मोदी सरकार के लिए साल 2023 की इससे बेहतर शुरुआत हो नहीं सकती थी. 8 सालों में उसके सबसे सख्त और विवादित फैसलों में से एक, जिसकी अब वो खुद बात नहीं करती, उसे सुप्रीम कोर्ट ने सही बता दिया है. 8 नवंबर 2016 को हुई नोटबंदी को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 4:1 के मत से वैध मान लिया है. सुनवाई के दौरान बार बार सरकार की तरफ से ये दलील दी गई कि सुप्रीम कोर्ट में नोटबंदी को जिन दलीलों के आधार पर चुनौती दी गई, वो महज़ एक एकैडमिक एक्सरसाइज़ है. सादी भाषा में - बतकही. जिसमें रस तो लिया जा सकता है, लेकिन उसके नतीजे में कुछ हासिल नहीं होगा. और अंततः सरकार ये साबित करने में सफल भी रही, कि उसने जो किया, वो विधिसम्मत भी था. लेकिन इसका मतलब ये नहीं, कि नोटबंदी पर अब बात नहीं हो सकती. नोटबंदी कैसे हुई, उसके वास्तविक लक्ष्य क्या थे और क्या जो लक्ष्य बताए गए वो पूरे हुए? और जस्टिस नागरत्ना ने जो असहमति दर्ज कराई है, उसके मायने क्या हैं? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बहाने इन सारे सवालों के जवाब नए सिरे से तलाशने की गुंजाइश पैदा होती है. तो आइए, जवाबों को तलाशने का सिलसिला शुरू करें.
नोटबंदी पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर का सच ये है!
8 नवंबर 2016 को हुई नोटबंदी को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 4:1 के मत से वैध मान लिया है.

8 नवंबर 2016 की रात 8 बजे प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र के नाम संबोधन में नोटबंदी का ऐलान किया. 500 और 1000 के नोटों को चलन से बाहर कर दिया. उस ऐलान को आपने कई बार सुन लिया होगा, कई मीम्स भी देख लिये होंगे. प्रधानमंत्री उस रात एक घंटे से कुछ ज़्यादा देर तक बोले. इसमें से 40 मिनट के करीब हिंदी में था. भारत के इतिहास में तमाम प्रधानमंत्रियों ने अपने वक्त में सख्त फैसले लिए. अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रतिबंधों की आशंका के बावजूद परमाणु परीक्षण किया, पीवी नरसिम्हा राव ने आर्थिक उदारीकरण का मुश्किल फैसला लिया. इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान से युद्ध का ऐलान किया, आपातकाल की घोषणा की. और लाल बहादुर शास्त्री ने युद्ध के बीच अमेरिका को ठेंगा दिखा दिया, चाहे एक रोज़ पूरे देश को उपवास ही करना पड़े. लेकिन नोटबंदी जैसे फैसले की मिसाल कम ही मिलती है, जिसका असर कुछ घंटों के भीतर ही पूरे देश के लगभग हर नागरिक पर होने लगा. पूरे देश की जीडीपी को प्रभावित करने वाले फैसलों का असर नज़र आने में कभी साल तो कभी दशक भी लग जाते हैं. लेकिन नोटबंदी के फौरन बाद देश ATM के बाहर कतार में खड़ा हो गया. असंगठित क्षेत्र के सामने वर्किंग कैपिटल का संकट खड़ा हो गया. और जिन लोगों की वैध बचत कैश में थी, उनके काम पैसे होते हुए भी लटक गये.
लेकिन इतनी दुश्वारियों के बावजूद नोटबंदी को व्यापक जनसमर्थन मिला, ये भी तथ्य है. क्यों? क्योंकि नोटबंदी का ऐलान RBI या वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री पर बैठे किसी शख्स ने नहीं किया था. नोटबंदी का ऐलान किया था नरेंद्र मोदी ने. कौनसे नरेंद्र मोदी की बात कर रहे हैं हम?
