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मजदूर नेता से सीएम बनने का सफर तय करने वाले बिंद्श्वरी दुबे का किस्सा सुनिए

बेंगलुरू की मशहूर नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी इन्हीं की देन है.

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बिहार के पूर्व सीएम बिंदेश्वरी दुबे की भाषण देते हुए तस्वीर.

बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनयरिंग, पटना. अब इसे एनआईटी पटना कहते हैं. यहां जाओ तो लोग कहते हैं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अलमा मैटर में आ गए. मगर ये शायद ही कोई कहता हो, कि नीतीश से पहले भी इस इंजीनियरिंग कॉलेज ने एक मुख्यमंत्री दिया. लोगों का दोष नहीं. वो स्टूडेंट बीटेक ड्रॉपआउट था. शाहाबाद के महुआंव गांव के दुबे टोला का ये लड़का था बिंदेश्वरी दुबे. उसने कॉलेज छोड़ा भारत छोड़ो आंदोलन की खातिर. 2 साल जेल रहा. छूटा तो धनबाद में जाकर खदान में नौकरी करने लगा. यहीं दशकों के संघर्ष से मजदूरों का नेता बना. पहले कोलियरी मजदूर संघ फिर कांग्रेस के श्रमिक संगठन इंटक का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना. लेकिन ये किस्से तो उसके सीएम बनने के हैं. इसकी शुरुआत हुई एक नेता के जीतकर इस्तीफा देने से.

अंक 1

चार सीट खराब कीं राजा रामगढ़ ने

देश आजाद हुआ. रजवाड़े खत्म हुए. लेकिन दक्षिण बिहार की रामगढ़ रियासत का रसूख कई जिलों में कायम था. यहां के राजा थे कामाख्या नारायण सिंह. 1952 में पहले विधानसभा चुनाव हुए तो कामाख्या पांच सीटों से खड़े हुए और सबसे जीते भी. लेकिन नियम मुताबिक विधायक तो एक ही जगह से रह सकते थे. सो बाकी चार से इस्तीफा दिया. इनमें से एक सीट थी पेटरवार. यहां उपचुनाव हुए तो कांग्रेस ने मजदूर नेता 31 साल के बिंदेश्वरी को मैदान में उतारा. बिंदेश्वरी जीत गए. अगले चुनाव में परिसीमन बदल गया. इस सीट का नाम भी बदलकर बेरमो हो गया. अबकी उनके सामने राजा रामगढ़ के रिश्तेदार ब्रजेश्वर प्रसाद सिंह थे. दुबे चुनाव हार गए. लेकिन उन्होंने सीट नहीं बदली. और फिर लगातार चार चुनाव जीते. 1972 की जीत के बाद पांचवी बार के विधायक बिंदेश्वरी मंत्री भी बनाए जाने लगे. जगन्नाथ मिश्र सरकार में बिंदेश्वरी हेल्थ मिनिस्टर थे. ये महकमा संभालते हुए उन्होंने कुछ ऐसा किया कि अगले चुनाव में पूरे सूबे के डॉक्टर उन्हें हराने के लिए बेरमो पहुंचे.

अंक 2

डॉक्टरों ने क्यों पाली खुन्नस

इमरजेंसी के दौर में प्रधानमंत्री इंदिरा के लाडले संजय को खब्त चढ़ी. जनसंख्या नियंत्रण की. नसबंदी के लिए राज्यों को टारगेट दिए जाने लगे. आका को खुश करने की होड़ शुरू हो गई मुख्यमंत्रियों में. यूपी के एनडी तिवारी एक टारगेट पाते तो बिहार के जगन्नाथ मिश्र उससे भी बड़े टारगेट का कौल दे आते. और फिर इसे पूरा करने का जिम्मा आता हेल्थ मिनिस्टर बिंदेश्वरी का. उन्होंने न सिर्फ नसबंदी प्रोग्राम को लेकर हेल्थ डिपार्टमेंट पर सख्ती की, बल्कि प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों पर भी नकेस कस दी. धड़ाधड़ छापे, मुकदमे और गिरफ्तारी होने लगीं.

