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रवांडा जनसंहार: क्या हम कभी इतिहास से सबक लेंगे या उसे बदलकर बस अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे?

10 लाख हत्याएं. हजारों महिलाओं का बलात्कार. रवांडा जनसंहार के 29 साल पूरे हुए. हमने क्या सीखा?

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हमें इतिहास से सीखना ही होता तो अब तक ‘रवांडा जनसंहार’ से सबक ले चुके होते. (फाइल फोटो: एएफपी)

हम इतिहास क्यों पढ़ते हैं? अपने पुरखों की ग़लतियों से सबक और उनकी अच्छी चीज़ों से सीख हासिल करने के लिए. ये आदर्श स्थिति होगी. यानी, अगर हमने इसका अक्षरश: पालन किया तो यूटोपिया की धारणा सच साबित हो जाएगी. मगर हमने ऐसा नहीं किया. जैसा कि जर्मन दार्शनिक जॉर्ज विल्हम फ़्रेडरिक हीगल कह गए,

‘The only thing that we learn from history is that we learn nothing from history.’

मतलब ये कि, हम अपने अतीत से सिर्फ यही सीख पाए कि हमने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा. 

इस पंक्ति की अलग-अलग व्याख्याएं हो सकती हैं. हालांकि, इसकी एक ज़्यादा सटीक व्याख्या यही है कि हमने अपने अतीत से कुछ भी ग्रहण नहीं किया. अगर इस अर्थ को मान लिया जाता है, तभी अचानक से हीगल का दावा भ्रामक दिखने लगता है. सच तो ये है कि हमने अपने इतिहास से बखूबी सीखा. हमने वो हर चीज़ ग्रहण की, जिन्हें कब का दफ़्न कर दिया जाना था. हमने नफ़रत सीखी, प्रोपगैंडा सीखा. नस्ल के आधार पर लड़ना सीखा. 

आलम ये है कि सबसे विज्ञानशील और विकसित कहे जाने वाले युग में हम धर्म, नस्ल, खान-पान, पहनावे, भाषा जैसे मुद्दों पर एक-दूसरे का ख़ून खींचने के लिए लालायित हैं. अगर हमें इतिहास से सीखना ही होता तो हम 20वीं सदी के वीभत्स ‘रवांडा जनसंहार’ से सबक ले चुके होते. जिसके मूल में वो सब कुछ था, जो आज के दौर में फिर से दोहराया जा रहा है. दुनिया के कई हिस्सों में. हमारे-आपके आस-पास भी.

रवांडा जनसंहार का जिक्र क्यों?

क्योंकि बीती 7 अप्रैल को इस जनसंहार के 29 बरस पूरे हो गए. इस मौके पर भारत में रवांडा के उच्चायोग ने बरसी का कार्यक्रम आयोजित किया था. यूएन इंडिया और गांधी-मंडेला फ़ाउंडेशन के साथ मिलकर. इंडिया इंटरनैशनल सेंटर में 30 से अधिक देशों के उच्चायुक्त और राजदूत इकट्ठा हुए थे. उन देशों के भी, जहां 1994 के रवांडा जैसी स्थिति बन रही है या उसकी नींव मज़बूत की जा रही है. 

खैर, मंच से जो भी संबोधन हुए, उनमें एक चीज़ कॉमन थी. उनमें बार-बार याद दिलाने की कोशिश की गई कि रवांडा की घटना अचानक से नहीं घटी थी. इसकी चिंगारी बरसों से धधक रही थी. इसका माहौल बहुत पहले से तैयार किया जा रहा था. मौजूदा समय में उसके दोहराव की आशंका बढ़ी है. इसलिए, हमें उनसे सतर्क रहने की ज़रूरत है. इस चेतावनी की वजहों के बारे में आगे विस्तार से बताएंगे. उससे पहले ये जान लीजिए कि 1994 में रवांडा में हुआ क्या था?

- 06 अप्रैल 1994 की शाम सेना का एक जहाज रवांडा की राजधानी किगाली के एक एयरपोर्ट पर उतरने वाला था. पायलट ने यात्रियों से सीट बेल्ट बांधने की अपील के बाद जहाज को नीचे लाना शुरू कर दिया. इतने में ज़ोर का झटका लगा. फिर जहाज में आग लग गई. थोड़ी देर बार ज़मीन पर मलबे का ढेर पड़ा था. उस मलबे में रवांडा के राष्ट्रपति जुवेनाल हाबियारिमाना और पड़ोसी देश बुरुण्डी के राष्ट्रपति साइप्रियन नटेरियामारा की लाशें भी थीं.
 

