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हूती विद्रोहियों के सामने सऊदी अरब सरेंडर करेगा?

यमन वॉर की शुरुआत कैसे हुई?

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यमन में ये जंग 9 सालों से चल रही है. इसमें सबसे अहम सऊदी अरब और ईरान हैं. (फोटो: आजतक )

‘मार्च 2015 के दूसरे हफ्ते मैं यमन के शहर अदन पहुंची. मैंने वहां देखा कि मिसाइलों ने पूरे शहर को चारों तरफ से बर्बाद कर दिया है. सड़कों पर केवल सेना के टैंक नज़र आते हैं. हूतियों ने राष्ट्रपति भवन पर भी बमबारी की हुई है. जहां राष्ट्रपति अब्द्राबुह मंसूर हादी छिपे हुए थे. फिर 23 मार्च को युद्ध का फैसला लिया गया. कई दूतावास के दरवाज़ों पर ताले लग रहे थे. एम्बेसडर और दूसरे अधिकारी देश छोड़कर जा रहे थे. कई राजनैतिक दलों के नेता भी अपने परिवार समेत देश छोड़कर भाग रहे थे. चारों ओर हाहाकार था. राष्ट्रपति हादी 25 मार्च को देश छोड़कर भाग गए. उसी दिन हादी के समर्थन और हूतियों के विरोध में सऊदी अरब ने देश में हवाई हमले शुरू किए. 26 मार्च की सुबह जब मैं उठी तो मेरे कानों में बस विमानों और विस्फोटों की गड़गड़ाहट थी. सब कुछ आंखों के सामने बर्बाद होता दिख रहा था. शहर में बिजली चली गई थी. हम उजाले के लिए मोमबत्ती और लालटेन का इस्तेमाल कर रहे थे. ऐसा लग रहा था मानों हम पुराने वक्त में लौट आए हैं. हम जहां भी जाते हैं तबाही के मंज़र दिखाई देते हैं. कुछ ही दिनों में हर जगह तबाही के मंज़र और ग़ुरबत नज़र आने लगी. हमें दुनिया ने एक कोने में छोड़ दिया है.’

ये पत्रकार बुशरा अल-मकतरी की आपबीती है, जो उन्होंने गार्डियन अखबार में बयान की थी. यमन की जंग 9 सालों से छिड़ी हुई है. सऊदी अरब की लीडरशिप में सैन्य गठबंधन यहां हूती विद्रोहियों के ख़िलाफ़ लड़ रहा है. जीत कोई नहीं रहा, लेकिन ढाई लाख लोग मारे ज़रूर जा चुके हैं. जो बमबारी से बच जाते हैं, वो भूख से मर रहे हैं, क्योंकि आर्थिक नाकाबंदी के नाम पर खाने-पीने के सामान की सप्लाई भी रोक दी गई है. हालात भयावह हैं. लेकिन अब एक उम्मीद की किरण नज़र आ रही है. क्योंकि युद्ध विराम को लेकर सऊदी अरब और हूती विद्रोहियों के बीच यमन में एक बैठक हुई है. अगर ये बातचीत सफल हो जाती है, तो यमन में कत्लेआम रुक जाएगा. और तब संभव है कि लोगों की ज़िदगियां पटरी पर लौटें.

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तो आज हम जानेंगे,
यमन वॉर की शुरुआत कैसे हुई?
हूती विद्रोही कौन हैं? और सऊदी अरब उनसे क्यों लड़ रहा है?
और यमन का भविष्य कैसा दिखाई पड़ता है?

शुरुआत इतिहास से,

प्राचीन काल में यमन कैसा था. उसका सामाजिक ढांचा कैसा था. इसकी जानकारी कम ही मिलती है. लेकिन इतिहासकारों को इस बात के सबूत मिले हैं कि ईसा से 5 हज़ार साल पहले यमन के उत्तर की तरफ पड़ने वाले पहाड़ों पर लोग रहा करते थे. फिर ईसा से करीब 11 सौ साल पहले यहां सबाई लोगों का कब्ज़ा हो गया. इनका साम्राज्य उस दौर में बहुत फला फूला. यमन में उन दिनों पानी की बड़ी किल्लत हुआ करती थी. इसी समस्या को दूर करने के लिए 940 ईसा पूर्व में सबाईयों ने मारिब का बांध बनाया. फिर ईसा के करीब 700 साल पहले यहां अवसानियों ने रूल किया. रोमानो के आने के पहले तक यहां के कई साम्राज्य आए और गए. इससे इस इलाके की भौगौलिक स्थिति में बहुत परिवर्तन आए. माने नए शासक नए इलाके फतह करते तो कई शासक पुराने इलाके हार जाते. फिर ईसा के करीब साढ़े तीन सौ साल बाद यहां किंग असद का राज आया. उन्हें इतिहास में ‘असद द परफेक्ट’ नाम से भी जाना जाता है. किंग असद के बाद कुछ यहूदी शासकों ने भी इस ज़मीन पर अपना राज चलाया.