संजय गांधी इससे खूब खुश हुए. इमरजेंसी के दौर में वह चार दफा बिहार आए.

फिर आए विधानसभा चुनाव. प्रदेश भर के नामी डॉक्टरों ने बेरमो में कैंप कर दिया. विपक्षी उम्मीदवार को हर तरह की मदद दी. ऐसे में बिंदेश्वरी तीन हजार वोटों से हार गए. लेकिन संजय ने अपने सिपहसालार को याद रखा. 1980 के लोकसभा चुनाव में गिरडीह से टिकट दे सांसद बनवा दिया. फिर राजीव राज आया तो बिंदेश्वरी का कद बढ़ गया. जगन्नाथ मिश्र और चंद्रशेखर सिंह के गुटों में बंटी कांग्रेस संभालने के लिए राजीव ने अपने इस सांसद को इंका का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. उनकी ही सदारत में 1984 के लोकसभा चुनाव हुए. इंका उम्मीदवारों की लिस्ट जारी हुए तो कयासबाजों को मसाला मिल गया. सूची में खुद अध्यक्ष बिंदेश्वरी दुबे का पत्ता साफ था. क्यों किया राजीव ने ऐसा. सबको 3 महीने बाद पता चला जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आए. राजीव ने सिटिंग सीएम चंद्रशेखर सिंह को दिल्ली बुला लिया और बिंदेश्वेरी दुबे को मुख्यमंत्री पद संभालने को कह दिया. कुछ लोगों को इसकी भनक तभी लग गई थी, जब दुबे विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए अपनी पुरानी बेरमो के बजाय भोजपुर जिले की शाहपुर सीट पर आए. जनता पार्टी ने यहां उनकी राह मुश्किल करने के लिए शाहपुर के चार दफा विधायक रहे कद्दावर समाजवादी नेता रामानंद तिवारी के बेट शिवानंद तिवारी को उतारा. मगर बिंदेश्वरी आसानी से सहानुभूति लहर में पार पा गए. कांग्रेस के कुल 198 विधायक जीते.

चंद्रशेखर की जगह बिंदेश्वरी को बैठाने के लिए राजीव ने बंसीलाल को ऑबजरवर बनाकर भेजा. जगन्नाथ मिश्र का भी एक खेमा था. मगर उसका बड़ा लक्ष्य चंद्रशेखर हटाओ था. ऐसे में मिश्र को बिंदेश्वरी के नाम पर सहमत होना पड़ा. चंद्रशेखर भी जगन्नाथ के बजाय ये विकल्प श्रेयस्कर समझकर राजधानी से रवाना हुए.

12 मार्च 1985 को बिंदेश्वरी दुबे ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. शुरुआती हफ्तों में लोगों को स्पष्ट हो गया. नाम बिंदेश्वरी का है, मगर छाप पूरी की पूरी जगन्नाथ मिश्र की. हर नियुक्ति, हर फैसले में उनकी सलाह सर्वोपरि होती. जब ये बात प्रधानमंत्री राजीव गांधी को पता चली तो मुख्यमंत्री बेतरह झिड़के गए. और फिर उन्होंने अपने रंग बदलने शुरू किए.

अंक 3

कोयलांचल का किंग कौन


"बिंदेश्वरी दुबे जनता और वर्किंग क्लास का भरोसा गंवा चुके हैं और अब वे पार्टी और प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पर बोझ बन गए हैं."

ये बयान किसी विपक्षी नेता का नहीं, कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र का था. बयान ऐसे समय आया जब पावर कॉरिडोर्स में ये चर्चा चल रही थी कि पार्टी महासचिव और बिहार प्रभारी टी अंजैया ने उन्हें हद में रहने को कहा. जगन्नाथ और बिंदेश्वरी के बीच ये अदावत हुई मुख्यमंत्री के उनकी छाया से बाहर निकलने के बाद. जगन्नाथ को लगा कि उनसे विश्वासघात हुआ. ऐसे में उन्होंने बिंदेश्वरी को उनके गढ़ में मात देने का प्लान बनाया.