मलबे में रवांडा के राष्ट्रपति जुवेनाल हाबियारिमाना और पड़ोसी देश बुरुण्डी के राष्ट्रपति साइप्रियन नटेरियामारा की लाशें भी थीं.(फोटो: एएफपी)

- रवांडा में दो मुख्य नस्लें रहती आईं हैं. बहुसंख्यक हुतू और अल्पसंख्यक तुत्सी. संख्या में कम होने के बावजूद तुत्सियों का प्रभाव ज़्यादा था. जर्मनी और बेल्जियम के औपनिवेशिक शासकों ने नस्ली भेदभाव को बढ़ावा दिया. उन्होंने तुत्सी कुलीनों को वरीयता दी. हुतू लोगों को दरकिनार करके रखा गया. इसके कारण दोनों के बीच खाई बढ़ती गई. 

1962 में रवांडा आज़ाद हो गया. सत्ता हुतू लोगों के हाथों में आई. उन्होंने पुरानी दुश्मनी निकालनी शुरू की. देशभर में दंगे होने लगे. हज़ारों तुत्सियों को देश छोड़कर भागना पड़ा. जो नहीं गए, उनसे दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाने लगा. इसको लेकर उनमें नाराज़गी फैली. बाहर भागे तुत्सियों ने गुट बनाकर गुरिल्ला युद्ध शुरू किया. इनमें से एक गुट था, रवांडा पैट्रियटिक फ़्रंट (RPF). इस गुट का एक लीडर पॉल कगामे साल 2000 से रवांडा का राष्ट्रपति है. वो कहानी फिर कभी. फिलहाल जनसंहार के चैप्टर पर फ़ोकस करते हैं.

RPF के गुरिल्ला हमले ने रवांडा की हुतू सरकार और उसके कारिंदों को नाराज़ कर दिया था. वे खुले तौर पर तुत्सियों को जड़ से मिटाने की बात करने लगे. उन्होंने हथियार जमा किए. हिंसक संगठन बनाए. तुत्सियों के ख़िलाफ़ नफ़रती प्रचार किया. वे छिटपुट दंगे भी करते रहे. फिर हुतू राष्ट्रपति के प्लेन क्रैश ने उन्हें दानव बना दिया. बिना सबूत के हुतू नेताओं ने कहा कि हाबियारिमाना को तुत्सियों ने मारा है.

- 7 अप्रैल 1994 को जनसंहार का पहला दिन था. अगले 100 दिनों तक पूरे रवांडा में सिर्फ़ क़त्लेआम हुआ. इन सौ दिनों में लगभग 10 लाख लोगों की हत्या हुई थी. इनमें अधिकतर तुत्सी थे. बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, किसी को नहीं बख्शा गया था. हज़ारों महिलाओं के साथ हुए बलात्कार की जघन्यता पर कभी चर्चा ही नहीं हुई.

- रवांडा जनसंहार में हुए नुकसान को कम किया जा सकता था, अगर अमेरिका, फ़्रांस और बेल्जियम जैसे देशों और यूएन और कैथोलिक चर्च जैसी संस्थाओं ने तनिक भी ज़िम्मेदारी दिखाई होती. रिपोर्ट्स हैं कि अगर उन्होंने थोड़ी भी कोशिश की होती तो लाखों लोगों को बचाया जा सकता था. हालांकि, इन देशों और संस्थाओं ने बाद में गाल ज़रूर बजाए. बरसों बाद भी वे मानवाधिकार के मुद्दे पर बड़े-बड़े जुमले फेंकते पाए जाते हैं. सच तो ये है कि उन्हीं के हाथ मानवाधिकार के ख़ून में काफी अंदर तक डूबे हुए हैं.