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साल 630 के बाद यमन में इस्लाम का उदय होना शुरू हुआ. खिलाफत ए राशिदा के दौर तक इलाके में शांति कायम रही. पर इसके बाद स्थिति डांवाडोल होने लगी. साल 1229 के करीब यहां रसूलिद वंश ने शासन किया. फिर 16 वीं शताब्दी के आस-पास यहां ओटोमन्स का राज हुआ. फिर करीब एक हज़ार सालों तक यहां ज़ायदी राजाओं का शासन रहा. ज़ायदी, शिया इस्लाम की एक धारा है. 1962 में अंतिम ज़ायदी सुल्तान इमाम अहमद की हत्या हो गई. इसके बाद लंबे समय तक सिविल वॉर चला. यमन दो हिस्सों में बंटा. कुछ समय के लिए साउथ यमन में सोवियत यूनियन का भी प्रभाव रहा.

साल 1978 में नॉर्थ यमन में अली अब्दुल्लाह सालेह के हाथ सत्ता आई. वे राष्ट्रपति बनाए गए. सालेह के दौर में नॉर्थ और साउथ यमन के बीच लड़ाई हुई. दूसरे विश्व युद्ध के खात्में के बाद दुनिया में दो बड़ी ताकतें उभरीं. अमेरिका और सोवियत यूनियन. दोनों एक दूसरे पर धौंस जमाती. साल 1980 के दशक में सोवियत यूनियन कमज़ोर पड़ने लगा. उसके गुट में शामिल देश बगावत करने लगे थे. इसका असर यमन में भी दिखा. नॉर्थ यमन और साउथ यमन एक हो गए. इस मिलन का नया नामकरण हुआ. रिपब्लिक ऑफ़ यमन. अली अब्दुल्लाह सालेह की सत्ता बनी रही. वो एकीकृत यमन के पहले राष्ट्रपति बने. उन्हें साथ मिला सऊदी अरब और अमेरिका का.

वहीं ज़ायदी शिया मुस्लिम का क्या हुआ? उन्हें यमन की मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स से दरकिनार कर दिया गया. शियाओं में ये बात चलने लगी कि इस तरह तो एक दिन जायदी शिया देश से गायब ही हो जाएंगे. इसी माहौल में एक नौजवान खड़ा हुआ. साल 1990 के दशक में. उसने स्टूडेंट मूवमेंट की नींव रखी. ‘द बिलिवींग यूथ’ उस नौजवान का नाम था हुसैन बेदरदीन अल-हूती. इस आन्दोलन का मकसद था, ज़ायदी इस्लाम का पुनर्जागरण करना.

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कैसे काम करते थे ये लोग? समर कैम्पस में नौजवानों को बुलाना. वहां शिया स्कॉलर्स की किताबें पढ़ाई जातीं. एक तरफ बेदरदीन अल-हूती अपने समाज की खोई हुई पहचान वापस लाने की जद्दोजहद में लगा हुआ था. वहीं दूसरी तरफ यमन की सरकार अमेरिका और इज़रायल के साथ अच्छे रिश्ते बनाने में लगी हुई थी. इज़रायल का भी इस भूमिका में अहम योगदान था. जायदी शिया फिलिस्तीन के हालातों से खफ़ा थे. लेकिन सरकार में उनका रसूख खत्म हो गया था. तो वो अपनी बात बड़े लेवल पर नहीं पहुंचा पाते थे.
ज़ायदी अपने अधिकारों की मांग कर रहे थे. और सालेह सरकार अपनी मस्ती में मस्त थी. नाराज़ होकर बेदरदीन अल-हूती ने सरकार के ख़िलाफ़ आन्दोलन छेड़ दिया. इससे तनाव बढ़ा. अल-हूती सरकार की नज़रों में चढ़ गया. आगे जाकर आन्दोलन तेज़ हुआ. सेना और अल-हूती के समर्थकों के बीच हिंसक झड़पें शुरू हो गई. 10 सितंबर 2004 सेना ने मुठभेड़ में अल-हूती को मार गिराया. और फिर हुआ ऐलान ए जंग. उसके समर्थकों ने यमन सरकार के खिलाफ सीधी जंग शुरू कर दी. अल-हूती के नाम पर इस आंदोलन को नाम मिला, हूती विद्रोह. उनके समर्थक कहलाए हूती विद्रोही.