बिंदेश्वरी का गढ़ था धनबाद और वहां की कोयला यूनियन. एक दिन अचानक राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संगठन की बैठक बुलाई गई. फिर इसमें प्रस्ताव पारित हुआ कि अब बिंदेश्वरी दुबे हमारे अध्यक्ष नहीं. उनकी जगह जगन्नाथ के खास सांसद शंकर दयाल सिंह को अध्यक्ष और विधायक एसपी राय को महासचिव चुन लिया गया. अगले दिन मुख्यमंत्री का शहर दौरा था. घोषित कार्यक्रम था कांग्रेस के मजदूर संगठन ईंटक के बैनर तले. मगर यहां भी दो मंच सजे थे. एक पर मुख्यमंत्री आसीन तो दूसरे पर पूर्व मुख्यमंत्री. तिस पर तुर्रा ये कि जगन्नाथ के कार्यक्रम में ज्यादा भीड़. इस भीड़ के पीछे बिंदेश्वरी से धनबाद के कोल माफिया की निजी खुन्नस भी थी. कई लोगों ने कोयलांचल पर राज कर रसूख कमाया था. अब वह सत्ता कमाना चाहते थे. इस वास्ते 1985 में पहुंच गए इंका अध्यक्ष बिंदेश्वरी दुबे के पास टिकट मांगने. लेकिन दुबे ने हाथ भी नहीं रखने दिया. सो ये सब लोग जगन्नाथ की छतरी तले इकट्ठा हो बदला भांज रहे थे.

उधर मुख्यमंत्री प्रोग्राम के बाद बयान दे रहे थे,


मुझे मुख्यमंत्री पद से हटाने में कुछ माफिया टाइप नेता लगे हुए हैं क्योंकि उनका अवैध धंधा हमने रोक दिया है.'

अंक 4

कानून अंधा पूरा

बिंदेश्वरी दुबे ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अपराधी तत्वों और माफियाओं के सफाए के लिए दो चर्चित कार्यक्रम चलाए. पहला चंपारण के जंगलों और पहाड़ियों से ऑपरेट कर रहे डकैतों के खिलाफ ऑपरेशन ब्लैक पैंथर. इसके लिए आईपीएस रामचंद्र खान को तैनात किया गया. दूसरा ऑपरेशन माफिया ट्रायल. इसमें धनबाद माफिया को निशाने पर लिया गया. ये काम सौंपा गया दो आईपीएस अधिकारियों विष्णु दयाल राम और मदन मोहन झा का. ये वही विष्णु दयाल हैं, जो इस वक्त पलामू से बीजेपी सांसद हैं. धनबाद माफिया के सरगना थे सूर्यदेव सिंह. चंद्रशेखर के खास. उनके सिंडीकेट ने कांग्रेस में अपने आकाओं और पालतुओं को दरेरा देना शुरू किया. फिर भी समन तामील होने लगे तो कभी बीमारी तो कभी किसी कानून पेच का सहारा लेकर गिरफ्तारी से बचने लगे. फिर बिंदेश्वरी को भी संदेश मिल गया. आराम से चलिए. उनका अमला भी ढीला पड़ गया. और तभी हो गया दलेल चक कांड.


Imag0658 उद्घाटन के दौरान बिंदेश्वरी दुबे की तस्वीर.

तारीख थी 29 मई 1987. उस दिन औरंगाबाद जिले के बघौरा गांव में रामदीन सिंह घर पर नहीं थे. इसी रात हथियारबंद नक्सलियों ने उनके घर में घुसकर 20 लोगों की सर काटकर हत्या कर दी. इनमें उनके 80 वर्षीय पिता और डेढ़ साल का बच्चा भी था. यहां तक कि हो हल्ले को सुन जब रामदीन सिंह का दलित ट्रैक्टर ड्राइवर पहुँचा तो नक्सलियों ने उसे भी ट्रैक्टर से बांधकर जिंदा जला दिया.