- वैसे, रवांडा जनसंहार जब रुका, तब RPF तुत्सियों के प्रतिनिधि के तौर पर आगे आई. तब से रवांडा में यही पार्टी सरकार चला रही है. देश में बकायदा चुनाव भी कराए जाते हैं. मगर अजूबा ये कि RPF के नेता हमेशा 90 प्लस नंबर से टॉप होते रहे हैं.

ये तो हुई रवांडा जनसंहार की ब्रीफ़ प्रोफ़ाइल. अब चेतावनी वाला चैप्टर खोल लेते हैं. क्यों कहा जा रहा है कि संकेतों को पहचानिए? इसका जवाब जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा. समझना होगा कि 1994 के रवांडा जनसंहार से पहले क्या संकेत दिखाई दे रहे थे?

रवांडा जनसंहार के 29 साल पूरे हो चुके हैं.(फोटो: एएफपी)

 

अंक एक.
The Concept of ‘Othering’. 
अदरिंग में कोई ख़ास व्यक्ति या समुदाय, किसी दूसरे व्यक्ति या समुदाय को कमतर साबित करने पर ज़ोर देता है. इसके ज़रिए वो उन्हें हाशिए पर धकेल देता है. एक बार आपने किसी को समाज या राष्ट्र के स्तर पर अलग-थलग कर दिया, फिर उन्हें निशाना बनाना आसान हो जाता है. क्योंकि ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति या समुदाय के लिए सपोर्ट की संभावना पूरी तरह ख़त्म हो जाती है.
इसका एक बड़ा उदाहरण होलोकॉस्ट का है. एडोल्फ़ हिटलर ने यहूदियों को निशाने पर इसलिए लिया था, क्योंकि उन्हें अलग-थलग करना आसान था. वे ऐतिहासिक तौर पर विलेन माने जाते थे. सन 70 में इज़रायल से भगाए जाने के बाद यहूदी पूरे यूरोप में गए. लेकिन उन्हें हमेशा मुख्य समाज से अलग करके रखा गया. उन्हें सूदखोर और अपवित्र घोषित कर दिया गया. यहूदियों को अक्सर गांवों के बाहर रहना पड़ता था. उन्हें अपने घेट्टो से बाहर निकलने की इजाज़त तक नहीं होती थी. जब कभी गांवों में एंट्री लेनी होती, उन्हें ढोल बजाकर अपने आने की जानकारी देनी होती थी.


डोमिनिक लापिएर और लैरी कॉलिन्स ने अपनी किताब ‘ओ जेरूसलम’ में इसका बखूबी ज़िक्र किया है. उन्होंने लिखा है, कई देशों ने यहूदियों के ज़मीन खरीदने पर रोक लगा दी. चर्च ने यहूदियों के यहां ईसाईयों के नौकरी करने और ईसाइयों को यहूदियों के बीच रहने पर बैन लगाया. 1215 में चर्च के काउंसिल ने यहूदियों के लिए पट्टा बांधना अनिवार्य कर दिया. इसका मकसद उन्हें अलग पहचान देना था. ब्लैक डेथ के लिए भी यहूदियों को ही ज़िम्मेदार ठहराया गया. कहा गया कि उन्होंने ही ये बीमारी फैलाई है. इसके आधार पर दो सौ से ज़्यादा यहूदी समुदायों का खात्मा कर दिया गया. यहूदियों का नरसंहार तब तक चलता रहा, जब तक कि उन्हें अपना देश नहीं मिल गया. इन सबमें एक जैसा पैटर्न दिखता था. पहले अलग करो, फिर हाशिए पर धकेलो और उसके बाद अंज़ाम तक पहुंचाओ.
 

जब तक हिटलर सत्ता में आया, तब तक उसके पास सैकड़ों उदाहरण मौजूद थे. उसने इन धारणाओं को हवा दी. बाकी की कहानी तो इतिहास है.