सालेह सरकार ने सोचा कि हूतियों को हराना आसान होगा. उनकी संख्या भी कम है. सरकार के पास पूरी आर्मी और मशिनरी है. लेकिन ये बात गलत साबित हुई. सालेह सरकार को झुकना पड़ा. हूतियों को जीत मिली. मजबूरन सरकार को उनके साथ समझौता करना पड़ा. ये बात है साल 2010 की. फिर अगले साल माने 2011 में अरब स्प्रिंग आई. मिडिल ईस्ट में तानाशाहों की सरकारे गिरनी शुरू हुई. अरब स्प्रिंग की आंच ने समूचे मिडिल ईस्ट को अपनी आगोश में ले लिया था. ज़ाहिर है इसकी आंच यमन में भी आई. अली अब्दुल्लाह सालेह. लंबे समय से सत्ता उनके ही पास थी. तानाशाही थी. विद्रोह के बाद सालेह को सत्ता अपने सहयोगी अब्द्राबुह मंसूर हादी को सत्ता सौंपनी पड़ी.

हूती विद्रोहियों ने 2015 में राजधानी सना पर कब्जा कर लिया. प्रेसिडेंशियल पैलेस हथिया लिया गया. राष्ट्रपति मंसूर हादी को देश छोड़कर भागना पड़ा. सऊदी को यकीन था हूतियों की मदद ईरान कर रहा है. वो खुद के दम पर इतना कुछ करने में सक्षम नहीं हैं. ईरान के लिए हूतियों की मदद करना मुश्किल नहीं था. वो लेबनन में हिज्बुल्लाह की मदद भी करता था. चूंकि उस समय सऊदी और ईरान कट्टर दुश्मन हुआ करते थे तो सऊदी ने हादी को सपोर्ट करना शुरू किया. सऊदी ने यमन में सरकार को पुनर्स्थापित करने और हूतियों पर कार्रावाई के लिए अरब देशों का सैन्य गठबंधन तैयार किया. और यहां हमला बोल दिया.   देश अस्थिर हो रहा था. इस अस्थिरता का लाभ उठाकर अल क़ायदा की यमनी शाखा और इस्लामिक स्टेट भी यमन में ख़ुद को मज़बूत करने में जुट गए.

साल 2016 में सऊदी ने एक क्रूर हरकत कर दी. जिससे हिंसा की आग और भड़क गई. जलाल अल-रुवेइशन के पिता का निधन हुआ था. जलाल हूतियों के बड़े नेता थे. उनके पिता का जनाज़ा कब्रिस्तान की तरफ ले जाया जा रहा था. इसमें हूतियों का बड़ा काफिला शामिल था. जनाज़े के दौरान सऊदी गठबंधन सेना ने जनाज़ा ले जा रहे काफिले पर हवाई हमला कर दिया. इस हमले में 140 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई और सैकड़ों घायल हुए. इस घटना ने हिंसा की आग और बढ़ा दी. हूतियों ने भी इसका जवाब दिया. बदले में और हमले हुए. इस युद्ध को शुरू हुए 9 साल हो गए हैं लेकिन इसका हासिल कुछ नहीं हुआ. बस इंसानी जाने गईं हैं. अमेरिका और ब्रिटेन ने भी सऊदी का साथ ही दिया है. अब तक इस युद्ध में ढ़ाई लाख से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं. यमन के आधे से ज़्यादा इलाकों पर हूतियों का कब्ज़ा है. युद्ध में पिस रहे यमन के लिए अब एक उम्मीद की किरण दिखती नज़र आई है. और इसी उम्मीद की किरण की वजह से आज हम आपको ये कहानी सुना रहे हैं.

दरअसल 9 अप्रैल को सऊदी अरब और ओमान का एक डेलीगेशन यमन पहुंचा है. हूती विद्रोहियों से बातचीत करने. इस मीटिंग में सीज फायर को लेकर समझौता होना तय था. आधिकारिक रूप से अभी डील की बातें सामने नहीं आई हैं, पर सूत्रों ने रॉयटर्स समाचार एजेंसी को बताया है कि सऊदी ने हूतियों ने ये मांगे रखी है कि उनके कब्ज़े वाले सारे एयरपोर्ट्स और बंदरगाहों को खोल दिया जाए और सरकारी कर्मचारियों को वेतन दिया जाए. साथ ही डील में राजनीतिक स्थिरता के लिए बदलाव की बात ही कही गई है.

यमन में ये जंग 9 सालों से चल रही है. इसमें सबसे अहम सऊदी अरब और ईरान हैं. यमन की सरकार को जहां सऊदी का समर्थन है वहीं हूती विद्रोहियों को ईरान का. हाल ही में हमने देखा कि चीन ने ईरान और सऊदी की दोस्ती करवाई. माना जा रहा है इसका असर यमन की जंग पर पड़ा है. उसी सुलह की वजह से सऊदी ने ये सुलह की है.  

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