंने नाच-गाना किया था. उन्हें कई हिंदी फिल्मों के गाने ज़बानी याद थे. सूरज को अफ़सोस है कि वो अपनी पत्नी को न्याय नहीं दिला पाया. आशा के बीमार पिता सवाल करते हैं, "सरकार और प्रशासन उनका है. हमारा कौन है?

आगे इस मामले में आगे जो भी अपडेट आएगा, हम उसे प्रमुखता से आपके सामने लाने के लिए तत्पर रहेंगे. 
 

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