कट टू रवांडा.
जैसा कि हमने बताया, रवांडा में दो मुख्य समुदाय थे. हुतू और तुत्सी. हुतूओं का अधिकतर काम खेती-गृहस्थी से जुड़ा था. वहीं तुत्सी मवेशीपालन करते थे. कृषि आधारित समाज में मवेशी संपन्नता की निशानी हैं. ऐसे में तुत्सी अल्पसंख्यक होकर भी पारंपरिक तौर पर ज़्यादा प्रभावशाली रहे. 17वीं सदी में तुत्सी राजशाही भी आ गई. फिर आया साम्राज्यवाद का दौर पहले जर्मनी, फिर बेल्जियम. इन्होंने भी तुत्सियों को वरीयता दी. बेल्जियम ने अपने फ़ायदे के लिए नस्लीय नफ़रत और भड़काई. बेल्जियम एक पहचान पत्र का सिस्टम लाया. इसके तहत हर इंसान के आइडेंटिटी कार्ड में उसके समुदाय का ज़िक्र होता. पहचान पत्र के इस सिस्टम ने समुदायों के बीच की खाई और गहरी की. बेल्जियम के सपोर्ट वाले टुत्सी एलीट हुटू किसानों पर अधिक से अधिक कॉफी की खेती का दबाव बनाते. उस कॉफी से बेल्जियम कमाता और कमाई के एवज में तुत्सी संभ्रांतों को भी फ़ायदा देता. हुतू वंचित और शोषित रह जाते.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद रवांडा में आज़ादी की मांग तेज़ होने लगी. साथ ही साथ, लंबे समय से शोषण के शिकार हुतू अब बड़े स्तर पर पलटवार करने लगे. उन्होंने तुत्सियों को निशाना बनाना शुरू किया. एकाएक सोसायटी का समीकरण बदल गया. बहुसंख्यक अपनी संख्या के कारण वरीयता में रखे जाने लगे. रवांडा में तुत्सी राजशाही ख़त्म हो गई. जुलाई 1962 में रवांडा आज़ाद भी हो गया. अब हुतूओं के हाथ में सत्ता आ गई. उन्होंने बरसों हुए शोषण का बदला लेना शुरू कर दिया. कई तुत्सी मारे गए. कइयों को अपना देश छोड़कर भागना पड़ा. जवाब में तुत्सी समुदाय के भीतर भी कई विद्रोही गुट बन गए. रवांडा में यही क्रम बन गया. तुत्सी विद्रोही रवांडा में हमला करते. हुतू सरकार उनसे लड़ती. सरकार विद्रोहियों के किए का बदला लेने के लिए आम तुत्सी आबादी को निशाना बनाती. जो उदार हुतू थे, वे इसकी आलोचना करते. मगर सरकार के पास पुराने इतिहास का झुनझुना था. वो कहती कि हम तो बस कोर्स करेक्शन कर रहे हैं. जो हमारे समुदाय के साथ हुआ, उसका बदला ले रहे हैं. ये एक घटना से दूसरी घटना को जोड़कर अंत में जस्टिफ़ाई करने का तरीका था. ताकि हर कृत्य जायज दिखने लगे. रवांडा सरकार ने इस फ़ॉल्ट लाइन को पकड़ लिया था. उन्होंने तुत्सियों को पहले तो अलग साबित किया, फिर उनके पुरखों की ग़लतियों का ठीकरा उस समय की पीढ़ी पर फोड़ने लगे. हुतूवादी सरकार को भारी समर्थन मिलने लगा. इसने उनका काम आसान कर दिया था. हालांकि, अगला स्टेप उससे कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होने वाला था.

 

अंक दो.

Dehumanising the targeted community. 

यानी, जिसे निशाना बनाना हो, उन्हें दोयम साबित कर दो.

रवांडा में निशाने पर तुत्सी थे. 1990 के दशक में वे रवांडा की आबादी में लगभग 15 प्रतिशत की भागीदारी रखते थे. फिर भी देश के मीडिया तंत्र पर उनका नियंत्रण था. उन्हें टक्कर देने के लिए अक्टूबर 1993 में फ़्री रेडियो एंड टेलीविजन ऑफ़ द थाउजेन्ड हिल्स (RTLM) की स्थापना की गई. ये था तो प्राइवेट चैनल, मगर ये सरकारी ‘रेडियो रवांडा’ के इक़्विपमेंट्स और फ़्रीक़्वेंसी का इस्तेमाल करता था. इसलिए, इस पर अप्रत्यक्ष रूप से सरकार का ही कंट्रोल था.