अप्रैल 2011 में अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में जनलोकपाल आंदोलन शुरू होता है. इसका मकसद बताया गया - भ्रष्टाचार को खत्म करना. ये आंदोलन देशभर में सुर्खियां बनाता है. गली गली बात होने लगती है कि सरकार में कितना भ्रष्टाचार है और कैसे कुछ लोग जमकर काला धन इकट्ठा कर रहे हैं, जो विदेशी बैंकों में जमा किया जा रहा है. और यहां भारत में लोग गरीब हुए जा रहे हैं. इसी साल जून में योग गुरू रामदेव भी दिल्ली के राम लीला मैदान में एक उपवास शुरू करते हैं. इसका मकसद था, सरकार पर विदेश में जमा कथित ''काला धन'' वापिस लाने के लिए दबाव बनाना. अन्ना हज़ारे और योग गुरू रामदेव - दोनों के लक्ष्यों और तरीकों पर टिप्पणी किये बिना इस बात पर सहमत हुआ जा सकता है कि मनमोहन सिंह सरकार ने इन्हें जैसे हैंडल किया, उसने सरकार की साख को और गिरा दिया. अन्ना और रामदेव दोनों एक एक बार गिरफ्तार भी हुए. सब कुछ लाइव टीवी पर चला और दर्शकों में संदेश ये चला गया कि सामाजिक कार्यकर्ता तो भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ हैं, लेकिन सरकार कोई सख्त कदम उठाना ही नहीं चाहती.
ऐसे में लोगों के सामने एक शख्स आता है, जो एक सूबे का मुख्यमंत्री है, लेकिन वो काले धन और भ्रष्टाचार को लेकर केंद्र पर वो हमला बोलता है, कि लोग सुनते रह जाते हैं. भारतीय जनता पार्टी 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को चहरा बनाती है और मोदी प्रचार के दौरान दो बड़े वादे प्रमुखता से करते हैं. एक - विकास. और दूसरा - भ्रष्टाचार और काले धन पर सख्त फैसले. नरेंद्र मोदी कथित ''चोर-लुटेरों'' पर कार्रवाई की बात 2014 में प्रचार के समय से करते आए थे. इसीलिए नोटबंदी जैसे दूरगामी असर वाले फैसले पर उन्हें जनसमर्थन मिला. और जो अन्ना हज़ारे जनवरी 2015 में काले धन और लोकपाल पर मोदी सरकार की आलोचना कर रहे थे, उन्होंने भी नवंबर 2015 में कह दिया कि नोटबंदी एक अच्छी पहल है. इससे काले धन पर रोक लगेगी.
लेकिन क्या सरकार वाकई अपने वादों पर खरी उतर पाई? इसका फैसला करने के लिए पहले उन कारकों पर गौर कीजिए, जिनके आधार पर प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का फैसला लिया था. 8 नवंबर 2016 को उनके संबोधन में इनका ज़िक्र भी था. माने नोटबंदी सिर्फ भ्रष्टाचार और कालेधन पर अंकुश के लिए ही नहीं थी. उसे आतंकवाद से भी निपटना था. फिर अपने संबोधन में प्रधानमंत्री महंगाई को काबू करने की बात भी करते हैं. माने मकसद तो नेक था. लेकिन मकसद का नेक होना एक बात होती है और तरीके का सही होना, दूसरी बात. असहमति के स्वर नोटबंदी के ऐलान के साथ ही सुनाई देने लगे थे. 24 नवंबर 2016 को पूर्व प्रधानमंत्री, रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर और आर्थिक उदारीकरण वाला बजट पेश करने वाले वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में नोटबंदी को monumental mismanagement बता दिया था.
डॉ मनमोहन सिंह को विपक्ष का एक नेता कहकर खारिज भी कर दिया जाए, तो हमारे सामने ख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार का एक लेख आ जाता है, जो उन्होंने 15 दिसंबर 2016 को स्क्रोल डॉट इन पर छपा था. इस लेख का शीर्षक ही था - Demonetisation: Shifting goalposts to show success has kept focus away from real problems.
'' सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था में व्याप्त काले धन को टार्गेट कर रही थी, लेकिन नोटबंदी का प्रतिकूल असर पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. 1000 और 500 के नोटों का कुल मूल्य था 15 लाख 44 हज़ार करोड़. अब तक 13 लाख करोड़ बैंक खातों में लौट चुके हैं. बाकी धन भी बचे हुए वक्त में RBI के पास लौट आएगा. अतः इस कदम से काले धन पर बहुत कम असर पड़ेगा. गरीब और असंगठित क्षेत्र के मज़दूर, जो कि भारत की वर्कफोर्स का 94 फीसदी हिस्सा हैं, इस कदम से लंबे समय तक प्रभावित होते रहेंगे. जैसे ही ये मालूम चला कि ब्लैक इकॉनमी या टेरर फाइनैंसिंग पर नोटबंदी का असर न के बराबर होगा, सरकार कैशलेस इकॉनमी की बात करने लगी, जिससे हर किसी को फायदा होगा क्योंकि लेनदेन का रिकॉर्ड रहेगा. मगर आयकर विभाग तो एक साल में कुछ लाख मामलों की ही जांच कर पाएगा. वो अचानक करोड़ों लेनदेन का ऑडिट करने लगेगा, ऐसी अपेक्षा बेमानी है. ‘’
प्रधानमंत्री के इस भावुक बयान ने एक बार फिर अलग अलग परेशानियां झेल रहे लोगों को उनके पीछे लामबंद किया. इंतज़ार किया जाने लगा कि आने वाले समय में चीज़ें बेहतर हो जाएंगी. 8 नवंबर 2017 को सरकार ने काला धन विरोधी दिवस मनाया. इसी दिन प्रधानमंत्री मोदी के यूट्यूब चैनल पर कुछ वीडियो प्रकाशित हुए. इनमें दावा किया गया कि कैसे नोटबंदी के चलते आतंकवाद, नक्सलवाद और हवाला का कारोबार कम हुआ. क्योंकि 6 लाख करोड़ के हाई वैल्यू नोट प्रभावी रूप से कम हुए. कश्मीर में पत्थरबाज़ी और देश में ड्रग्स के खेल पर अंकुश लगा. एक दूसरे वीडियो में दावा किया गया कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोग संगठित क्षेत्र से जुड़ रहे हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था का फॉर्मलाइज़ेशन हो रहा है. और भारत का फाइनैंशियल सिस्टम साफ हो रहा है. शेल कंपनियों पर सर्जिकल स्ट्राइक हो गई है.
कट टू जनवरी 2023. याद कीजिए कि सरकार ने कितने साल से काला धन विरोधी दिवस नहीं मनाया है. या कितने वक्त से सरकार के किसी मंत्री ने नोटबंदी के फायदे नहीं गिनाए हैं? नोटबंदी के विरोध का चुनावी फायदा नहीं मिलेगा, ये स्थापित होते ही विपक्ष ने भी उसका ज़िक्र कम कर दिया. अब नोटबंदी की चर्चा वही पत्रकार करते हैं, जो नोटबंदी की बरसी पर ये जानकारी निकालकर लाते हैं कि बाज़ार में अब कितना कैश चल रहा है. जैसे 8 नवंबर 2018 को छपी इंडिया टु़डे की ये रिपोर्ट. जिसमें RBI के हवाले से ही ये बताया गया कि नोटबंदी से पहले जितना कैश बाज़ार में था, उससे ज़्यादा 2018 में बाज़ार में लौट आया. 2021 आते आते तो कैश की मात्रा 64 फीसदी बढ़ गई. कैश था, तो कैश के चलते जो समस्याएं थीं, वो भी वैसी की वैसी रहीं. रही बात अधिकारियों के यहां बिस्तर के नीचे से निकलने वाली धनराशि की, तो पहले उसमें 500 और 1000 के नोट होते थे, अब 2000 के होते हैं. नोटबंदी से एक फायदा जो वाकई हुआ, वो था डिजिटल पेमेंट्स की दुनिया में. नोटबंदी के बाद बैंक डिजिटल पेमेंट्स को आसान और सुरक्षित बनाने के लिए प्रेरित हुए. और अब आप सब्ज़ी खरीदते हुए भी अपने फोन से भुगतान कर सकते हैं.
नोटबंदी चर्चा से बाहर चली गई. लौटी कैसे? सुप्रीम कोर्ट में चली सुनवाई से. सुप्रीम कोर्ट और देश की तमाम हाईकोर्ट्स में नोटबंदी के खिलाफ याचिकाएं 9 नवंबर 2016 से ही लगना शुरू हो गई थीं. केंद्र ने इन्हें सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर कराने की मांग की. ताकि सारे चुनौतियों को एक जगह, साथ में सुना जा सके. 16 दिसंबर 2016 को सुप्रीम कोर्ट की एक ट्रिपल बेंच ने नोटबंदी के मामले में पहला फैसला सुनाया. भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस TS ठाकुर ने फैसला देते हुए कहा कि मामले में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े हुए हैं. जैसे -
1. क्या 8 नवंबर 2016 को जारी नोटबंदी की अधिसूचना Reserve Bank of India Act, 1934 का उल्लंघन करती है?