इसी रात पड़ोस के गांव बघौरा में भी 21 लोगों को मारा गया. कुल आंकड़ा 42, जिसमें 41 राजपूत. शक माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के यादव काडर पर. पूरे देश में सनाका खिंच गया. बिंदेश्वरी समर्थकों ने दबी जबान में कहा, कुछ दिन पहले औरंगाबाद के छेछनी गांव में राजपूतों ने यादवों को मारा था. ये उसी का बदला था.

लेकिन सरकारें बदले का तर्क देकर बच नहीं सकती थीं. बिंदेश्वरी को बदलने की मांग अब तेज हो गई. कुछ ही महीनों में बिहार फिर राष्ट्रीय सुर्खियों में लौटा. इस बार बाढ़ कुप्रबंधन के चलते. राजधानी पटना तक पानी में डूब गए. इस दौरान बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी भागलपुर दौरे पर आए. यहां पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा,


"इस भीषण बाढ़ में पूरे बिहार में सिर्फ एक ही आदमी सुरक्षित है और वह आदमी बिंदेश्वरी दुबे जी हैं."

लेकिन बिंदेश्वरी सुरक्षित नहीं थे.

अंक 5

चलाचली की वेला

देश में राजीव गांधी की सरकार चौथे साल में थी. बोफोर्स समेत कई मामलों के चलते अलोकप्रिय हो चुकी थी सरकार. राज्यों से भी भ्रष्टाचार और गुटबाजी की लगातार शिकायतें आ रही थीं. ऐसे में राजीव कभी कैबिनेट बदलते, कभी कोई लोक लुभावन घोषणा करते, मगर बात पकड़ में न आती. ऐसे में उन्होंने कई बड़े राज्यों के मुख्यमंत्री बदलने का फैसला किया. उत्तर प्रदेश में वीर बहादुर सिंह की जगह नारायण दत्त तिवारी, राजस्थान में हरिदेव जोशी की जगह शिवचरण माथुर, महाराष्ट्र में शंकर राव चव्हाण की जगह शरद पवार और एमपी में मोतीलाल वोरा की जगह अर्जुन सिंह को लाया गया. बिहार इस लिस्ट से बाहर नहीं था. बिंदेश्वरी को इस्तीफा देने को कह दिया गया और उनकी जगह राजीव मंत्रिपरिषद के बुजुर्ग बिहारी सदस्य, भागलपुर के सांसद भगवत झा आजाद को पटना रवाना कर दिया गया. कैलेंडर उस समय फरवरी 1988 का महीना दिखा रहा था.

दो महीने बाद राज्यसभा चुनाव आए तो बिंदेश्वरी को सांसदी मिल गई. फिर राजीव कैबिनेट में लेबर मिनिस्ट्री भी. लेकिन एक साल से पहले ही उन्हें लॉ मिनिस्ट्री में डंप कर दिया गया. बतौर कानून मंत्री बिंदेश्वरी ने फैसला लिया, गरीब महिलाएं यौन उत्पीड़न की शिकार होंगी तो उन्हें मुआवजा मिलेगा. अधिसूचना जारी हुई तो अगले कुछ महीनों में अचानक इस तरह की एफआईआर में बढ़ोतरी दिखने लगी.


Imag0755 1 बिहार स्टेट हैण्डलूम के शिलान्यास पटल की तस्वीर, जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी दुबे का नाम लिखा है.

बिंदेश्वरी के सब फैसले विवादास्पद नहीं थे. बेंगलुरू की मशहूर नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी भी उन्हीं के कार्यकाल की देन थी.

कांग्रेस ने सत्ता गंवाई फिर नरसिम्हा राव के नेतृत्व में वापसी भी की, लेकिन बिंदेश्वरी का करियर ढलान पर ही रहा. 1994 में उनका बतौर सांसद कार्यकाल पूरा होना था. मगर उससे पहले ही, 20 जनवरी 1993 को 72 वर्ष की अवस्था में उनका निधन हो गया.