RTLM ने शुरुआत से ही तुत्सियों के ख़िलाफ़ भड़काऊ प्रोग्राम्स बनाए. इनमें तुत्सी लोगों को ‘तिलचट्टा’ और ‘सांप’ कहकर संबोधित किया जाता था. मकसद ये कि उन्हें ऐसा साबित किया जाए, जिनका इस धरती पर रहना मुनासिब नहीं है. यही काम 1930 के दशक में जर्मनी में एडोल्फ़ हिटलर ने किया था. उसने यहूदियों को ‘अशुद्ध’ और ‘लोगों का ख़ून चूसने वाला’ साबित किया था. इसके चलते जर्मनी की आबादी का एक बड़ा हिस्सा यहूदियों को मिटाने के प्लान पर रज़ामंद हो गया था.

रवांडा में भी ऐसा ही हुआ. तुत्सियों को देश की हर छोटी-बड़ी समस्या के लिए ज़िम्मेदार बताया जाने लगा. उनकी तुलना ख़तरनाक समझे जाने वाले जानवरों से की गई. आम लोगों के दिमाग में ये भरा गया कि अगर तुत्सी नहीं रहे तो रवांडा स्वर्ग जैसा बन जाएगा.

ये भाषा सिर्फ नफरत भर की नहीं है. ये बार-बार एक ट्रिवियल चीज़ को इंसान की आइडेंटिटी पर हैमर करती है. तिलचट्टे या सांप के साथ कभी कुछ गलत होगा, तब आपको बुरा नहीं लगेगा. तो ये एक महीन चीज़ है, जो धीरे-धीरे लोगों में डाली जाती है. उसके बाद वो अन्याय को अन्याय की तरह देखते नहीं. एम्पथी खत्म होती है.

RTLM और रेडियो रवांडा की पहुंच गांवों तक थी. उन इलाकों में रहने वाले लोग बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे. उनकी चेतना का सबसे अहम ज़रिया सरकारी रेडियो चैनल्स थे. हुतू धीरे-धीरे इसमें भरोसा करने लगे. तुत्सी ख़ुद को निर्दोष बताने की कोशिश करते. मगर अंत में उनकी सारी कोशिशें धरी की धरी रह गईं. जब क़यामत का दिन आया, हुतू लोग अपने पड़ोसी और रिश्तेदार तुत्सियों को बेरहमी से मारने से नहीं हिचके. उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था, मानो उन्होंने धरती का बोझ कम किया है. वे कथित नुकसानदेह “जानवरों” की हत्या कर रहे थे. एक सुनहरे भविष्य के लालच में. और, जब तक उनकी आंखों पर लगा पर्दा हटा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

जिस भाषा ने सबसे बड़े जनसंहारों में से एक की नींव रखी, वैसी भाषाएं ताक़तवर नेताओं का गहना बन चुकी हैं. जब कभी उनकी ज़ुबान खुलती है, उनसे नफ़रत का ज़हर टपकता है.

इसके अलावा, अमेरिका, एशिया और यूरोप में लोग इसलिए मारे जा रहे हैं, क्योंकि किसी को उनका रंग या उनका धर्म पसंद नहीं आता. कहीं वाइट सुप्रीमेसी का बोलबाला तो कहीं सबसे ऊंचे होने का उन्माद. क्या इसमें ख़तरे का संकेत नहीं दिखता?

अंक तीन. 

प्रोपगैंडा, प्रोपगैंडा और प्रोपगैंडा…

प्रोपगैंडा और जोसेफ़ गोयबल्स एक-दूसरे के पर्याय हैं. गोयबल्स, हिटलर का प्रचार-मंत्री था. यहूदियों के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार के पीछे उसी का दिमाग काम कर रहा था. गोयबल्स ने एक दफ़ा कहा था, 

"अच्छा प्रोपगैंडा वही है, जो अपने मकसद में सफ़ल हो. प्रोपगैंडा का काम बुद्धिमान होना नहीं है, उसका काम मनचाहा नतीजा हासिल करना है."

रवांडा में हुतू सरकार आने से पहले और उसके बाद भी ये कार्ड बखूबी खेला गया. जुवेनाल हाबेयारिमाना ने आज़ादी से पहले ही तुत्सियों के खात्मे की बात कह दी थी. 1973 में वो सत्ता में आ गए. इसके बाद तो ऐसी आवाज़ों को बल मिलने लगा. इतिहास के पन्नों को घुमा-फिराकर पेश किया जाने लगा. इस इतिहास में खलनायक हमेशा तुत्सी ही होते थे.