2. क्या ये अधिसूचना संविधान के अनुच्छेदों का उल्लंघन करती है?
3. क्या अधिसूचना के अमल में तय प्रक्रिया का पालन हुआ? अगर नहीं, तो क्या इससे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ?
4. आर्थिक नीति से जुड़े मसलों की न्यायिक समीक्षा का विस्तार कहां तक हो सकता है?
5. किसी राजनैतिक दल द्वारा लगाई गई याचिका पर सुनवाई हो सकती है?
आदि.
ऐसे कुल 9 सवाल तय किये गए. और ये मामला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को सौंप दिया गया. दी लल्लनटॉप शो के नियमित दर्शक जानते ही हैं कि सुप्रीम कोर्ट जैसी बड़ी अदालतों में 5 - 5 जजों को एक साथ वक्त मिल पाना बहुत मुश्किल होता है. फिर बीच में दो साल कोरोना की भेंट भी चढ़ गये. तो नोटबंदी का मामला चला गया नेपथ्य में. फिर एंट्री होती है भारत में सबसे कम समय तक सेवा देने वाले CJI's में से एक जस्टिस यूयू ललित की. जस्टिस ललित ने व्यवस्था बनाई कि रोज़ कम से कम एक संविधान पीठ काम करे. और अकारण लंबित पड़े मामलों की सुनवाई की जाए. उन्होंने आते ही नोटबंदी वाला मामला लिस्ट कर दिया. माने अब ''विवेक नारायण शर्मा बनाम भारत संघ'' मामले की सुनवाई नियमित रूप से होगी. इसी मामले को हम नोटबंदी के सुप्रीम कोर्ट वाला केस कहते हैं.
मामला इस वर्ष दोबारा लिस्ट हुआ, तो पांच जजों की संविधान पीठ के पास गया. इसमें
जस्टिस एस ए नज़ीर
जस्टिस बी आर गवई
जस्टिस ए एस बोपन्ना
जस्टिस वी रामसुब्रह्मण्यम, और
जस्टिस बी वी नागरत्ना शामिल थीं.
कानूनी मामलों की रिपोर्टिंग करने वाली बेवसाइट लाइव लॉ की खबर के मुताबिक शुरुआत में पीठ ने इसे एक अकादमिक मामले की तरह देखा, क्योंकि 6 साल बीत गए थे और जो घट चुका था, उसे पलटना न्यायालय के लिए मुश्किल था. लेकिन 12 अक्टूबर को कांग्रेस नेता और वरिष्ठ वकील पी चिदंबरम की दलीलों को ध्यान में रखते हुए बेंच ने निर्णय लिया कि वो इस बात पर सुनवाई करना चाहती है कि नोटबंदी का निर्णय लेते हुए तय प्रक्रिया का पालन हुआ कि नहीं. चिदंबरम ने यही कहा था कि नोटबंदी के असर को भले न पलटा जा सके, लेकिन भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए कोर्ट को नोटबंदी की न्यायिक समीक्षा करते हुए एक व्यवस्था देनी चाहिए. इसी के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार और rbi को हुक्म दिया कि वो नोटबंदी से जुड़े सारे दस्तावेज़ अदालत के सामने पेश करें.