अप्रैल 2019 में रवांडा के अख़बार द न्यू टाइम्स के एडिटर केनेडी नदाहिरो ने द अटलांटिक में एक लेख लिखा. इसमें वो दर्ज करते हैं,

“जब कभी रवांडा में सरकार राजनैतिक संकट में घिरती, वो हमेशा तुत्सी कार्ड खेलने लगती थी. इसके ज़रिए वो अपने समर्थकों को बरगलाती रहती थी. 1990 के दशक के मध्य तक, हुतू नेतृत्व में दरारें दिखने लगीं थी. कई अलग-अलग विचारधाराएं पनप रहीं थी. RPF का दखल भी बढ़ने लगा था. उस स्थिति में हुतू नेताओं के सामने एक ही विकल्प बचा था. तुत्सी कार्ड खेलने का. उन्होंने वैसा ही किया भी.”

इसके बाद तो तुत्सी-विरोधी प्रोपगैंडा बढ़ता चला गया. RTLM और रेडियो रवांडा के अलावा एक मैगज़ीन हुआ करती थी, कंगूरा. इसको सेना और सरकार की एजेंसियां फ़ंड करती थीं. इसमें भी तुत्सियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगला जाता था. इसमें लिखे लेख हुतू नेताओं की सभाओं में पढ़कर सुनाए जाते थे.

कंगूरा में ही पहली बार हुतू लोगों के लिए ‘दस ईश्वरीय आदेशों’ की लिस्ट छापी गई थी. इसमें कथित तौर पर सच्चा हुतू बनने के नियम दर्ज थे. मसलन,

- अगर कोई हुतू पुरूष किसी तुत्सी महिला से शादी करता है या उससे प्रेम संबंध बनाता है या उसे पर्सनल सेक्रेटरी बनाता है तो वो व्यक्ति गद्दार है.
- अगर कोई हुतू किसी तुत्सी के साथ बिजनेस करता है, उससे उधार लेता या देता है, किसी तुत्सी कंपनी में निवेश करता है या किसी तरह से मदद करता है, तब भी वो व्यक्ति गद्दार माना जाएगा.
- हुतू पुरुषों को अपनी ही जाति में शादी करनी चाहिए. वे ज़्यादा सुंदर, वफ़ादार और ईमानदार होती हैं.
- स्कूलों से लेकर सरकारी संस्थाओं तक, हर जगह पर हुतू लोग बहुमत में होने चाहिए.
- रवांडा की सेना में तुत्सियों को जगह नहीं मिलनी चाहिए. कोई भी सैनिक तुत्सी महिला से शादी ना करे.

कंगूरा में ही पहली बार हुतू लोगों के लिए ‘दस ईश्वरीय आदेशों’ की लिस्ट छापी गई थी. (फोटो: एएफपी)

ये कुछ उदाहरण भर हैं. उन दिनों में इस तरह के और भी कई उकसावे वाले बयान फैलाए गए. इनका परिणाम जनसंहार के दिनों में दिखा. दुनिया को अपने आस-पास पनप रहे ऐसे ही रेडियो RTLM, कंगूरा मैगज़ीन और रेडियो रवांडा को पहचानने और उनसे सतर्क रहने की ज़ररूत है.

अंक चार. 

फ़्रिंज एलीमेंट.

चालाक राजनेता कभी ख़ुद से किसी दलदल में नहीं उतरते. कीचड़ में लोटने का काम मोहरों का होता है. 1992 में राष्ट्रपति हाबेयारिमाना ने दो चरमपंथी गुट बनवाए थे. इंटराहाम्वे और इम्पुज़ामुगाम्बी. इनमें हुतू नौजवानों को शामिल किया गया. दोनों गुटों का सीधे तौर पर सरकार से कोई लेना-देना नहीं था. लेकिन उन्हें सेना से ट्रेनिंग मिल रही थी. उन्हें किलिंग मशीन के तौर पर तैयार किया जा रहा था.