10 नवंबर को इस मामले की तारीख थी. भारत सरकार को इस दिन अपना हलफनामा देना था. लेकिन अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने ये कहते हुए और वक्त मांग लिया, कि अभी हलफनामा तैयार नहीं हुआ. तब बेंच ने कहा, कि अटॉर्नी जनरल जैसे वरिष्ठ अधिकारी की मांग को अनदेखा नहीं किया जाएगा. लेकिन जस्टिस नागरत्ना ने तीखे शब्दों में अटॉर्नी जनरल से कहा,
''संविधान पीठ इस तरह सुनवाई को मुल्तवी नहीं करती. पीठ एक बार सुनवाई शुरू कर दे, तो इस तरह आसन नहीं छोड़ती. ये इस अदालत के लिए शर्मिंदगी की बात है.‘’
दिसंबर खत्म होते होते सरकार और RBI अपने हलफनामे लेकर कोर्ट में पहुंचे. सरकार ने कहा, कि ये फैसला तय प्रक्रिया के तहत ही लिया गया. और इसके लिए तो 8 महीने से RBI और सरकार के बीच बातचीत चल रही थी. अतः नोटबंदी की अधिसूचना को अवैध नहीं बताया जा सकता. लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के लिए उदित मिश्रा की रिपोर्ट ने सरकार और RBI के हलफनामे पर कुछ गंभीर सवाल उठा दिये. उदित ने अपनी रिपोर्ट में बिंदुवार बताया है कि RBI और सरकार ने अपने हलफनामों में कौनसी बातें नहीं लिखीं. मिसाल के लिए -
1. तीन साल के भीतर कैश इन सर्कुलेशन नोटबंदी से पहले के स्तर पर आ गया. यही बात हमने भी कुछ देर पहले आपको बताई थी.
2. बाज़ार में तैर रहा कैश, नोटबंदी के लिए समुचित आधार नहीं है. ये 8 नवंबर 2016 को शाम साढ़े पांच बजे RBI के सेंट्रल बोर्ड की मीटिंग में कहा गया, लेकिन हलफनामे में इसका ज़िक्र नहीं हुआ.
3. RBI की बैठक के मिनिट्स में ये भी कहा गया कि काला धन कैश में नहीं, सोने और रिएल एस्टेट - माने ज़मीन और फ्लैट्स जैसी चीज़ों की शक्ल में रखा जाता है. एक बार फिर, ये बात हलफनामे में शामिल नहीं थी.
4. RBI की बैठक में नए नोटों की छपाई और नोटबंदी की टाइमिंग में जुगलबंदी का ज़िक्र नहीं था. और न ही आतंकवाद को लेकर कोई टिप्पणी.
खैर, हलफनामे पर गौर करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2 जनवरी का दिन फैसले के लिए मुकर्रर किया और फैसला ये रहा -
जस्टिस नागरत्ना को छोड़कर चारों जजों ने नोटबंदी की अधिसूचना को वैध माना. कानूनी वैधता का संबंध इस बात से नहीं है कि नोटबंदी के लक्ष्य पूरे हुए या नहीं. नोटबंदी को सिर्फ इसलिए गलत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसका विचार RBI की जगह सरकार से शुरू हुआ. फिर RBI एक्ट की धारा 26(2) के तहत सरकार किसी भी मूल्य/सीरीज़ के नोटों को चलन से बाहर कर सकती है. बहुमत वाले फैसले में ये भी कहा गया है कि सरकार और RBI के बीच 6 महीने तक बातचीत चली थी.
लेकिन जस्टिस बीवी नागरत्ना ने इस फैसले से असहमति जताते हुए कहा कि नोटबंदी के लक्ष्य ज़रूर नेक थे, लेकिन केंद्र बस एक अधिसूचना जारी करके ऐसा नहीं कर सकता. इसके लिए संसद की मंज़ूरी चाहिए थी. माने एक कानून बनाया जाना चाहिए था. फिर RBI ने भी अपने विवेक का स्वतंत्र इस्तेमाल नहीं किया. RBI द्वारा जमा किए गए दस्तावेज़ बताते हैं कि ''केंद्र की इच्छा'' जैसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ. और पूरी कार्यवाही 24 घंटों के भीतर पूरी कर ली गई. जस्टिस नागरत्ना ने ये भी कहा कि धारा 26-2 के तहत किसी एक सीरीज़ को चलन से बाहर किया जा सकता है, लेकिन एक मूल्य के सारे नोटों को एकसाथ डिमोनेटाइज़ नहीं किया जा सकता. तो अब नोटबंदी का ज़िक्र न करने वाली सरकार के पास नोटबंदी का उत्सव मनाने का मौका है. वो ये कह सकती है कि उसके फैसले पर SC की मुहर लग गई. विपक्षी नेता और मामले में दलीलें दे चुके पी चिदंबरम ने कहा कि वो फैसले को स्वीकार करते हैं. लेकिन जस्टिस नागरत्ना की असहमति केंद्र को एक ज़रूरी सबक भी देती है.
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