अप्रैल 1994 में प्लेन क्रैश के बाद इंटराहाम्वे को खुला छोड़ दिया गया. उन्होंने राजधानी किगाली में जगह-जगह पर बैरिकेडिंग लगाई. वे भाग रहे लोगों की आइडी जांचते. जैसे ही कोई तुत्सी पकड़ में आता, वे उनकी हत्या कर देते थे. इंटराहाम्वे ने ही रवांडा की तत्कालीन प्रधानमंत्री मैडम अगाथे की भी हत्या की थी. इसने उदार हुतू लोगों को भी निशाने पर लिया. रवांडा जनसंहार में सबसे ज़्यादा हिंसा इंटराहाम्वे ने ही की थी. RTLM बनाने वाले उद्योगपति फ़ेलिसन कबूगा जैसे प्रभावशाली लोगों ने उन्हें हथियार मुहैया कराए थे. 

सरकारों के लिए ऐसे संगठनों से पल्ला झाड़ना बेहद आसान होता है. हालांकि, इंटराहाम्वे के कई बड़े नेताओं ने बाद में कहा कि उन्हें सरकार की तरफ़ से ही हिंसा करने की छूट मिली थी. रवांडा के एक प्रधानमंत्री ने भी इसमें अपना दोष स्वीकारा. इसी के आधार पर उन्हें सज़ा भी हुई.

निष्कर्ष

रवांडा जनसंहार के 29 साल पूरे हो चुके हैं. इसे बीसवीं सदी या ठीक-ठीक कहें तो मानव इतिहास की सबसे वीभत्स घटनाओं में गिना जाएगा. फिर भी जनसंहार की ये घटना ना तो पहली थी और ना ही आख़िरी साबित हुई. पहले विश्वयुद्ध के दौरान तुर्कों ने अर्मेनियाई जनसंहार किया. उस समय तक जेनोसाइड या जनसंहार जैसा टर्म ईजाद भी नहीं हुआ था. ये टर्म राफ़ेल लिमकिन ने दिया. 1944 में. 

लिमकिन यहूदी थे. पेशे से वकील. वो पोलैंड में रहते थे. उन्हें हिटलर के मंसूबों की भनक बहुत पहले लग गई थी. जब हिटलर पोलैंड पर हमला करने का प्लान बना रहा था, उन्होंने अपने घरवालों को समझाया कि अब देश छोड़ने का वक़्त आ गया है. वे नहीं माने. नतीजा, परिवार के 49 लोग होलोकॉस्ट का शिकार बने. पूरे यूरोप में 60 लाख यहूदी हिटलर की सनक के शिकार बने. लिमकिन किसी तरह जान बचाकर अमेरिका आ गए. बाद में उन्हीं के प्रयासों से यूएन में 'Genocide Convention' लागू हुआ. दिसंबर 1948 में.

माना गया कि अब दुनिया सुधर जाएगी. मगर ना ऐसा होना था. और ना हुआ. 1971 में पाकिस्तान आर्मी ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में बंगालियों की संस्थागत हत्या की. लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ. मकसद बस एक. बंगालियों की पहचान को मिटा देना. ये अलग बात है कि उन्हें घुटने टेकने पड़े. मगर उसके निशान आज तक ज़िंदा हैं.

बांग्लादेश के बाद रवांडा का जनसंहार हुआ. फिर बोस्निया और कोसोवो में वैसा ही इतिहास दोहराया जाता रहा. 21वीं सदी में म्यांमार में रोहिंग्या मुस्लिमों का जनसंहार हुआ. हम अभी उन्हीं घटनाओं की बात कर रहे हैं, जिन्हें पश्चिमी देश और उनसे प्रभावित संस्थाएं जनसंहार मानते हैं. अगर संस्थाओं और परिभाषाओं से इतर जाकर देखा गया तो लिस्ट लंबी हो जाएगी. और, फिर इसमें सबके दामन दाग़दार दिखेंगे.

इन तमाम क़िस्से-कहानियों और पॉलिटिकल करेक्टनेस के बीच वो सवाल बचा रह जाता है, जिसे हम शुरुआत में छोड़ आए थे. क्या हम इतिहास से सबक ले पाएंगे? या, बस इतिहास बदलकर ख़ुद की पीठ थपथपाते रह जाएंगे?

वीडियो: दुनियादारी: रवांडा जनसंहार के दौरान रेडियो चैनल से क्या प्रोपेगैंडा फैलाया गया था?